- नतालिया ब्यूटिस्का, लेखिका अंतरराष्ट्रीय संबंध विशेषज्ञ हैं, वह कीव, यूक्रेन में रहती हैं।
रूस ने यूक्रेन से लगने वाली अपनी सीमा पर एक लाख तीस हज़ार सैनिक तैनात कर रखे हैं। यूरोप में अपने कथित सुरक्षा हितों को हासिल करने के लिए रूस, यूक्रेन पर हमला करने की धमकी दे रहा है। रूस, अमेरिका और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) से लगातार ये अपील कर रहा है कि, वो उसे लिखित गारंटी दें कि, पूर्वी यूरोप में नैटो के विस्तार को वो वापस 1997 के स्तर तक ले जाएंगे, और रूस की सीमाओं के क़रीब आक्रामक हथियारों की तैनाती नहीं करेंगे।
रूसी अधिकारियों की इस मांग का मक़सद यूरोप के प्रभाव क्षेत्रों में उसी तरह विभाजित करने की है, जैसा शीत युद्ध के दौर में था। रूस उन 14 देशों के नैटो सदस्य बनने को भी चुनौती दे रहा है, जो वार्सा संधि का हिस्सा थे। रूस के राष्ट्रपति ने बार बार ज़ोर देकर कहा है कि सोवियत संघ का विघटन, बीसवीं सदी की सबसे बड़ी त्रासदी थी। पुतिन, पूर्व सोवियत गणराज्यों के ऊपर रूस के प्रभाव को दोबारा स्थापित करने की अपनी ख़्वाहिश को छुपाते भी नहीं हैं।
पिछले साल रूस से बेलारूस में ये मक़सद हासिल किया था। इस साल रूस के नेतृत्व वाले साझा सुरक्षा संधि संगठन (CSTO) ने कज़ाख़िस्तान की सरकार की ओर से उसके अंदरूनी मामले में दखल देकर न सिर्फ़ हालात को स्थिर बनाया, बल्कि कज़ाख़िस्तान की राजनीतिक प्रक्रिया में रूस के प्रभाव का भी विस्तार किया।
क्या चाहता है रूस?
रूस चाहता है कि यूक्रेन, नैटो और यूरोपीय संघ का सदस्य बनने की अपनी कोशिश छोड़ दे। इसकी वजह ये है कि यूक्रेन, रूस की भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की बहुत अहम कड़ी है। यूक्रेन और पश्चिमी देशों से सुरक्षा की गारंटी मांग कर रूस, 2008 के बुडापेस्ट की सुरक्षा गारंटी वाले समझौते का उल्लंघन कर रहा है, जिसने यूक्रेन के लिए नैटो की सदस्यता के दरवाज़े खोले थे।
2014 में रूस ने यूक्रेन के क्राइमिया, दोनेत्स्क और लुहांस्क के कुछ इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। उसके बाद से ही रूस आर्थिक, ऊर्जा, ग़लत सूचना, साइबर हमलों और चोट पहुंचाने वाली अन्य गतिविधियों और छद्म युद्ध के ज़रिए यूक्रेन पर इस बात का दबाव बना रहा है कि वो यूरोपीय संघ और नैटो की सदस्यता हासिल करने के अपने प्रयास करने बंद कर दे। लेकिन, कम से कम अब तक तो रूस नाकाम रहा है। दिसंबर 2021 में हुई एक रायशुमारी के मुताबिक़ यूक्रेन के 59.2 फ़ीसद नागरिक अपने देश के नैटो का सदस्य बनने का समर्थन करते हैं। वहीं 67.1 प्रतिशत लोग चाहते हैं कि यूक्रेन, यूरोपीय संघ का सदस्य बन जाए।
दुनिया के हालात की बात करें, तो अफ़ग़ानिस्तान से सेना वापस बुलाने के दौरान तमाम मुश्किलें झेलने के चलते अमेरिका की हैसियत कमज़ोर हुई है। रूस और चीन लगातार इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि अमेरिका अपने साथी देशों की मदद करने में नाकाम रहता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी वो नेतृत्व देने में असफल साबित हो रहा है। रूस और चीन लगातार उस अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं, जिसकी अगुवाई अमेरिका करता है और दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देश उसका समर्थन करते हैं। दोनों ही देश, विश्व व्यवस्था की अपनी परिकल्पना को थोपना चाहते हैं।
क्या है रूस का लक्ष्य
रूस का कई साल से रूस का लक्ष्य रहा है कि वो अमेरिका के साथ बराबरी की हैसियत से बातचीत की मेज़ पर बैठे और दुनिया का बंटवारा करे। इसीलिए, मौजूदा टकराव का जो भी नतीजा निकलेगा, वो बहुत अहम होगा। ऐसे में अमेरिका को चाहिए कि वो तानाशाही देशों से मिल रही चुनौती से सख़्ती से निपटने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन करे।
इस संघर्ष में कमज़ोरी दिखाने से न सिर्फ़ यूरोपीय महाद्वीप में शक्ति का संतुलन बदलेगा। बल्कि चीन, ईरान और उत्तर कोरिया के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा। अगर अमेरिका, यूक्रेन संकट के दौरान कमज़ोर दिखता है, तो इससे बाक़ी दुनिया और ख़ुद अमेरिकी नागरिकों के बीच ये संदेश जाएगा कि राष्ट्रपति जो बाइडेन, विश्व में अमेरिकी नेतृत्व को दोबारा स्थापित नहीं कर सकते हैं।
इस वक़्त बाइडेन प्रशासन के लिए यूरोप में सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वो यूक्रेन की रक्षा के लिए अटलांटिक पार के अपने सहयोगी देशों का सहयोग हासिल कर सकें। यूरोपीय साझीदारों के बीच एकता की कमी का नतीजा ये होगा कि अगर रूस, यूक्रेन पर आक्रमण करता है, तो उस पर ज़बरदस्त पलटवार करने के लिए यूरोपीय देश एकजुट कोशिश नहीं कर पाएंगे।
यूरोपीय समुदाय के बीच, जर्मनी की भूमिका सबसे प्रभावशाली है। ऐसे में यूक्रेन संकट के दौरान, जर्मनी का बर्ताव कैसा रहेगा, ये सबसे अहम माना जा रहा है। 2008 में जब यूक्रेन और जॉर्जिया को नैटो की सदस्यता के एक्शन प्लान का हिस्सा बनाया जा रहा था, तो जर्मनी और फ्रांस के दबाव में ही अमेरिका को अपने पैर पीछे खींचने पड़े थे, और 2014 के बाद से रूस के साथ टकराव के बीच, यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति का सबसे तगड़ा विरोध जर्मनी ही करता रहा है। यहां तक कि मौजूदा हालात में भी जर्मनी ने अपने साथी देशों को जर्मन उपकरण वाले हथियार यूक्रेन को देने से प्रतिबंधित कर रखा है।
इसके साथ साथ, रूस के बर्ताव ने पूर्वी यूरोप, बाल्टिक देशों, ब्रिटेन और अमेरिका में उसके प्रति ग़ुस्से को बढ़ा दिया है। ये देश यूक्रेन को अभूतपूर्व रूप से सैन्य मदद दे रहे हैं और रूस द्वारा आक्रमण करने की सूरत में उसके ऊपर बेहद कड़े प्रतिबंध लगाने का वादा भी कर रहे हैं। अमेरिका और नैटो पहले ही ये बात दोहरा चुके हैं कि वो नए सदस्यों के लिए नैटो के दरवाज़े बंद नहीं करेंगे और किसी भी देश को अपनी शर्तें उन पर थोपने का कोई अधिकार नहीं है। हालांकि, यूक्रेन पर अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए रूस एक कमज़ोर कड़ी की तलाश कर रहा है।
क्या चाहता है यूक्रेन
यूक्रेन चाहता है कि मिंस्क समझौते में सुरक्षा के जिन पहलुओं का ज़िक्र था, उन्हें लागू किया जाए। इनके तहत संघर्ष ख़त्म करने, रूस के अवैध क़ब्ज़े वाले इलाक़ों में निरस्त्रीकरण और वहां से रूस के सैनिकों की वापसी और रूस के सीमावर्ती इलाक़ों पर दोबारा यूक्रेन का नियंत्रण होने की शर्तें शामिल हैं।
हालांकि, रूस ये कहता है कि यूक्रेन को उसके क़ब्ज़े वाले इन इलाक़ों को विशेष दर्जा देना होगा और वो तब तक इन इलाक़ों पर पूरी तरह से दोबारा क़ब्ज़ा नहीं कर सकता, जब तक अंतरराष्ट्रीय निगरानी में जनमत संग्रह न कराया जाए। अब यूक्रेन को लगता है कि सुरक्षा संबंधी शर्तें पूरी किए बिना ही रूस, मिंस्क समझौते की राजनीतिक बातों को लागू करना चाहता है।
रूस, इन इलाक़ों को लेकर वीटो का अधिकार चाहता है, जिससे यूक्रेन को इन क्षेत्रों के बारे में सामरिक फ़ैसले करने का अधिकार नहीं होगा। इनमें यूरोपीय संघ और नैटो का सदस्य बनने जैसे फ़ैसले भी शामिल होंगे।
2014 के बाद से ही रूस ने यूक्रेन के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों को अपने साथ और मज़बूती से जोड़ने के अभियान चला रखे हैं। दोनेस्क और लुहांस्क क्षेत्रों के सात लाख बीस हज़ार लोगों को रूस के पासपोर्ट जारी किए गए हैं। रूस की मुद्रा रूबल को इन इलाक़ों में चलाया जा रहा है। इस क्षेत्र को आर्थिक रूप से रूस के साथ जोड़ा जा रहा है और रूस को ही यहां की आधिकारिक भाषा बना दिया गया है।
इस वक़्त रूस के नेता, यूक्रेन के इन इलाक़ों को लेकर अपनी बयानबाज़ी भी बढ़ा चुके हैं। वो कह रहे हैं कि फ़रवरी के अंत तक वो रूस की संसद की बैठक में इन इलाक़ों को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दे देंगे। इससे यूक्रेन के भीतर उसकी सरकार के प्रति लोगों की नाराज़गी और आलोचना बढ़ेगी कि वो अपने देश के इन हिस्सों को दोबारा अपने नियंत्रण में नहीं ले सकी।
रूस के सैन्य ख़तरे ने पहले ही यूक्रेन की अर्थव्यवस्था पर दबाव बहुत बढ़ा दिया है। राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की के मुताबिक़ युद्ध की आशंका के चलते फैली घबराहट के कारण, यूक्रेन से 12.6 अरब डॉलर निकाल लिए गए। रूस का मक़सद यूक्रेन में राजनीतिक और सामाजिक नाराज़गी का माहौल पैदा करना है, जिससे यूक्रेन में अस्थिरता बढ़ेगी और फिर वहां सरकार बदल जाएगी।
जंग करने में कई जोखिम
रूस के लिए यूक्रेन से खुली जंग करने में कई जोखिम हैं। युद्ध होने से न सिर्फ़ लोगों की जान जाएगी, बल्कि रूस को तगड़ा वित्तीय झटका लगने का भी डर है। ऐसे में इस बात की आशंका कम है कि रूस, यूक्रेन पर आक्रमण करेगा। यूक्रेन को अमेरिका और यूरोपीय साझीदारों से मिल रहे सहयोग ने रूस के लिए इस संकट की क़ीमत बढ़ा दी है। इसके अलावा, युद्ध के पिछले आठ सालों के दौरान यूक्रेन की सेना को भी रूस के सैनिकों से लड़ने का अच्छा ख़ासा तजुर्बा हो गया है।
रूस द्वारा ब्लैकमेल करने की मौजूदा कोशिश का मतलब ये है कि पश्चिमी देश, रूस की तय की गई लक्ष्मण रेखा को न पार करें। अगर, अमेरिका की अगुवाई वाले पश्चिमी देश इस इम्तिहान में नाकाम रहते हैं, तो रूस अपने तबाही मचाने वाले अभियान को न सिर्फ़ यूक्रेन में जारी रखेगा, बल्कि वो यूरोप के अन्य क्षेत्रों में भी अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने की कोशिश करेगा।
This article first appeared on Observer Research Foundation.
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