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हिजाब : शिक्षा छोड़, पहनावे पर बहस करते विद्यार्थी

इन दिनों, भारत में हिजाब को लेकर बहस जारी है। ये बहस पहली नज़र से देखें तो बेतुकी है, दूसरे पहलू से देखें तो तर्क संगत है। लेकिन, पहनावे से जुड़ी इस बहस से इतर भी कई तर्क संगत बातें उठाई जा सकती हैं, लेकिन वो सभी सिरे से नदारद हैं।

बीते दिनों, हिंदी सिनेमा की दो दिग्गज, बेबाक और मुखर अभिनेत्रियों ने हिजाब मामले में अपनी टिप्पणियां दीं। कंगना रनौत ने कहा, ‘कंगना ने कहा अगर हिम्मत दिखानी है तो अफ़ग़ानिस्तान में बुर्का ना पहनकर दिखाओ…खुद को पिंजरे से मुक्त करना सीखें।’ तो इसके बाद, शबाना आजमी ने कहा, ‘अफ़ग़ानिस्तान एक धार्मिक राज्य है और जब मैंने आखिरी बार चेक किया तो भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य था।’

इस तरह ये मुद्दा अब और भी ज्वलंत होता जा रहा है। हिजाब पर बहस की शुरूआत कर्नाटक से हुई। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। हुआ कुछ यूं कि जब गवर्नमेंट पीयू कॉलेज फॉर विमेन में छह छात्राओं को हिजाब पहन कर आने से रोक दिया गया. छात्राओं ने कॉलेज के फैसले को मानने से इनकार कर दिया था और हाईकोर्ट में इसके खिलाफ दायर कर दी। छात्राओं ने इस फैसले के विरोध में कक्षाओं का बहिष्कार कर रखा था।

कर्नाटक के उडुपी के गवर्नमेंट पीयू कॉलेज फॉर विमेन की छह छात्राओं ने याचिका दायर कर कहा था कि हिजाब पहनना उनका संवैधानिक अधिकार है। छात्राओं ने कहा कि उन्हें इससे रोका नहीं जा सकता। इस घटनाक्रम के पीछे कौन है, स्पष्ट तरह से नहीं कहा जा सकता लेकिन यह जरूर लिखा जा सकता है कि विद्यार्थियों को हिजाब से ज्यादा शिक्षा पर ध्यान देना जरूरी है।

यह इसलिए भी क्योंकि भारत में शिक्षा व्यवस्था पर जिस तरह ध्यान दिया जा रहा है उस तरह आने वाले समय में सिर्फ बेरोजगारी बढ़ने की संभावना है। विद्यार्थी ही सांप्रदायिकता की चिंगारी सुलगाने में व्यस्त हैं। हिजाब के सवाल पर राष्ट्रीय बहस की जरुरत है, लेकिन यह बहस धर्म के आधार पर नहीं बल्कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था के आधार पर होनी चाहिए।

वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक बताते हैं, घूंघट और हिजाब का प्रावधान किसी भी धर्मग्रंथ में नहीं है। कुरान शरीफ के अध्याय (सिपारा) 33 की आयत 59 में सिर्फ यही कहा गया है कि अपने घर की महिलाओं से कहिए कि जब वे बाहर निकलें तो अपने अंगों को ढककर रखें ताकि लोग उन्हें तंग न करें। वे बाहरी लोगों के सामने अपनी नज़रें नीची रखें। (सिपारा 24, आयत31)।

कुरान में यह जो कहा गया, वह बिल्कुल उचित था, क्योंकि उस वक्त के अरब देशों में मर्द अपनी मर्यादा का उल्लंघन करने में ज्यादा संकोच नहीं करते थे। वेशभूषा में परिवार की स्त्रियों को विशेष सावधानी बरतने के लिए इसलिए भी कहा जाता था कि उस जमाने में स्वेच्छाचारी स्त्रियाँ अल्पभूषा से ही अपना काम-धंधा चलाती थीं।

भारत में पर्दा-प्रथा कहां थी? यह भी कुछ सदियों पहले ही चली। खास तौर से विदेशी आक्रमणकारियों के काल से! कई संत कवियों और महर्षि दयानंद ने पर्दा-प्रथा का डटकर विरोध किया। यहां यह सवाल भी उठ सकता है कि जब हम स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं तो सिर्फ स्त्रियों पर इस तरह के अतिरंजित बंधन क्यों थोपना चाहते हैं? वे अपने अंगों की प्रदर्शनी न सजाएं, यह तो ठीक है लेकिन वे अपनी पहचान भी क्यों छिपाएं?

बुर्का, घूंघट, पर्दा, हिजाब और नक़ाब तो उनके चेहरे को भी ढक लेते हैं। बुर्के का इस्तेमाल करते हुए बहुत-से चोर, ठग और अन्य अपराधी भी कई बार इस्लामी देशों में पकड़े गए हैं। पाकिस्तान की लाल मस्जिद पर जब फौज ने छापा मारा था तो उसके इमाम बुर्के में खुद को छिपाकर भाग निकले थे।

लेकिन शिक्षा-संस्थाओं को ऐसे दिखावटी प्रकट-चिन्हों से मुक्त रखा जा सके तो अच्छा ही है, जो जाति, पंथ या मजहब की डोंडी पीटते हैं। इसीलिए भारतीय गुरुकुलों में समस्त ब्रह्मचारियों की वेशभूषा एक-जैसी ही होती थी। यूनान के दार्शनिक प्लेटो की ‘एकेडमी’ और अरस्तू की ‘लीसीएम’ में छात्रों की वेशभूषा भी एक जैसी ही होती थी, चाहे वे किसी राजपरिवार के ही क्यों न हों। सांदीपनि आश्रम में क्या कृष्ण और सुदामा अलग-अलग वेषभूषा में रहते थे?

हम चाहें तो, विद्यार्थियों की वेशभूषा एक-जैसी कर लें, जब भी अलगाव की समस्या तो बनी रहेगी। उसे घटाने के लिए यह भी किया जा सकता है कि सारे भारतीय अपने खान-पान और नामकरण में भी एकरुपता लाने की कोशिश करें। इसका अर्थ यह नहीं कि सभी लोग धोती-कुर्त्ता पहनें, सभी लोग दाल-रोटी खाएं और सभी लोग अपने नाम संस्कृत या हिंदी में रखें।

हर क्षेत्र में विविधता कायम रहे लेकिन मुसलमानों के नाम सिर्फ अरबी में, ईसाइयों के नाम सिर्फ इंगलिश में और यहूदियों के नाम सिर्फ हिब्रू में क्यों रहें? वे अरबों, अंग्रेजों और इस्राइलियों की नकल क्यों करें? वे अपने नाम अपनी मातृभाषाओं में क्यों नहीं रखें? सबके नाम ऐसे हों, जो कि जाति या मजहब की डोंडी न पीटते हों। यदि ऐसा होगा तो देश में अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह की संख्या करोड़ों में पहुंचेगी और भारत की एकता इस्पाती बनेगी।

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