- राकेश ढोंडियाल।
यात्रा में अब तक: मैं भोपाली ज़बान के साथ-साथ नामकरण का ‘क’, ‘ख’ और ‘घ सीख रहा था। अब तक भोपाल के बारे में काफी रोचक बातें मालूम हो चुकी थीं। अब आगे…
भोपाल के बारे में थोड़ा सा अध्ययन किया तो पाया कि भोपाल का इतिहास जहां से मिलना आरंभ होता है, वहीं से नामकरण की इस परम्परा के उदाहरण भी मिलने शुरू हो जाते हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में परमार वंश के राजा भोज ने एक बस्ती बसाई। बस्ती राजा भोज की पाली हुई थी इसलिए नाम ‘भोजपाल’ पड़ना ही था फिर ‘स्लैंग प्रेमी’ भोपालियों ने ‘भोजपाल’ को भोपाल कर दिया।
यहां यह बताना ज़रूरी है कि ‘स्लैंग’ के मामले में भोपाली अमरीकियों से भी आगे हैं। पान या चाय की दुकान पर खड़े होकर आप कोई भी वार्तालाप सुनें तो आपको मां के या भेन के कड़े जुमले सुनने को मिलेंगे। (‘ब’ और ‘ह’ मिलकर यहां ‘भ’ बन जाता है जैसे ‘बहन’ ‘भेन’ और ‘बेहतरीन’ ‘भेतरीन’) आपको लगेगा यह अर्थहीन तकिया कलाम हैं, लेकिन यह बहुत ही वीभत्स गालियां होती हैं जो स्लैंग में पेश की जाती हैं या सहज ही निकल जाती हैं। हां तो हम भोपाल के इतिहास से नामकरण की अनूठी परम्परा के उदाहरण ढूंढ रहे थे।
जुमे के नाम पर हैं यहां इलाक़े का नाम
अठ्ठारहवीं शताब्दी में दोस्त मोहम्मद ख़ान ने जब भोपाल की पहली मस्जिद का निर्माण करवाया तो उसका नाम पड़ा ‘ढाई सीढ़ी की मस्जिद’। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इसका यह नाम क्यूं पड़ा होगा। बाद में दोस्त मोहम्मद ख़ान ने भोपाल की क़िलेबन्दी के लिए शहर की सीमा पर सात दरवाज़े बनवाए। इन दरवाज़ों के पास अलग-अलग दिन हफ्तावार बाज़ार लगा करता था। ज़ाहिर है जिन इलाक़ों में यह दरवाज़े थे उनका नाम पड़ा इतवारा, पीरगेट, सोमवारा, मंगलवारा, बुधवारा और जुमेराती (गुरूवारीय)। मुस्लिम बहुल बस्ती में जुमे यानि शुक्रवार के दिन छुट्टी रहा करती होगी शायद इसलिए जुमे के नाम पर किसी बस्ती या इलाक़े का नाम सुनने को नहीं मिलता।
बारह महल से जुड़ी एक रोचक बात
शनिवार को जहांगीराबाद में अभी भी शनिचरी नाम की एक हाट लगती है, लेकिन इस नाम को किसी स्थान से नहीं जोड़ा गया। इसे भोपाली लोगों की सूझबूझ ही कहेंगे। भोपाल की मशहूर शासक बेगम शाहजहां ने जब अपने चुनिंदा बारह ख़ादिमों के लिए बारह आशियाने बनवाए तो इनका नाम ‘बारह महल’ पड़ गया। यह नाम और संक्षिप्त होकर आज ‘बारामहल’ रह गया है।
मस्जिदों के भी कमोबेश ऐसे ही नाम आपको मिल जाएंगे जैसे ‘कल्लो बीया की मस्जिद’, ‘कुलसूम बी की मस्जिद’, ‘लतीफ़ पहलवान की मस्जिद’, ‘नन्ही बी की मस्जिद’ वगैरह वगैरह।
यहां हैं कर्फ्यू वाली माता
भोपाल में पीरगेट इलाके में दुर्गा जी का एक सिध्द मंदिर है। कहते हैं जब यह बन रहा था तो साम्प्रदायिक तनाव हो गया था और स्थिति को ‘तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रित’ रखने के उद्देश्य से इस इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया। भोपालियों को मंदिर का नाम मिल गया, ‘कर्फ्यू वाली माता का मंदिर’। इस मंदिर को अधिकतर भोपाली आज भी इसी नाम से पुकारते हैं। मस्जिदों के भी कमोबेश ऐसे ही नाम आपको मिल जाएंगे जैसे ‘कल्लो बीया की मस्जिद’, ‘कुलसूम बी की मस्जिद’, ‘लतीफ़ पहलवान की मस्जिद’, ‘नन्ही बी की मस्जिद’ वगैरह वगैरह। नामकरण की इस परम्परा का पुराने और नए भोपाल में समान रूप से निर्वाह किया जाता रहा है।
जैसे बंगले वैसा नाम
स्टॉप के नम्बरों पर स्थानों के नामों की चर्चा की जा चुकी है। यह सारे स्टॉप नए भोपाल में ही आते हैं। नए भोपाल में जब कुल 1250 नए सरकारी क्वार्टर बने तो इस कॉलोनी का नाम ‘बारा सौ पचास’ ऐसा पड़ा कि छूटने का नाम ही नहीं लेता। यहां पर एक अस्पताल है ‘जे.पी. अस्पताल’ लेकिन भोपाली इसे ‘बारा सौ पचास’ अस्पताल के नाम से ही जानते हैं। इसी तरह नए शहर में ही ’75 बंगले’ और ’45 बंगले’ भी उसी नाम से जाने जाते हैं। श्यामला पहाड़ी पर आठ मंत्रियों के लिए सरकारी बंगले बनाए गए तो इस जगह का नाम ‘आठ बंगले’ पड़ गया। आज जहां भोपाल के आला नौकरशाह रहते हैं, उस कॉलोनी का नाम है ‘चार इमली’।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा भी एक ज़माने में पटियों पर बैठा करते थे। नवाबों के दौर में कई गुप्तचर रात को पटियों पर बैठकर जनता के ‘मूड’ की टोह लेते और नवाब को ख़बर करते थे।
कहां से आए थे भोपाली पटिए…
अभी तक हमने ज्यादातर बेजान चीज़ों की बात की जिनका नाम उनको जानदार बना देता है, लेकिन यार दोस्तों के उपनाम रखने में भी भोपालियों का कोई तोड़ नहीं है। जैसे रईस ‘चप्पू’, ‘डब्बू’ मियां, अज़ीम ‘भोले’, सईद ‘चम्मच’, सादिक ‘मास्टर पतले’, क़ादर ‘ढक्कन’, आरिफ ‘मक्खन’ वगैरह वगैरह। यह नाम ऐसे ही नहीं निकले हैं, इन्हें देने वालों ने बाक़ायदा प्रसव पीड़ा झेली है और यह सब सम्भव होता है ‘पटियों’ पर। जी हां ‘पटिए’, जो भोपाली संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। पटिए यानि जिन्हें दिन में दुकान का सामान जमाने के काम में लाया जाता था और दुकान बन्द होने के बाद यार दोस्तों के साथ बैठने के लिए। बाद में पुराने शहर में जगह-जगह स्थाई पटिए बन गए। रात के दो-ढाई बजे तक यह पटिए आबाद रहते।
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पटियों पर सिर्फ़ ‘बतौलेबाज़ी’ नहीं बल्कि सियासत, हॉकी जैसे मसलों पर भी चर्चाएं होती थी। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा भी एक ज़माने में पटियों पर बैठा करते थे। नवाबों के दौर में कई गुप्तचर रात को पटियों पर बैठकर जनता के ‘मूड’ की टोह लेते और नवाब को ख़बर करते थे। इन्हीं पटियों पर हंसी ठिठोली के वक़्त या परनिंदा का चर्खा चलाते चलाते कोई नया उपनाम काट लिया जाता जैसे चची ‘सयानी’, ख़ाला ‘पेंदी’, गोस्वामी ‘एलबम’, राशिद ‘पिस्सू’, रईस ‘रस्सू ढीले’ वगैरह वगैरह।
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यदि आप भोपाल में नए-नए आए हैं या कभी आपका भोपाल आना हो तो यहां के कुछ चुनिंदा पर्यटन स्थल देख कर बैठ मत जाइएगा। यक़ीन कीजिए आपके लबों पर हर वक़्त मुस्कान तैरती रहेगी। मैं पिछले 27 सालों से यहां रह रहा हूं, लेकिन अब तक भोपाल से उकताया नहीं हूं।
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