All Picture (Kanjam Pass/Manali/Kaaza) Courtesy: Amrit Singh
- अमृत सिंह।
बौद्ध दर्शन के प्रकांड विद्वान, अर्थशास्त्री व यायावर कृष्णनाथ जी ने ‘स्पीति में बारिश’ में कुंजम दर्रे का ज़िक्र कुछ इस तरह किया है,’यह द्रौपदी तीर्थ है। किंवदन्ती है कि द्रौपदी यहां आकर गलीं। उनके प्रतापी पांच पति स्वर्गारोहण के लिए उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। वे मुड़कर भी नहीं देखते। द्रौपदी का शव जब यहां पड़ा रह गया तो किसी लाहुली ने आते-जाते देखा। फिर जाकर औरों को ख़बर दी। तो एक-दो दिन इंतज़ार कर उन्होंने कानों में कहा कि तुम मर गयी हो। फिर उनका दाह संस्कार चन्द्र और भागा नदी के संगम पर तान्दी के महाश्मशान में कर दिया। उनके हिम में गलने की स्मृति में यहां एक देवी का स्थान है।’
अगस्त 2017 में स्पीति की पहली यात्रा करते हुए मैंने कुंजम ला (दर्रे) को पार किया। कृष्णनाथ जून, 1975 में इस दर्रे से होकर गुजरे थे। यह दुनिया के सबसे दुर्गम और ख़तरनाक रास्तों में से एक है। हैरानी होती है कि आज से 43 साल पहले उन्होंने जीप से इस रास्ते को पार किया था। और किया भी तो कैसे?
कुंजम ला = खूबसूरती और खतरे का कॉकटेल
15,060 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस दर्रे को सिर्फ मई-जून से सितंबर-अक्टूबर) तक ही पार किया जा सकता है। बाकी के महीनों में बर्फबारी के कारण यह ट्रैवल के लिए पूरी तरह बंद हो जाता है। शिमला की तरफ से स्पीति आने वाले यात्री नाको-ताबो-काज़ा होते हुए यहां पहुंच सकते हैं। काज़ा से लगभग 58 KM बाद स्पीति का आखिरी गांव लोसर पड़ता है, जिसके 18-20 KM बाद ग्लेशियर से ढंका कुंजम दर्रा है। मनाली की ओर से आते हुए ग्रम्फू के 60 KM बाद इसके दर्शन होते हैं।
कभी न भूलने वाला एक्सपीरियंस ‘कुंजम पास’
मैंने अपने दोस्त के साथ शिमला की तरफ से स्पीती यात्रा शुरू की थी। रामपुर बुशहर, रिकांगपिओ, कल्पा, नाको, ताबो होते हुए हम दोपहर को काज़ा पहुंचे। शहर की शुरुआत में बने ज़ोस्टल में हमने रात गुज़ारी। काज़ा से हमें अगले दिन सुबह मनाली के लिए निकलना था। चूंकि हम जिस गाड़ी से गए थे, उसका ग्राउंड क्लियरेंस काफी कम था और इसके जरिए इस रास्ते को पार करना लगभग नामुमकिन था इसलिए शुरुआत में मैंने मना कर दिया। मैं चाहता था कि जिस रास्ते हम आए हैं, उधर से ही दिल्ली लौट जाएं लेकिन दोस्त की ज़िद पर मैंने कुंज़म पास के रास्ते से जाना तय किया।
अगली सुबह हम 6.30 बजे तैयार होकर निकलने लगे। ज़ोस्टल में रुका मुंबई का एक और ट्रैवलर हमारे साथ जाना चाहता था तो हमने उसे भी साथ ले लिया। वह मनाली पहुंचकर केलांग होते हुए लेह जाना चाहता था। लेकिन हमसे ग़लती हुई कि हमारी गाड़ी में डीज़ल कम था और पिछले शाम हमने टैंक फुल नहीं करवाया।
काज़ा के इकलौते पेट्रोल पंप पहुंचे तो मालूम हुआ कि यह 8 बजे से पहले नहीं खुलेगा। अब क्या करें! मैंने गाड़ी का फ्यूल मीटर चेक किया तो पता चला कि हम 248 किलोमीटर तक जा सकते हैं। काज़ा से मनाली की दूरी तकरीबन 200 किलोमीटर थी। चूंकि बेहद खराब रास्ता और कई जगहों पर खड़ी चढ़ाई होने के कारण 200 किलोमीटर तक गाड़ी को पहले या दूसरे गियर पर ही चलाना था, इसलिए फ्यूल का अंदाज़ा ग़लत हो सकता था। लेकिन हमने रिस्क लिया और निकल लिए।
लोकल लोगों से सुना था कि अगर काज़ा-मनाली रास्ता पार करना है तो सुबह जितनी जल्द हो सके निकल लो। शुरुआत में मुझे कुछ समझ नहीं आया लेकिन आगे ये साफ होने वाला था कि लोग ऐसा क्यों कह रहे हैं।
प्लेन रास्ता हो तो 200 किलोमीटर का सफर 3 घंटे में पूरा किया जा सकता है। पहाड़ी रास्ते में भी 6-7 घंटे में इसे पूरा किया जा सकता है। लेकिन कुंज़म पास का रास्ता अलग है। दरअसल अलग नहीं, जानलेवा है। काज़ा से निकलकर कुछ किलोमीटर की पक्की सड़क के बाद पूरे रास्ते कच्ची और पथरीली सड़क मिली।
हमारा पहला स्टॉप लोसर था। कुल 57-58 किलोमीटर दूरी। यह स्पीति का आखिरी गांव है। इक्के-दुक्के ढाबे और होमस्टे के अलावा बीएसएनएल का नेटवर्क सिर्फ यहीं तक आता है। आगे जाने के लिए लोसर चेकपोस्ट पर आपको एंट्री करवानी होती है। गाड़ी की डिटेल और यात्रियों की जानकारी के बाद आप आगे जा सकते हैं। रूटीन प्रोसेस है, कोई लंबी-चौड़ी काग़ज़ी प्रक्रिया नहीं।
लोसर से निकले तो चारों तरफ मिट्टी के सूखे पहाड़ दिखे। 10-15 की स्पीड पर चलती गाड़ी। रास्ता इतना खराब था कि मैं चाहकर भी नेचर का लुत्फ नहीं नही ले पा रहा था। बगल की सीट पर बैठा दोस्त मुझे सड़क पर पड़े पत्थरों की डायरेक्शन बता रहा। वो हर 5 मिनट बाद बोलता, ‘भाई साहब, थोड़ा बाएं, थोड़ा राइट से लो।पत्थर लग जाएगा नीचे।’
लोसर से कुंज़म पास की दूरी लगभग 19 किलोमीटर है। पहले (कभी-कभी दूसरे) गियर में चलते हुए तकरीबन 1.30-2 घंटे लगते हैं इस दूरी को तय करने में। कुंज़म के रास्ते में हमे एक जर्मन ट्रैवलर मिलता है जो साइकिल के जरिए लेह से निकला था। उसे काज़ा जाना था। लगभग 550 किलोमीटर, सूखे पहाड़ों और खतरनाक रास्तों से वह साइकिल लेकर निकल पड़ा था।
कुंजम के बाद अगला पड़ाव आता है बाताल, जो तकरीबन 13 किलोमीटर दूर है। कच्चे पहाड़ों से होते हुए हम सीधे बाताल पहुंचते हैं, जहां हमें चेनाब नदी मिलती है। चूंकि यह चंद्र और भागा नाम की दो नदियों से मिलकर बनती है, इसलिए इसे चंद्रभागा भी बुलाते हैं।
बाताल की उतराई में एक रास्ता चंद्रताल की ओर जाता है। हमें चेनाब के किनारे-किनारे कुछ ट्रैकर्स का ग्रुप नज़र आया जो शायद चंद्रताल की तरफ जा रहे थे। बाताल में एक लोहे का ब्रिज पार करते ही चेनाब हमारे बाएं तरफ आ जाती है।
भाग 2: रोमांच / बाताल से ग्रम्फू: ज़िंदगी में एक बार इस रास्ते से ज़रूर गुजरना!
पुल पार करते ही यहां कुछ ढाबा और पीडब्लूडी का रेस्ट हाउस है। लेकिन इनमें सबसे मशहूर है चाचा-चाची का चंद्र ढाबा। ये बुजुर्ग जोड़ा इस दुर्गम जगह पर पिछले 45 साल से ढाबा चला रहे हैं। ढाबे के अंदर ही कुछ लोगों के रुकने की जगह भी है। बताते हैं कि चाचा-चाची मुश्किल हालात में फंसे दर्जनों पर्यटकों की जान बचा चुके हैं।
और हम चाहकर भी इस ढाबे पर नहीं रुक पाए…
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