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भोपाल की गलियां-1 : 90 के दशक में भोपाल की पहचान बन गया था ये सवाल

  • राकेश ढोंडियाल।

90 का दशक यानी वो समय जब कई लोग बचपन के सुहाने दिन गुजार रहे थे। न कोई फ्रिक न कोई चिंता… बस! होता था तो टीवी पर मोगली या फिर बाहर बारिश में कागज की नाव चलाने का इंतजार, लेकिन आज से 27 साल पहले कैसा था ‘भोपाल ‘ इन शब्दों के जरिए जानें भोपालियों का हाल…

भोपाल का पहला दिन मैं हमेशा याद रखूंगा क्योंकि ‘कों ख़ां मुन्ना केसे हो?’ भोपाल के शुरूआती दिनों में यह सवाल पूरे पांच दिन तक मेरे लिए पहेली बना रहा था। जब भी हसन भाई सामने पड़ते यह सवाल उछाल देते। हसन भाई आकाशवाणी भोपाल में प्रोडक्शन असिस्टेंट थे। हर वक़्त उनके मुंह में पान रहता और कुर्ते पर चूने और कत्थे के दाग़। उनके पुराने साथी उन्हें ‘छम्मन मियां’ के नाम से पुकारा करते थे। हसन भाई रेडियो की पुरानी मशीनों पर डबिंग करने में सिध्दहस्त थे और उन्हें ऐसा करते हुए देखना एक मज़ेदार अनुभव होता। उनकी एक अंगुली पर हमेशा गीला चूना लगा होता जिसे वह थोड़ी-थोड़ी देर में खाते रहते। डबिंग करते समय वह अंगुली को मशीन पर लगने से बचाए रखते।

तुम फ़िकर मत करो ख़ां’ मैं समझ गया

‘कैसे’ को ‘केसे’ कहना समझ में आने लगा था लेकिन यह ‘ख़ां मुन्ना’ क्या बला है, यह मेरी समझ के परे था। पांचवे दिन शाम की ड्यूटी पर रेडियो स्टेशन पहुंचा। मैं अपनी कुर्सी पर बैठा ही था कि सीनियर अनाउन्सर मन्नान भाई ने ‘डयूटी रूम’ में प्रवेश किया और अपनी मोटी आवाज़ में सवाल दागा, ‘ऑ ख़ां क्या चल रिया?’ मेरा दिमाग़ बिजली से भी तेज़ गति से दौड़ा और सुबह चाय के खोखे पर एक फेंकू भोपाली की बात ताज़ा हो गई जो किसी ग़रीब को दिलासा दे रहा था, ‘अरे ख़ां उसकी  तो एसी की तेसी कर देंगे हम। तुम फ़िकर मत करो ख़ां’ मैं समझ गया कि ख़ां की पदवी देकर मुझे भोपालियों की जमात में शामिल कर लिया गया है।

ऐसे शुरू हुई भोपाल में ‘ख़ां’ कहने की परम्परा

ख़ुशी की बात यह थी कि इसमे मेरा धर्म आड़े नहीं आया, लेकिन मेरी कद काठी छोटी है और चेहरे पर कुछ मासूमियत अब भी बाक़ी है इसलिए हसन भाई ने ख़ां के साथ प्यार से ‘मुन्ना’ भी जोड़ दिया है। अब नाज़ुक ख़ान या शहज़ादे का हाल पूछा तो सवाल बना ‘कों ख़ां मुन्ना केसे हो?’ उसी रात पौने नौ बजे जब दिल्ली के समाचार रिले होने लगे तो ‘मन्नान भाई’ के साथ खाना खाते हुए पता चला कि भोपाल में अफ़गानिस्तान से बहुत से पठान आकर बस गए थे। एक दूसरे को ‘ख़ां’ कहने की परम्परा शायद इन्ही से शुरू हुई होगी।

‘भट सुअर’ पकड़ लेना और फिर

भोपाल में मेरा छठा दिन था, एक जीनियस व्यक्ति लोकेन्द्र ठक्कर से मुलाकात हुई। उन्होंने घर आने का आग्रह किया। मैंने उनसे पूछा कहां रहते हैं और कैसे आना होगा तो बोले, ‘पॉलीटैक्नीक चौराहे से रंगमहल के लिए ‘भट सुअर’ पकड़ लेना और फिर थोड़ा आगे चलकर न्यू मार्केट से दस नम्बर वाली बस में चढ़ जाना। ‘दो नम्बर’ पर उतरकर ‘दो नम्बर मार्केट’ मिलेगा उसके पीछे फ़लां मकान नम्बर…।’

ये क्या चला आ रिया हे सामने से

इस पते में मेरे लिए दो पहेलियां थीं ‘भट सुअर’ और ‘दो नम्बर’। सातवें दिन सुबह की डयूटी ख़त्म करने के बाद मैं इन पहेलियों को सुलझाने के लिए चल पड़ा। पॉलीटैक्नीक चौराहे पर पहुंचकर रास्ते के किनारे खड़े एक भोपाली से डरते-डरते पूछा,’भाईजान ये भट कहां मिलेंगे (सुअर नहीं कह पाया)..?’ उसने तपाक से बाईं ओर इशारा करते हुए कहा, ‘ये क्या चला आ रिया हे सामने से!’ बाईं तरफ से भड़भड़ाता हुआ एक टैम्पो आया।

बजाज कंपनी का लम्बी थूथन वाला पुराना टैम्पो। मैं ऐसी गाड़ियां भोपाल रेलवे स्टेशन के पास देख चुका था और उसके पहले लखनऊ से लगे ग्रामीण इलाकों में देख चुका था।
आज मैं इन्हें अलग नज़र से देख रहा था। शायद लम्बी थूथन के कारण ही इसे सुअर कहते होंगे। यह सोचते हुए मैं टैम्पो में चढ़ गया।

जान दो…जान दो…सनन जान दो…

रंगमहल पहुंचा तो वहां ऐसे कई टैम्पो कतार से खड़े थे। आगे वाला टैम्पो लोगों से खचाखच भरा हुआ था और उसकी थूथन पर लगे बोनट को खोलकर एक रस्सीनुमा ‘पुली’ से उसे ‘स्टार्ट’ करने की कोशिश की जा रही थी। तार खींचते ही वह ‘भट-भट-भट’ करता और फिर बन्द हो जाता। इससे पहले इंजन स्टार्ट होता मैं इसके नामकरण का विज्ञान समझ चुका था। बस स्टॉप पर दस नम्बर जाने वाली बस लगी थी। मेरे चढ़ते ही बाहर खड़ा एक पतला सा लड़का भी मेरे पीछे-पीछे चढ़ा और ज़ोर से चिल्लाया ‘जान दो…जान दो…सनन जान दो…।’

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भोपाली ज़बान समझने का यह कैसा जुनून

कुछ क्षण के लिए मैं डर गया। मैंने सोचा यह किसकी जान की बात कर रहा है? फिर मुझे याद आया कि भोपाल में शब्दों में प्रयुक्त मात्राओं को घटा बढ़ाकर अर्थ निकालना चाहिए। अब मुझे यक़ीन हो गया था कि इसका आशय ‘जाने दो’ से ही है। मैंने टिकट लिया, ‘दो नम्बर’ पर उतारने को कहा और निश्चिंत होकर बैठ गया। बस की रफ्तार के साथ मेरी सोच ने भी तेज़ी पकड़ ली। मैं सोचने लगा कि मुझ पर भोपाली ज़बान समझने का यह कैसा जुनून सवार हो गया है।

क्रमशः

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