- अमृत सिंह।
अब तक: हम काज़ा से मनाली वाया कुंजम दर्रा के रास्ते में हैं। यह रास्ता रोमांच से भरा हुआ है। अब आगे…
कुछ लोगों ने हमें कहा था कि अगर आप कुंजम पास वाले रास्ते से मनाली जा रहे हैं तो सुबह जितनी जल्दी हो सके, काज़ा से निकल जाना। शुरुआत में हमें न तो इसका मतलब समझ आया और न ही हमने जानने की कोशिश की। सोचा कि 200 किलोमीटर का रास्ता है, रुकते-रुकाते भी गए तो 6-7 घंटे में पार कर लेंगे। लेकिन हमें असली हालात का अंदाज़ा नहीं था।
जैसे ही बाताल में चंद्र ढाबे पर रुकते, एक-दो लोग चिल्लाए, ‘रुको मत, जल्दी निकल जाओ। पानी बढ़ जाएगा।’ कुछ मिनट हमें ये समझने में लगे कि आखिर हुआ क्या है! हम तीनों ने एक-दूसरे के चेहरे देखे और एक सुर में कहा, ‘चलो, जल्दी निकलते हैं यहां से।’ दरअसल बाताल और ग्रम्फू (48 किलोमीटर) के बीच रास्ता कई नालों से होकर गुजरता है।
जैसे-जैसे धूप बढ़ती है, इन नालों में पानी बढ़ता जाता है। 10-11 बजे के करीब इन नालों को पार किया जाए तो आसानी रहती है क्योंकि पत्थर नज़र आते हैं और पानी का बहाव भी कम रहता है। लेकिन 12 बजे के बाद इन्हें पार करना जान जोखिम में डालनी होगी। तीखी धूप के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघलते हैं और कुछ ही घंटों में पानी का बहाव जबरदस्त हो जाता है।
भाग 1: रोमांच / काज़ा से मनाली वाया कुंजम दर्रा: जैसे दूसरी दुनिया पार करना
मैंने कोशिश की कि गाड़ी तेज चलाऊं लेकिन नुकीले पत्थरों और लगभग ‘न’ बराबर सड़क की वजह से स्पीड 15-20 से ऊपर नहीं जा रही थी। अगर इससे तेज चलाया तो गाड़ी के निचले हिस्से की बैंड बज जानी थी (जो कि बज चुकी थी और रही-सही कसर आगे पूरी होने वाली थी)।
अगले कुछ मिनटों तक मनाली की ओर से आने वाली हर गाड़ी को रोककर हम यही पूछते रहे कि नाले में पानी कितना है? कुछ ने कहा कि अभी कम है निकल जाओगे तो कुछ ऐसे भी मिले, जिन्होंने डराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दरअसल डराने वाले सच्चाई बयां कर रहे थे।
बाताल से 40-45 मिनट बाद हम पहले नाले पर पहुंचे। पहले नाले में पानी लगभग न के बराबर था लेकिन पत्थर इतने कि मेरी 174 mm ग्राउंड क्लियरेंस वाली गाड़ी आसानी से फंस जाए। रास्ता बताने के लिए दोनो दोस्त गाड़ी से उतर गए। मैंने एक को सामने की तरफ से रास्ता बताने की जिम्मेदारी दी और दूसरे को वीडियो बनाने की। ड्राइविंग सीट से मुझे पत्थरों की लोकेशन न के बराबर दिख रही थी। मैं सिर्फ सामने से रास्ता बता रहे दोस्त के इशारों पर गाड़ी चला रहा था। कभी दो इंच बाएं तो कभी दाएं।
लगभग एक तिहाई नाला पार किया होगा कि धम्म से आवाज आई। गाड़ी का बायां पहिया एक गलत पत्थर को पार करके अटक गया था। दरअसल पत्थर अब गाड़ी के रॉकर पैनल के नीचे थे।काफी कोशिश के बावजूद गाड़ी न आगे बढ़ पा रही थी और न ही पीछे जा रही थी। अब इंतज़ार था किसी मदद का, जो लाहौल घाटी में किसी चमत्कार से कम नहीं। हमारी किस्मत अच्छी थी। काज़ा से निकली दो गाड़ियां हमारी पीछे आ रुकीं। दरअसल रास्ता इतना संकरा था कि हमारी गाड़ी हटाये बिना भी किसी और गाड़ी की गुजर पाना नामुमकिन था।
पीछे रुकी जिप्सी और सूमो में से कुछ लड़के उतरे और मदद के लिए हमारी ओर बढ़े। उनमें से एक मेरी तरफ आया और कार के नज़दीक रुक गया।
मेरे पहले शब्द कुछ यूं थे…
‘फंस गए भाई।’
उसने हंसते हुए मुझे देखा और कहा…
‘सबसे पहले आपको सैल्यूट। आपको ये गाड़ी यहां लाने की सलाह किसने दी?’
एक पल को मुझे लगा कि अब निकलना नामुमकिन है लेकिन उन लड़कों ने हमें मोटीवेट किया और कहा कि चिंता मत करो, निकल जाएंगे। फिर करीब आधे घंटे तक सब मिलकर गाड़ी को आगे पीछे धकेलने की कोशिश करते रहे लेकिन पत्थर इस तरह फंसा था कि अगर ज़्यादा ज़ोर-जबरदस्ती करते तो गाड़ी के निचले हिस्से को बुरी तरह नुकसान होता (दरअसल गाड़ी की बैंड अब बजी थी)।
वो धक्का लगाते और मैं एक्सीलेटर दबाता। फिर अचानक ‘जय बजरंग बली’ चिल्लाकर सबने पीछे से धक्का लगाया और गाड़ी झटके से निकल गई। हां, इस दौरान पत्थर टकराने की धम्म-धम्म की आवाज़ आती रही और मेरी जान निकलती रही। इतने में पीछे से जिप्सी और सूमो सवार वो लड़के आगे और पूछा- ‘आपने लंच किया है?’
मैंने कहा – ‘नहीं।’
उन्होंने कहा – ‘आगे कई नाले पड़ेंगे। हम आपको पार करा देंगे। साथ-साथ चलिये, छतड़ू में साथ लंच करेंगे।’
छतड़ू तक उन्होंने हमारी मदद की और 4-5 ख़तरनाक नाले पार करवाए। एक में तो इतना पानी था कि हमारी गाड़ी लगभग आधी डूब चुकी थी। शायद वो न होते तो हम हिम्मत हार चुके होते और इन्हें पार न कर पाते।
सुबह 6.30 बजे काज़ा से शुरू हुआ ये सफर शाम 8.30 बजे मनाली में खत्म हुआ। पूरे 14 घंटे और वो भी सिर्फ 200 किलोमीटर दूरी के। पहली बार इस दर्रे को पार करना चमत्कार जैसा है। जैसे अभी-अभी आपने दूसरी दुनिया पार की हो।
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