चित्र : भगवान श्री गणेश।
बुद्धि के देवता, जिनके दोनों हाथों में रत्नजड़ित आभूषण हैं। वह ईश्वर में सर्वप्रथम पूज्य हैं, जिनका आगमन हम गणेश चतुर्थी के रूप में इस पृथ्वी पर हर साल मनाते हैं।
गणपति, आध्यात्मिक शक्ति और सर्वोच्च बुद्धि प्रदान करते हैं। उन्हें रिद्धि और सिद्धि के दाता कहा जाता है, उनके जीवन में इन्हें दो रूपों में वेदों में वर्णित है। ये दो रूप में उनकी पत्नी हैं, जिन्होंने श्री गणेश को अपना गुरु और पति माना है।
ऐसे कई प्रमाण मिलते हैं जहां, प्रभु विनायक को भारत के अलावा अन्य देशों में भी पूजा जाता है। थाईलैंड, जापान, नेपाल, जर्मनी और यू.के. और जहां जहां भारतीय रहते हैं वहां भगवान श्री गणेश पूज्य है, कोई भी कार्य उनकी प्रथम वंदना (नमस्कार करने वाले पहले देवता) के बाद ही शुरू होता है।
गणपति को वेदों और उपनिषदों में स्थान दिया गया है। उनका संदर्भ देवी गायत्री, देवी लक्ष्मी, श्री विष्णु के साथ ही, लगभग सभी देवी-देवता की आराधना में मिलता है। वह शरीर में पवित्रता और मन में निर्भयता का संचार करते है। श्री गणेश का रूप विशाल है, इतने विशाल रूप होने के बाद भी, उनका वाहन एक छोटा मूषक (चूहा) है, चूहा अज्ञान के अंधकार को दूर करने का प्रतीक है।
गणेश जी को अर्पित किया जाने जाने वाले प्रसाद का भी बहुत महत्व है, प्रसाद चने से बनाया जाता है, इसे बनाने के लिए आटा, गुड़ या काली मिर्च का उपयोग किया जाता है और फिर बिना तेल के भाप में पकाया जाता है। यह एक स्वस्थ और स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ माना जाता है।
आध्यात्मिक साधना में पहला चरण होता है कि आपके कान तेज होने चाहिए। बाद में, सुनने वाले को इस पर चिंतन करना होता है और इसे व्यवहार में लाना होता है जिसे श्रवण कहा जाता है। श्री गणेश के कान इसी बात को इंगित करते हैं। वह ऋषि वेदव्यास के साथ उनके बोले हुए शब्दों को श्रवण कर महाभारत लिखते हैं, जोकि किसी अन्य के लिए संभव नहीं था।
श्री गणेश पर आधारित शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि प्रेम और त्याग, भक्ति की शुरूआत करते हैं, आत्मज्ञान और अद्वैत को श्रेष्ठ माना गया है, आदि शंकराचार्य ने भी जीवन भर यही उपदेश दिया। वह वैदिक सिद्धांतों का पालन करते रहे, उन्होंने जो कहा वह आदि काल में ईश्वर ने रचित किया, ‘एकात्मा सर्वभूत-अंथरत्मा’; ‘एकम साथ विप्रः बहुधा वधंथी’ यानी ‘ज्ञान’ अद्वैत दर्शन (अद्वैत की दृष्टि) के अलावा और कोई दूसरा नहीं है। इस बात को कलयुग में बड़े स्तर पर आदि शंकाराचार्य ने आगे बढ़ाया।
आदि शंकराचार्य ने इस बात को माना है कि भक्ति ज्ञान से बड़ी है। अपने प्रसिद्ध भज गोविंदम भज गोविंदम मूढ़मते, भजन में वह केवल भक्ति का मार्ग बताते हैं जो मनुष्य को नश्वर जगत से पार जाने में मदद करेगा। भक्ति से श्रेष्ठ कोई मार्ग नहीं है। भक्ति का अर्थ पूजा करना, भजन करना, ही नहीं है बल्कि शुद्ध और निष्कलंक मन को की ईश्वर की ओर पहुंचना होता है।
ईश्वर ही एकमात्र है, जो शाश्वत है। ईश्वर का प्रेम, भक्ति है। अन्य सभी प्यार हो सकता है, अनुराग हो सकता है, जिसके कारण बंधन होता है। प्रेम निराकार है, वह निश्छल और वासना रहित होता है, अनुराग, स्त्री-पुरुष के बीच होता है, जिसमे वासना भी होती है। जबकि ईश्वर के प्रति प्रेम मुक्ति और मोक्ष की ओर ले जाता है।
आध्यात्मिक साधना का मूल है आपका ह्द्य प्रेम से भरा होना चाहिए, लेकिन आप इसका उपयोग केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए कर रहे हैं, इसे ईश्वर की ओर पहुंचने के लिए नहीं। याद रखिए ईश्वर का वास आपके हृदय में है, सिर में नहीं। दुनिया के जितने भी धर्म हैं, उन सभी धर्मों में ‘एक ईश्वर, जो सर्वव्यापी है’ के एक ही सिद्धांत पर वो स्थिर रहते हैं, उनके और आपके ईश्वर के रूप और आकार अलग हो सकते हैं, लेकिन इसके मूल में एक ही है क्योंकि यह पृथ्वी पर आए और जब पृथ्वी पर आए तो, भौतिक शरीर इनका पंचमहाभूतों से बना, जो एक ही है यानी अद्वैत है।
आपका धर्म आपके लिए शेष्ठ है, तो किसी अन्य धर्म भी उनके अनुयायियों के लिए उतना ही श्रेष्ठ है, धर्मों का तिरस्कार ‘अज्ञानी’ करते हैं, यदि आप अपने समय में जीवित रहते हुए ‘धर्म के मर्म’ को समझ जाते हैं तो आप हर धर्म के मूल में एक ही मूल तत्व पाएंगे और वो है ‘अद्वैत’, और जब अद्वैत भाव से आप संसार को देखेंगे तो सब कुछ एक ही नजर आएगा।
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