चित्र सौजन्य : विकिपीडिया/ 1914 में शिमला समझौते के दौरान तिब्बती, ब्रिटिश और चीनी अधिकारी।
- माइकल वान वाल्ट प्राग और माइक बोल्तजेस। लेखक, कैलीफोर्निया (यूएसए) में रहते है, वह आधुनिक अंतराष्ट्रीय संबंध और कानून विशेषज्ञ हैं।
चीन-तिब्बत संघर्ष को लेकर, सन् 1914 में हुए शिमला समझौते से निकले प्रस्ताव को स्वीकार करने और तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे को समाप्त करने के लिए कुछ चीजों का होना जरूरी है, जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इसमें सक्रिय होना जरूरी है। हम जो समझौते की बात करते हैं, वह पूरी तरह से देशों के कानूनी दायित्वों और जिम्मेदारियों के अनुरूप है।
यह पीआरसी के आंतरिक मामलों में नाजायज हस्तक्षेप की बात नहीं करता है, बल्कि कई सरकारों द्वारा एक महत्वपूर्ण मुद्दे को सही करने की जरूरत बताता है। हमारी सिफारिशें अंतिम नहीं हैं, लेकिन प्रभावी नीति, परिवर्तन के लिए ‘परिस्थितियों को ठीक करने के लिए प्रारंभिक कदम’ हैं।
तिब्बत की स्थिति को देखते हुए, चीन-तिब्बत संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच ले जाना चाहिए और वहीं पर इसे लेकर दुनिया भर की सरकारों के बीच चर्चा और इसके सुलझाने की जिम्मेदारी सामूहिक हो, न कि इसे केवल चीन का आंतरिक मामला भर माना जाए। इस तरह चीन-तिब्बत संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय संघर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए।
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इसके प्रारंभिक बिंदु के तौर पर सबसे पहले ऐसी स्थिति को दर्शाने वाली भाषा का लगातार उपयोग शुरू करना होगा। इसका मतलब यह हुआ कि उदाहरण के तौर पर तिब्बत को एक कब्जा किया हुआ देश और भारत की उत्तरी सीमा को भारत-तिब्बत सीमा के रूप में संदर्भित किया जाना चाहिए, न कि चीन-भारत सीमा के तौर पर। स्वघोषित प्रतिबंध के परिणामस्वरूप ‘तिब्बत मुद्दा’ शब्द का उपयोग व्यंजनापूर्ण, गैर-प्रतिबद्ध और अर्थहीन भाव में हुआ है। यह विवाद को सुलझाने में मददगार नहीं बल्कि और हानिकारक साबित हो सकता है।
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तिब्बत की भाषा ऐसी होनी चाहिए जिससे यह अभिव्यक्त हो कि तिब्बती लोग, यहां एक अनसुलझे अंतरराष्ट्रीय संघर्ष को सुलझाने के लिए काम कर रहे हैं, न कि चीन के घरेलू मामले को सुलझा रहे हैं। तिब्बतियों को संदर्भित करने के लिए बीजिंग की पसंद की शब्दावली ‘अल्पसंख्यक’ शब्द के उपयोग को रोकना चाहिए। इस तरह की शब्दावली चीनी कहानियों की पुष्टि करती है और तिब्बती लोगों को उनकी उचित स्थिति और स्पष्ट रूप से उनके आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित करती है। इसकी जगह हमें ‘लोगों’ या ‘राष्ट्र’ शब्द का उपयोग करना चाहिए।
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तिब्बती लोग सिर्फ सरकारों और उनके नीति निर्धारकों और राजनयिकों को संबोधित नहीं कर रहे हैं। भाषा का प्रभाव और इसे प्रेस, टेलीविजन और अन्य मीडिया में कैसे उपयोग किया जाता है, यह महत्वपूर्ण है। यह काफी हद तक यह निर्धारित करता है कि लोग तिब्बत और हिमालय के अन्य क्षेत्रों में चीन के दावों उसकी उपस्थिति और कार्यों को कैसे समझते हैं। (क्रमश:)
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