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संघर्ष – टिप्पणी > 1 : तिब्बत और चीन, ‘चुप्पी तोड़ने का समय’

चित्र सौजन्य: जोखांग तेनप्लुआ/ट्रिपोटो।

  • माइकल वान वाल्ट प्राग और माइक बोल्तजेस। लेखक, कैलीफोर्निया (यूएसए) में रहते है, वह आधुनिक अंतराष्ट्रीय संबंध और कानून विशेषज्ञ हैं।

चीन ने तिब्बती लोगों की इच्छा के विरुद्ध तिब्बत पर कब्जा कर लिया है। इस संघर्ष में तिब्बत में तीन पीढ़ियां गुजर चुकी हैं। तिब्बत के पास अपनी संप्रभुता के दावे का कोई कानूनी आधार नहीं है और शेष समाज के लिए यह पूरी तरह से एक स्वयंभू ऐतिहासिक कहानी पर आधारित है। यह घटनाक्रम चीन-केंद्रित, झूठ और भ्रामक जानकरी के इर्द-गिर्द घूम रहा है। लेकिन इसे बीजिंग द्वारा इतनी दृढ़ता से कहा गया है कि दुनिया ने धीरे-धीरे इसे आत्मसात कर लिया है और आज तिब्बत समस्या को इसके दायरे से परे चीन के आंतरिक मामले के तौर पर माना जाता हैं।

हम एक अनहोनी त्रासदी के बारे में निष्क्रिय हो गए हैं और तिब्बत पर हमारी सरकारों के तुष्टिकरण के कारण चीन एक आक्रामक, रणनीतिक और क्षेत्रीय विस्तार करने वाला, धमकाने वाला देश बन गया है। दुनिया तिब्बत मुद्दे को लेकर गहरी चुप्पी में डूब गई है। बीजिंग के स्व-घोषित ‘संवेदनशीलता’ को समायोजित करने के लिए सरकारें स्वयं-घोषित सेंसर कर रही हैं, इस उम्मीद में कि यह उनके हितों की रक्षा करेगी।

तिब्बत पर चीन की संप्रभुता का दावा

बीजिंग के अनुसार, तिब्बत ‘प्राचीन काल से’ चीनी बहुराष्ट्रीय राज्य का हिस्सा रहा है। पीआरसी (परमानेंट रेजीडेंट सर्टिफिकेट) की वर्तमान सीमाओं को वैध बनाने के प्रयास में चीनी सरकार ने आज के चीनी राज्य में वर्तमान विस्तारित किए क्षेत्र, अतीत के क्षेत्रीय राज्यों के साथ ही संप्रभुता की आधुनिक अवधारणाओं को भी शामिल कर लिया है। हालांकि यह अवधारणा उस समय एशिया में लागू नहीं थी। इस प्रक्रिया में चीन में विदेशी साम्राज्यों का शासन भी स्थापित हुआ। इनमें सबसे महत्वपूर्ण रूप से मंगोल और मांचू किंग साम्राज्य थे, जिन्होंने ‘चीनी’ या ‘चीन’ के रूप में नामित किया।

मंगोल और क्विंग साम्राज्य चीनी नहीं थे। ये दोनों क्रमशः आंतरिक एशियाई, मंगोल और मांचू थे। उनके शासकों ने चीन पर कब्जा किया और शासन किया। अपने विशाल प्रभुत्व के हिस्से के रूप में सदियों तक चीन और चीनियों पर शासन किया। दोनों ने चीनी आबादी वाले इलाकों से परे आधिपत्य जमाने का रास्ता अपनाया और तिब्बती पठार तक पहुंच गए। अप्रत्यक्ष रूप से इन विदेशी साम्राज्यों के शासन और इसके साथ उनके क्षेत्रीय दायरे और चीन तक पहुंच को पीआरसी ने अपने इस तर्क का आधार बनाया कि तिब्बत पर चीन की संप्रभुता उसे अपने पूर्ववर्ती शासकों से विरासत में मिली है।

चीन जानता है, तिब्बत पर शासन करना वैध नहीं

दुर्भाग्य से, यह कहानी इतिहास की किताबों में नहीं है। बीजिंग सक्रिय रूप से इस कहानी का उपयोग करता है। सबसे पहले, सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार करते हुए दलाई लामा के अनुयायी तिब्बतियों के साथ बातचीत की है। दूसरी बात कि चीन सभी सरकारों पर इसका खंडन न करने के लिए बहुत दबाव डाल रहा है। बीजिंग जानता है कि तिब्बत पर शासन करने की उसकी कोई वैधता नहीं है-कि उसने बलपूर्वक तिब्बत पर कब्जा किया है और उस समस्या को हल करने के लिए यह कहानी बनाई है। अगर दुनिया उसकी इस कहानी पर विश्वास कर लेती तो पीआरसी का मिशन पूरा हो गया होता। उनका पहला कदम इसका कोई विरोधाभास नहीं होने देना है। यह वह स्थिति है जहां आज तिब्बत है, वह सिर्फ आत्म नियंत्रण और चुप्पी की स्थिति में है।

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तिब्बत ने इस चुप्पी को तोड़ने के लिए ‘तिब्बत ब्रीफ 20/20’ लिखा। इस आख्यान का प्रभावी विरोध मौन और अनसुना करने जैसा है, समय अब खत्म हो चुका है। यह समय अब बीजिंग के ‘तिब्बत ब्रीफ 20/20’ आख्यान पर विश्वास करने का आधार और आपसी रजामंदी है। यह चीन-तिब्बत संघर्ष को हल करने के लिए किसी भी प्रयास को निरर्थक कर देगा। यह तिब्बत की मुख्य चिंता है। वार्ता के लिए एक मौका है। दुनिया को इस संघर्ष की वास्तविक प्रकृति के बारे में पता होना चाहिए, और यही वह सब कुछ है जो तिब्बत अपने एशियाई पड़ोसियों के साथ ऐतिहासिक संबंध रखता था। यहां से सवाल का हल होना है कि, क्या तिब्बत ऐतिहासिक रूप से चीन का हिस्सा था या नहीं?

ऐतिहासिक रूप से, चीन का हिस्सा नहीं था ‘तिब्बत’

ऐतिहासिक परीक्षण से पता चलता है कि तिब्बत ऐतिहासिक रूप से कभी भी चीन का हिस्सा नहीं था। इसका मतलब यह नहीं है कि आधुनिक अर्थ में तिब्बत हमेशा एक स्वतंत्र राज्य था। मंगोल, मांचू और ब्रिटिश साम्राज्यों के साथ तिब्बत के संबंध निर्भरता के विभिन्न रूपों में रहे हैं। लेकिन उन संबंधों के कारण किसी ने भी तिब्बत को चीन में शामिल नहीं किया।

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मंगोल साम्राज्य के दौरान तिब्बत चीन का हिस्सा नहीं था और लोक विश्वास के विपरीत मंगोल शासित युआन राजवंश का भी हिस्सा नहीं था। मंगोलों ने तिब्बतियों पर अधिकार किया, लेकिन उन्होंने अपनी इस विजय को चीन के शासन से अलग रखा और चीन व तिब्बत, दोनों को कभी शामिल नहीं किया। तिब्बत पर चीनी मिंग राजवंश द्वारा शासन नहीं किया गया था और निश्चित रूप से तिब्बत मिंग राज्य में शामिल नहीं किया गया था।

मांचु किंग सम्राटों के दलाई लामाओं के साथ संबंध के कारण भी उन सम्राटों ने कभी तिब्बत को चीन में शामिल नहीं किया। उन दोनों के बीच मौजूद धार्मिक-राजनीतिक संबंध, जिन्हें तिब्बती में ‘चो-योन’ संबंधों के रूप में जाना जाता है, उन्हें तत्कालीन तिब्बती बौद्ध कानूनी ढांचे में समझने की जरूरत है। उसे आधुनिक-क्षेत्रीय संप्रभुता के नजरिए से नहीं देखा जा सकता है। ये निष्कर्ष सभी समकालीन मंगोलियाई, मांचू, तिब्बती और चीनी स्रोतों में हैं।

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अंत में, चीनी गणराज्य, जिसने अपनी स्थापना के समय से ही तिब्बत को अपने हिस्से के रूप में दावा किया था, उसके ऊपर किसी भी अधिकार को स्थापित करने में पूरी तरह असमर्थ रहा, जिससे उसका दावा पूरी तरह से खाली गया। वास्तव में 1949 में पीआरसी (परमानेंट रेजीडेंट सर्टिफिकेट) की स्थापना से पहले तिब्बत ‘डीफैक्टो’ एक स्वतंत्र राज्य था और चीन गणराज्य में ‘डिजूरो’ था। इसके तुरंत बाद पीएलए (पीपल्स लिबरेशन आर्मी) ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया।

उपरोक्त सभी तथ्य यह साबित करते हैं कि चीन-तिब्बत संघर्ष की प्रकृति, तिब्बत में पीआरसी की उपस्थिति की वैधता और ‘पीआरसी तथा अंतरराष्ट्रीय दायित्व’, अंतरराष्ट्रीय कानूनों के दायरे में आते हैं। (क्रमशः)

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