चित्र सौजन्य : चीन द्वारा विभाजित तिब्बत/ फ्री तिब्बत।
- माइकल वान वाल्ट प्राग और माइक बोल्तजेस। लेखक, कैलीफोर्निया (यूएसए) में रहते है, वह आधुनिक अंतराष्ट्रीय संबंध और कानून विशेषज्ञ हैं।
तिब्बत कब्जा किया हुआ देश है और चीन-तिब्बत संघर्ष अंतरराष्ट्रीय विवाद का विषय है, न कि चीन का आंतरिक मामला। तिब्बत नहीं चाहता लेकिन बीजिंग, तिब्बत से स्वीकार करवाना चाहता है कि, तिब्बत में पीआरसी (परमानेंट रेजीडेंट सर्टिफिकेट) की उपस्थिति अवैध है। वजह साफ है, सन् 1950 में तिब्बत पर चीन ने सशस्त्र आक्रमण कर कब्जा किया था वह, आधुनिक अंतरराष्ट्रीय कानून के सबसे बुनियादी मानदंडों में से एक-दूसरे देश के खिलाफ बल प्रयोग पर रोक का उल्लंघन था।
जिसके कारण, पीआरसी ने आक्रमण करके भी तिब्बत की संप्रभुता पर कब्जा नहीं किया और अब वह तिब्बत पर अपने कब्जे को समाप्त करने और तिब्बतियों को स्वतंत्र रूप से आत्मनिर्णय के अपने पूर्ण अधिकार का उपयोग करने की अनुमति देने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत बाध्य है।
लेकिन यह केवल पीआरसी का ही दायित्व नहीं हैं। सभी देशों को यह दायित्व निभाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय कानून कहता है कि हमारी सभी सरकारों का कर्तव्य है कि चीन द्वारा तिब्बत पर अवैध कब्जे को स्वीकार न करें और न ही तिब्बत के गैर-कानूनी शासन को बनाए रखने में किसी भी तरह से बीजिंग का सहयोग या समर्थन करें। सभी देशों को तिब्बती लोगों की अनुमति के बिना, तिब्बत के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से बचने और इसका बढ़ावा देने से भी बचना आवश्यक है, क्योंकि वे संसाधन पूरी तरह से तिब्बती लोगों के हैं। दुनिया की सरकारों का सकारात्मक कर्तव्य है कि वे तिब्बत पर कब्जे को समाप्त करने में मदद करें और तिब्बती लोगों को आत्मनिर्णय के अधिकार की अनुमति दिलाएं और उनका सम्मान करें।
यह भारत के लिए विशेष रूप से राजनीतिक और सुरक्षात्मक जरूरत भी है। तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे के खिलाफ नहीं बोलना या उन तरीकों से कार्य करना जो चीन की संप्रभुता के दावों को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं और तिब्बत पर उसकी वैधता की झलक के साथ पीआरसी की उपस्थिति के दावों को भी औचित्य प्रदान करते हैं। आज इसके हानिकारक परिणाम सामने आ रहे हैं।
पहली बात है यह है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा तुष्टिकरण, स्व-घेराबंदी और चुप्पी का वर्तमान रवैया चीन-तिब्बत संघर्ष के निराकरण के लिए हानिकारक है। इससे तिब्बतियों के साथ वार्ता कर तिब्बत में पीआरसी की उपस्थिति की वैधता को लेकर चीनी नेतृत्व पर सवाल उठाने के सभी तर्क बेमानी हो जाते हैं। बस! सब मान लेते हैं कि इसकी अब कोई जरूरत नहीं है। यहां तक कि जो सरकारें तिब्बत की स्थिति को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित रही हैं, उन्होंने भी इस मुद्दे को केवल सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकारों के दायरे को शामिल किया है।
पीआरसी की रणनीति के अनुसार ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए तिब्बतियों के अधिकार को केवल जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के तौर पर भी चर्चा में शामिल किया जाता है, न कि तिब्बतियों से सत्ता छीन लेने की बात मानकर चर्चा हो पाती है।
दूसरी बात यह है कि, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की उदासीनता क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरा है। चीन का भारत और भूटान के प्रति आक्रामक रवैया, दक्षिण चीन सागर में उसका विस्तारवाद और नेपाल, मंगोलिया और दक्षिण-पूर्व एशिया में उसकी जोर-जबरदस्ती और हस्तक्षेप, ये सभी ऐसी बातें हैं जो हमारी राय में सीधे तौर पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के व्यवहार और चीन की गतिविधियों के प्रति उसकी प्रतिक्रिया से संबंधित है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय, अब भी तिब्बत पर चीन के आक्रमण और कब्जे पर किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है, यह भी ग़ौर करने वाली है।
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बीजिंग जानता है कि अगर इसने अपने स्व निर्मित इतिहास को लगातार कहने से पीछे हटता है और इसे चुनौती देने वालों को दंडित नहीं करता है तो समय के साथ क्षेत्रीय विस्तार से दूर हो सकता है। तिब्बत को लेकर पीआरसी ने जो ऐतिहासिक कहानी प्रचारित किया है वह जटिल है। इसने तिब्बत पर संप्रभुता के चीन के दावे पर सार्थक अंतरराष्ट्रीय सवाल उठाने के लिए भ्रम, स्वीकृति और आत्म-सेंसरशिप का पर्याप्त मिश्रण बनाया है और तिब्बती आंदोलन को भी कमजोर कर दिया है।
बीजिंग, दक्षिण चीन सागर में द्वीपों पर कब्जे और सैन्यीकरण के प्रभावी विरोध को रोकने के लिए इसी तरह की रणनीति अपनाता प्रतीत होता है। जहां तक हिमालयी क्षेत्रों में चीन के क्षेत्रीय दावों का सवाल है, ये सीधे तिब्बत में अपनी उपस्थिति और दावे के साथ जुड़े हैं। पीआरसी ने भारत के उत्तर-पूर्व और उत्तर-पश्चिम के बड़े हिस्से पर दावा करता है। इन दावों के कारण सन् 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ और चीन की आक्रामकता आज भारत की उत्तरी सीमाओं पर तनाव बढ़ा रही है। भारत के कुछ हिस्सों पर पीआरसी की संप्रभुता के दावों की वैधता, पूरी तरह से तिब्बत पर संप्रभुता के चीन के दावे से जुड़ी हुई है और इसीलिए इस ऐतिहासिक कथा के बारे में ऊपर चर्चा की गई है।
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चीन लद्दाख और सिक्किम के कुछ हिस्सों और पूरे अरुणाचल प्रदेश (जिसे चीन, दक्षिण तिब्बत कहता है) पर अपना दावा करता है। उसका तर्क है कि ये क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से तिब्बत के थे या तिब्बत के अधिकार या प्रभाव में थे। क्योंकि तिब्बत तथाकथित ऐतिहासिक रूप से चीन का हिस्सा रहा है, इसलिए तर्क यह कहा जाता है कि ये क्षेत्र चीन के हैं और पीआरसी को वहां अपनी संप्रभुता को लागू करने का अधिकार है। चीन भूटान के एक हिस्से पर भी इसी तरह का दावा करता है। तिब्बत पर, चीन के दावे से इनकार करना एक तरह से भारतीय और भूटानी क्षेत्र पर उसके दावे को अस्वीकार करना है। यह चीन के दावे को अमान्य करने का और इस क्षेत्र में विवाद को खत्म करने का सबसे स्पष्ट, सबसे मजबूत और सबसे प्रभावी तरीका है।
अरुणाचल प्रदेश के मामले में स्थिति विशेष रूप से स्पष्ट है। भारत और तिब्बत के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा के इस हिस्से पर सन् 1914 में शिमला समझौता महत्वपूर्ण है। दसअसल, तिब्बत और ब्रिटिश-भारत के बीच हुए समझौते में औपचारिक रूप से सहमति दी गई थी कि, ‘चीन ने उस सीमा को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।’ चीन ने तर्क दिया कि तिब्बत के पास सन् 1914 में संधियां करने की क्षमता और वैध अधिकार नहीं थे, क्योंकि तिब्बत कथित रूप से चीन का ही हिस्सा था?
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अरुणाचल प्रदेश के साथ तिब्बत की सीमा कानूनी रूप से शिमला समझौते के तहत लंबे समय से स्थापित है, जिसकी भारत द्वारा स्वतंत्र रूप से पुष्टि की गई थी। भारत के लिए यह मान लेना कि तिब्बत कानूनी रूप से चीन का हिस्सा है, दो चीजों में से एक है? इसका अर्थ यह होगा कि भारत सरकार अगर यह स्वीकार कर लेती है कि तिब्बत 1914 में चीन का हिस्सा था, तो शिमला समझौते में निश्चित की गई सीमा पर भारत का दावा स्वत: खारिज हो जाएगा और अरुणाचल या उसके कुछ हिस्से पर बीजिंग के दावे को वैध कर देगा।
दूसरा, भारत शिमला समझौते को वैध तो मान रहा है लेकिन वह 70 साल पहले स्वतंत्र तिब्बत पर पीआरसी के गैरकानूनी आक्रमण और कब्जे को वैध मानता है, जो अंतरराष्ट्रीय कानून के मौलिक सिद्धांत का ही उल्लंघन होगा। तिब्बत में चीन की अवैध उपस्थिति पर दुनिया की स्वघोषित सेंसरशिप और चुप्पी और कई देशों में इसे अधिकृत नीति बन जाने से भारत को स्थिति अत्यधिक कमजोर बन गई है। यह अरुणाचल प्रदेश में संप्रभु अधिकारों के बारे में भारत के मजबूत तर्क का खंडन कर देता है और पीआरसी को पूरे हिमालय के सभी जातीय और सांस्कृतिक रूप से संपन्न क्षेत्रों में तिब्बत के बारे में उसके ऐतिहासिक कहानी को निर्बाध रूप से चलने देने को प्रोत्साहित करता है। (क्रमशः)
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