चित्र : चीन के राष्ट्रपति, शी जिनपिंग।
चीन एक ओर भारतीय सीमा में घुसपैठ कर रहा है, तो दूसरी ओर म्यांमार में भी प्रभाव बनाने की पुरजोर कोशिश में हैं, हालिया घटनाक्रम चीन की इस मंशा को उजागर करते हैं, हालांकि चीन की निगाह ‘म्यांमार’ पर काफी पहले से है।
म्यांमार में चीन कई ऐसी पुरानी परियोजनाओं को शुरू करने की कोशिश कर रहा है, जिसे वहां की लोकतांत्रिक सरकार ने पहले बंद कर दिया था। कारण था, उन परियोजनाओं से म्यांमार में पर्यावरण पर बुरा असर पड़ने की आशंका जताई गई थी। इनमें सालवीन नदी पर बांध और बासाइन डीप सी पोर्ट जैसी परियोजनाएं शामिल हैं। इस पोर्ट परियोजना को रेल और सड़क से भी जोड़ा जा रहा है। यह कनेक्टिविटी चीन के कुनमिंग तक होगी। दूसरी ओर, चीन को म्यांमार के कोकांग रीजन से जोड़ने के लिए क्रॉस बॉर्डर स्पेशल इकॉनमिक जोन बनाया जा रहा है।
ये कुछ ऐसे ताजा घटनाक्रम हैं जो चीन की कूटनीतिक मंशा को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कुछ परियोजनाएं ऐसी हैं, जिनसे चीन, भारत को टारगेट कर रहा है। भारत की मुश्किलें बढ़ाने के लिए वह बांग्लादेश का भी इस्तेमाल कर रहा है। चीन, बांग्लादेश के लैंड बॉर्डर के जरिए चीन भारत के पूर्वी तटों के करीब पहुंचने की कोशिश कर रहा है।
जुलाई की शुरूआत में, स्वीडिश पत्रकार, बर्टिल लिंटनर ने कहा था कि चीन, म्यांमार में अस्थिरता चाहता है और दक्षिण पूर्व एशियाई देश की राजनीति में एक प्रमुख कंट्रोलर प्लेयर के रूप में बने रहना चाहता है।
पत्रकार ने यह बयान इसलिए दिया क्योंकि चीनी विदेश मंत्री वांग यी एक क्षेत्रीय सम्मेलन में भाग लेने म्यांमार पहुंचे। इसे उस देश का विपक्ष शांति प्रयासों के उल्लंघन के रूप में देख रहा है। ये आशंका जताई जा रही है कि सेना द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के बाद से अपनी पहली यात्रा के लिए वांग यी बीजिंग के दीर्घकालिक हितों को सुरक्षित करने की कोशिश करेंगे।
यहां चीन के नजरिए से देखें तो यह बात भी सामने आती है कि चीन जिस तरह से एक समय श्रीलंका को, हिंद महासागर में अपने पावर प्रोजेक्शन हब के रूप में देख रहा था, लेकिन हालही में हुए भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में चल रहे आर्थिक/राजनीतिक संकट से बड़ा धक्का लगा है। श्रीलंका क्राइसिस के कारण बांग्लादेश सहित दक्षिण एशिया के कई देश अब चीन की कर्ज डिप्लोमेसी से सतर्क हो गए हैं। ऐसे में, म्यांमार की अहमियत चीन के लिए काफी बढ़ गई है।
साल 2021, म्यांमार में सैन्य तख्तापलट हुआ और इसके बाद से ही वहां के घटनाक्रम तेजी से बदलते गए। इस बीच चीन, न केवल म्यांमार के सैन्य सरकार का संकटमोचक के रूप में आया तो वहीं उसने हथियार और गोला-बारूद देकर सहायता भी की। चीन ने खुद कहा है कि म्यांमार की सेना तातमाडॉ (आंग सान सू ची के पिता जनरल आंग सान की, जिनकी ब्रितानी शासन से आजादी मिलने से पहले ही हत्या कर दी गई थी। तब उनकी लोकप्रियता बहुत अधिक थी। वे आधुनिक बर्मी सेना के संस्थापक भी थे जिसे ‘तातमाडॉ’ के नाम से भी जाना जाता है। उसी सेना ने अब उनकी बेटी को बंदी बना लिया है और एक बार फिर उनकी आजादी छीन ली है।) के साथ उसके संबंध ऐतिहासिक हैं, और वह आगे भी म्यांमार की मदद करेगा।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्टस कहती हैं कि चीन ने यह भी पुष्टि की है कि उसने हमेशा अपनी कूटनीति में म्यांमार को एक महत्वपूर्ण स्थान पर रखा है।
अब ऐसे में एक बड़ा सवाल यह भी है कि म्यांमार को साधना क्या चीन के लिए आसान होगा? मौजूद हालात बताते है कि ‘नहीं’, क्योंकि वहां की सैन्य सरकार को अभी रुपयों की जरूरत है। एक तरफ, लोकतांत्रिक सरकार का तख्तापलट करने के कारण दुनिया ने म्यांमार के सैन्य शासन को अलग-थलग किया हुआ है। तो दूसरी ओर, चीन इसी का फायदा उठाकर वहां अपनी पकड़ मजबूत बनाने में जुटा हुआ है।
दक्षिण पूर्व एशिया के मामले में भारत ने कहा है कि म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों से भारत का पारंपरिक रिश्ता रहा है, इसलिए इस क्षेत्र के लिए भारत कोई बाहरी ताकत नहीं है। म्यांमार और थाईलैंड उसके लिए महत्वपूर्ण देश हैं। चीन, म्यांमार के जरिए भारत की इसी रणनीति को तोड़ने की कोशिश कर रहा है। भारत के लिए चुनौती काफी ज्यादा है क्योंकि वह भी म्यांमार की सैन्य सरकार के साथ अपने संबंध अच्छे रखना चाहता है। इसलिए लोकतांत्रिक सरकार हटाए जाने के बाद भारत ने वहां की सैन्य सरकार से संबंध नहीं तोड़े।
भारत के लिए भी म्यांमार की सेना का सपोर्ट बहुत जरुरी है क्योंकि नॉर्थ ईस्ट में कई उग्रवादी समूह हैं, जिनके खिलाफ जब भारत कार्रवाई करता है तो उसे म्यांमार की मदद की जरूरत पड़ती है।
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