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इतिहास के पन्नों से : जब पर्यावरण के लिए लोगों ने दी ‘प्राणों की आहुति’

रोजर टोरी पीटरसन एक अमेरिकी प्रकृतिवादी, पक्षी विज्ञानी, कलाकार और शिक्षक थे। उन्होंने कहा था, ‘चिड़िया पर्यावरण का एक संकेतक है। अगर वे मुसीबत में हैं, तो हम भी बहुत जल्द मुसीबत में आ जाएंगे।’

इस समय पर्यावरण को बचाने के लिए पूरी दुनिया बहस में उलझी हुई है और अधिक से अधिक पेड़ लगाने को की बात पर जोर दिया जाता है ताकि प्रदूषण को नियंत्रित रखा जा सके। लेकिन, राजस्थान के जोधपुर से 25 किमी दूर 288 साल पहले यानी सन् 1730 में कुछ ऐसा हुआ जिसके बारे में सदियों तक याद किया जाएगा।

दरअसल, खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए विश्नोई समाज के लोग एक के बाद एक पेड़ों से लिपटते रहे और राजा के सिपाही उनको कुल्हाड़ियों से काटते रहे। उनका एक ही लक्ष्य था, ‘सिर सांचे रूंख रहे तो भी सस्ता जाण’ यानी सिर कटने से पेड़ बचता है तो भी सस्ता मान लिया जाए। पेड़ बचाने के लिए कुल 363 महिलाओं और पुरुषों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। खून बह रहा था, लेकिन राजा के सिपाही नहीं थमे। आखिरकार राजा के आदेश पर भादवा सुदी दशम को यह वीभत्स सिलसिला थमा। पूरी दुनिया में शायद ही कोई दूसरा उदाहरण सुनने और पढ़ने को मिले जब इंसान ने पेड़ों को बचाने के लिए इतनी बड़ी संख्या में अपना बलिदान दिया।

राजा को चाहिए थीं खेजड़ी का पेड़ की लकड़ी

उस समय जोधपुर का राजा अभयसिंह था, जिसे अपने महल के निर्माण के लिए लकड़ियों की जरूरत थी। उसने खेजड़ी के वृक्ष काटने की आज्ञा दी। तब अमृता देवी नाम की महिला पहल करते हुए खेजड़ी के वृक्ष पर बाहें डाल खड़ी हो गई। राजा के सिपाही इस पर नहीं रुके और उन्होंने अमृता देवी को कुल्हाड़ी से काट डाला। एक-एक कर 84 गांवों के 217 परिवारों के लोगों ने बलिदान दिया। इसके बाद में राजा ने आदेश जारी कर दिया कि मारवाड़ मेंं कभी खेजड़ी का वृक्ष नहीं काटा जाएगा। आलम यह है कि आज भी मारवाड़ में खेजड़ी के पेड़ को कहीं भी काटा नहीं जाता है।

240 बाद फिर दोहराया गया इतिहास

1730 के 240 साल बाद यानी 1970 में इतिहास को फिर दोहराया गया। उत्तराखंड में चिपको आंदोलन की शुरूआत की गई। उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों द्वारा पेड़ों को गले लगा लिया जाता था ताकि उन्हें कोई काट न सके। यह आलिंगन दरअसल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे ‘चिपको’ की संज्ञा दी गई और इस तरह शुरू हुआ चिपको आंदोलन।

चिपको आन्दोलन के प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा को माना जाता है, अपनी पत्नी श्रीमती विमला नौटियाल के सहयोग से इन्होंने सिलयारा में ही ‘पर्वतीय नवजीवन मण्डल’ की स्थापना भी की। सन 1971 में शराब की दुकानों को खोलने से रोकने के लिए सुन्दरलाल बहुगुणा ने सोलह दिन तक अनशन किया। चिपको आन्दोलन के कारण वे विश्वभर में वृक्षमित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

इन्हें कहा जाता है ‘पर्यावरण गांधी’

सुन्दरलाल बहुगुणा के अनुसार पेड़ों को काटने की अपेक्षा उन्हें लगाना अति महत्वपूर्ण है। बहुगुणा के कार्यों से प्रभावित होकर अमेरिका की फ्रेंड ऑफ नेचर नामक संस्था ने 1980 में इनको पुरस्कृत भी किया। इसके अलावा उन्हें कई सारे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। पर्यावरण को स्थाई संपत्ति मानने वाले सुंदरलाल बहुगुणा को आज दुनिया ‘पर्यावरण गांधी’ के तौर पर पहचानती है।

चिपको आंदोलन का मूल केंद्ररेनी गांव (जिला चमोली) था जो भारत-तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगू के 2451 पेड़ साइमंड कंपनी को ठेके पर दिए थे। इसकी खबर मिलते ही चंडी प्रसाद भट्ट के नेत्तत्व में 14 फरवरी, 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड़ गिराए गए, तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड जायेगा। ये पेड़ न सिर्फ हमारी चारे, जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरतें पूरी करते है, बल्कि मिट्टी का क्षरण भी रोकते है।

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