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इंसानी रिश्ता बनाने की तड़प

अपूर्वानंद

 जनसत्ता 11 सितंबर, 2014: मुक्तिबोध अचानक क्यों लोकप्रिय हो उठे? ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ की भूमिका लिखते हुए

1964 में शमशेर बहादुर सिंह ने यह प्रश्न किया था। तब मुक्तिबोध अचेत थे। शमशेर ने लिखा कि 1964 के मध्य में मुक्तिबोध अचानक एक बड़ी घटना बन गए। अशोक वाजपेयी ने, जो उन तरुण लेखकों में थे जिन्हें मुक्तिबोध के मूल्य का पता था, उनकी मृत्यु के पचास साल बाद लिखा है कि वे एक-दूसरे से साहित्यिक और राजनीतिक मामलों में विरोधी विचार रखने वालों के बीच समादृत हैं। अपनी भूमिका में ही शमशेर ने ‘अंधेरे में’ को राष्ट्रीय कविता का दर्जा दिया है और कहा है कि यह हिंदी की स्वस्थतम आधुनिक काव्य सृष्टि का सर्वोपरि विजय-चिह्न है।

राष्ट्रीय अब भी एक ऐसा भाव है जो परस्पर विरोधी राजनीतिक और वैचारिक दृष्टियों पर एक साथ लागू होता है। वाम वाम होगा और दक्षिण दक्षिण, लेकिन दोनों ही राष्ट्रीय होंगे। उस अर्थ में मुक्तिबोध की रचनाओं को राष्ट्रीय कहना कितना उचित है, यह विचारणीय है। इसलिए भी कि राष्ट्र की परियोजना की आलोचना करते हुए मुक्तिबोध नहीं दीखते। हालांकि उनकी रचनाओं में- कविता, कहानी, निबंध और आलोचना समेत- राष्ट्र विचार की इकाई नहीं है, मनुष्य है: जंगल में जलावन बीनती मां, साधारण दफ्तरों में काम करने वाले बाबू, स्कूल में पढ़ाने वाले लोग, निम्न मध्यवर्ग के लोग, जो किसी तरह जिंदगी का छकड़ा खींचते जाते हैं, उस जिंदगी की ऊब और जकड़न से आजादी पाने के लिए शनिवारी तालाब में कूदकर डूब मरने वाले नवयुवक-युवतियां और परिवार से ईमानदारी बरतते हुए दिन-रात खुद को खपा देने वाले श्रमिक, जो अपनी अंदरूनी रूहानी जिंदगी की तलाश में भटकते रहने को अभिशप्त हैं। मुक्तिबोध के लिए वर्गीकृत मनुष्य की जगह महत्त्वपूर्ण है वह ‘घर की पड़ोसन, जो बड़ी लड़ाकू है, न मालूम कब और क्यों पिघल जाती है…आपके संकट के काल में सारा भार अपने ऊपर ले लेती है! उसके हृदय का न मालूम कौन-सा छोर भीग गया है।’

शमशेर स्वस्थ प्रवृत्ति को किस प्रकार परिभाषित कर रहे थे, यह स्पष्ट नहीं, लेकिन चिकित्साशास्त्र के इस शब्द का प्रयोग जब कला और साहित्य में किया जाता है तो उसके परिणाम भयंकर होते हैं। स्वस्थ-अस्वस्थ के बीच का अंतर करने में एकाधिकारवादी और ‘टोटैलिटेरियन’ सत्ताओं को दिलचस्पी रही है और उसके नतीजे रचनाओं से अधिक रचनाकारों को झेलने पड़े हैं। खुद शमशेर के मित्र रामविलास शर्मा उन्हें पूर्णत: स्वस्थ नहीं मानते थे। अगर उन पर आक्रमण उन्होंने नहीं किया तो उनकी नाजुकमिजाजी पर तरस खाकर। लेकिन यह रियायत उन्होंने मुक्तिबोध को नहीं दी। उनकी बात मान ली जाती तो मुक्तिबोध को शिजोफ्रेनिया का इलाज कराने किसी मनोचिकित्सालय भेज दिया गया होता। अगर उनका हश्र आंद्रेई सखारोव वाला नहीं हुआ तो सिर्फ इसलिए कि भारत लेनिनवादी-स्तालिनवादी राज्य नहीं था और यहां ज्दानोव जैसा सांस्कृतिक कमिसार बहाल नहीं हुआ था। 

स्वस्थ और अस्वस्थ शरीर और मन को लेकर जो दुविधाएं सत्ता और साहित्य में देखी जाती हैं उनका रिश्ता कुछ इस समझ से है कि एक पूर्ण और आदर्श शरीर होता है और हर किसी का लक्ष्य उसे प्राप्त करना होना चाहिए। अपूर्णता इसलिए हमेशा न्यूनता या कमी की द्योतक है। अपूर्णता घृणा या दया उत्पन्न करती है, सहानुभूति नहीं। अपूर्णता से ग्रस्त व्यक्ति के साथ विशेष व्यवहार किया जा सकता है, समानता की प्रतिष्ठा उसे देना कठिन है।

विडंबना यह है कि जिस मार्क्सवाद की खराद पर मुक्तिबोध को चढ़ाया जा रहा था, उसे वे भी रघुवीर सहाय और शमशेर की तरह प्राणवायु मानते थे। वह मार्क्सवाद उन्होंने एक कड़े बौद्धिक संघर्ष और श्रम के बाद अर्जित किया था और फिर वह उनका अस्तित्व-तर्क बन गया था। 

अपने गुरु मित्र या मित्र गुरु नेमिचंद्र जैन को उन्होंने लिखा कि उन्हें मार्क्सवादी बना कर उन्होंने उनके साथ बहुत कड़ा खेल खेला है। मुक्तिबोध के लिए मार्क्सवादी होना मजाक न था। वे उन मार्क्सवादियों को हैरत से देखते थे जिन्हें उसके लिए अपने आप से लड़ना न पड़ा और अपने वजूद का कुछ कुर्बान न करना पड़ा। 

मुक्तिबोध की कविताओं के उद्विग्न स्वर ने प्रगतिशील आलोचकों को उलझन में डाल दिया: मार्क्सवाद को अंगीकार करने में इतनी पीड़ा क्यों? मार्क्सवाद को स्वीकार कर लेने के बाद भी इतना द्वंद्व क्यों! ऐसे आलोचकों को वे ‘बोधहीन बौद्धिकता’ का शिकार बताते हैं और कहते हैं कि नई पीढ़ी का इन समीक्षकों के लिए तभी तक महत्त्व है जब तक वे उनके प्रगतिवादी ढर्रे में ही प्रगतिवादी भावों को प्रकट करें: ‘उस पीढ़ी की असली जिंदगी के संघर्ष, कष्ट और संवेदनाओं से उन्हें कोई मतलब नहीं। जब यह पीढ़ी निराशा, घुटन, उदासीनता, प्रणय, स्नेह, सौंदर्य, आश्चर्य, साहस, उत्साह, संघर्ष और विजय की भावनाओं का मनोवैज्ञानिक चित्रण करती है, तो वह उन्हें आत्मबद्ध, आत्मग्रस्त, कुंठामय, अवरुद्ध और व्यक्तिनिष्ठ, अहंवादी और गतिरुद्ध प्रतीत होती है।’

मुक्तिबोध पर स्वयं ये सारे आरोप लग चुके थे। लेकिन असल परेशानी थी मुक्तिबोध का कविता के रूप के साथ बर्ताव। प्रगतिशील कवि हों या प्रयोगवादी या नई कविता के कवि, उन्होंने लोकप्रिय हो गए प्रगीत या छोटी कविता के सुरक्षित घेरे से बाहर पांव नहीं बढ़ाए। मुक्तिबोध ने शुरुआत तो रोमांटिक मनोभूमि और काव्यभूमि से की, लेकिन प्रगीत का घेरा अपने लिए उन्हें तंग मालूम पड़ा।

प्रगीतात्मकता में एक सुरक्षा थी। प्रचलित काव्यरुचि के वह अनुकूल थी। विषयवस्तु बदल जाने से बहुत अंतर नहीं पड़ता था, क्योंकि कविता पढ़ने के अभ्यास को उससे चुनौती न

थी। कविता के एक सांद्र, पूर्ण अनुभव का आश्वासन था। सारे प्रयोगों के बाद भी उसका शासन बना हुआ था। मुक्तिबोध जिस प्रक्रिया की कविता लिखना चाह रहे थे, वह एक नई वैचारिक संवेदना के आविष्कार की प्रक्रिया थी। अज्ञेय ने कहा कि मुक्तिबोध प्रक्रिया के कवि हैं, परिणति के नहीं। लेकिन मुक्तिबोध की कविताओं में शिल्प की कमी उन्हें खली। अज्ञेय के वाक्-संयमी स्वभाव को मुक्तिबोध का शब्द-बाहुल्य भी अटपटा लगा। मुक्तिबोध के आरंभिक प्रशंसकों में अग्रणी नामवर सिंह ने भी 1958 में ‘आत्म-संघर्ष के कवि: गजानन माधव मुक्तिबोध’ शीर्षक निबंध में यह शंका जाहिर की थी: ‘मुझे ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध जितना बड़ा विषय लेते हैं उसके लिए उनके पास गहरी चिंतनशक्ति तो है, परंतु उतनी ही समर्थ कलात्मक शक्ति नहीं है।’

कविता में कलात्मकता या कलात्मक कविता की इस समझ का स्रोत जाहिर है, प्रगीतात्मकता में है। मुक्तिबोध को कविता के शिल्प बनने-न बनने की फिक्र नहीं थी। असल चीज थी कविता में शक्ति का प्रवाह। इस वजह से कविता को तराशने या गढ़ने के पक्ष में वे नहीं थे।

शक्ति का स्रोत बाहर है या अपने भीतर? मुक्तिबोध की कविताएं प्राय: भीतर की यात्राएं हैं। यात्रा कहने से लेकिन उस छटपटाहट या बेचैनी का अंदाजा नहीं मिलता जो ‘अंत:करण का आयतन’ नामक कविता में यों व्यक्त होती है, ‘यह छांह मेरी सर्वगामी है! हवाओं में अकेली सावली बेचैन उड़ती है/’ और ‘…मेरी छांह सागर-तरंगों पर भागती जाती, दिशाओं पार, हलके पांव..’

वह छांह ‘उन्मद बिजलियों में अनेक बिजलियों से खेल जाती है’ , ‘अपने प्रियतरों के स्वप्न, उनके विचारों की वेदना जीकर/ व्यथित अंगार बनती है/…उतरती है खदानों के अंधेरे में/ वह और अगले स्वप्न का विस्तार बनती है।’ और यह ‘मैं देखता क्या हूं कि-/पृथ्वी के प्रसारों पर/ जहां भी स्नेह या संगर,/ वहां पर एक मेरी छटपटाहट है/ वहां है जोर गहरा एक मेरा भी;/ सतत मेरी उपस्थिति, नित्य सन्निधि है।’

एक तरह से मुक्तिबोध ने आत्म का उत्खनन किया और वे मणि-रत्न निकाले जो बहुत अंदर दबा दिए गए थे, तलघर में फेंक दिए गए थे, क्योंकि वे जिंदगी में शामिल होने की मांग करते हैं। मुक्तिबोध कहते भी हैं, ‘आई वांट टू बि इन द थिक आॅफ  थिंग्स।’ अशोक वाजपेयी ने लिखा, ‘मुक्तिबोध में रचयिता और टीकाकार में कोई अलगाव नहीं है।’ इस तरह तटस्थ वर्णनकर्ता या व्याख्याता की शांत भूमिका की जगह ‘इन्वॉल्वमेंट’ के आवेश से मुक्तिबोध को कोई लाज नहीं आती। 

अशोक वाजपेयी ने मुक्तिबोध की कविता को भयानक खबर की कविता कहा। यह खबर जितनी बाहर की नहीं थी उतनी भीतर हो रहे ध्वंस की थी। अपनी भूमिका की तलाश का मतलब था खुद को संकट में डालना। वह ‘अपनी आत्मा के लुहारखाने में समाज के अधबने अंत:करण को गढ़ना भर नहीं था, खुद को तोड़ना और फिर बनाना भी था। संभवत: अस्तित्ववाद के अपने पुराने संस्कार के कारण मुक्तिबोध का निजी दायित्व-बोध बहुत तीव्र था और जो कुछ भी बाहर हो रहा था, उसके लिए वे बाह्य भौतिक कारणों को जिम्मेदार मानकर छुट्टी नहीं पा सकते थे।

निजी जिम्मेदारी और प्रत्येक परिस्थिति में अपनी भूमिका की पहचान का दायित्व-बोध, जिसमें विफलता या हार के निश्चित होने के बावजूद संघर्ष को आह्लादपूर्वक अंगीकार किया जाता है। गुजरात से लेकर देश में हो रहे अधिकतर संघर्षों में वामपंथी दलों की निष्क्रियता से यह प्रकट होता है कि मार्क्सवाद अपने आप इस दायित्व-बोध का स्रोत नहीं हो पाता। उसके लिए मनुष्यता से एक गहन और बिनाशर्त प्रतिबद्धता चाहिए, कुछ वैसी जो अज्ञेय को बिहार के बाढ़ग्रस्त इलाकों तक ले गई, जिनकी मानवीय तत्परता देख फणीश्वरनाथ रेणु आपने आलस्य पर शर्मिंदा हो उठे। यह मानवीय तत्परता या अशोक वाजपेयी के शब्दों में ही मार्मिक तात्कालिकता संसार को एक सही दिशा में ले जाने या दुरुस्त कर देने की इच्छा से पैदा नहीं हो सकती।

मुक्तिबोध की कविता का सबसे सबल पक्ष है यह राजनीतिक दायित्व-बोध। इसके लिए ज्ञानार्जन अनिवार्य है और नई ज्ञानात्मक संवेदना की संरचना का काम भी फौरी जरूरत है। इसे टाला नहीं जा सकता। 

ज्ञान का अर्थ है इन संभावनाओं को पहचानना और उनसे रिश्ता बनाना। इसका मतलब होगा उन इलाकों में जाना जो बेकार मान कर छोड़ दिए गए हैं। फिर मार्क्सवाद के पतनशील वर्ग और उत्थानशील वर्ग की अवधारणा के दायरे से भी निकलना होगा। साथ ही आत्मग्रस्तता और आत्ममुग्धता के गड्ढे से भी बाहर आना होगा।

मुक्तिबोध की कविता सही मायने में जिंदगी में भरपूर हिस्सेदारी की कविता है। इंसानी रिश्ता बनाने की तड़प की कविता। सब कुछ पुराना और बासी हो सकता है, यह तड़प नहीं।  

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