- आदित्य गौदरा शिवमूर्ति।
वैश्विक स्तर पर लंबे समय से चले आ रहे द्विपक्षीय मुद्दों और विवादों ने भी भारत-विरोधी भावनाओं को भड़काया है। इन अनसुलझे मुद्दों ने भारत के प्रति एक धारणा बना दी है कि भारत की इस क्षेत्र में ख़ास दिलचस्पी नहीं है और वह अपने राष्ट्रीय हितों से परे देखने में असमर्थ है।
हालांकि, घरेलू राजनीतिक मज़बूरियां और राजनीतिक इच्छा की कमी दोनों तरफ मौजूद हैं और भारत से संदेह, भय और अपेक्षाओं ने पड़ोसी देशों की नकारात्मक धारणाओं को और मज़बूत किया है।
जैसे नदी के पानी को साझा करने का मुद्दा लंबे समय से बांग्लादेश में भारत के प्रति नकारात्मक सोच पैदा करता रहा है। हैरानी तो इस बात को लेकर है कि आज तक भारत और बांग्लादेश के बीच नदियों का जल साझा करने को लेकर महज़ एक समझौता हो पाया है जबकि दोनों देशों के बीच सीमा पार 54 नदियों का अस्तित्व है।
मुहुरी विवाद, भारत की सीमा पर बाड़ लगाने और बांग्लादेशी नागरिकों की सीमा पर हत्याओं के चलते भी इन नकारात्मक भावनाओं को पनपने का मौका मिला है। इसके अलावा, बांग्लादेश पर भारत में अवैध तरीके से नागरिकों को भेजने और सीमा पार आपराधिक गतिविधियों के लिए आरोप लगाने की वजह से भी नकारात्मक धारणाएं पैदा हुई है।
श्रीलंका में, भारत मछुआरों के मुद्दे को हल करने में अब तक नाकाम रहा है जबकि भारत लगातार श्रीलंका पर 13वें संशोधन को लागू करने का दबाव बनाता रहा है। यही नहीं नेपाल के साथ भारत के कई अनसुलझे मुद्दे हैं। जल बंटवारे का मुद्दा एक बड़ा अड़चन बना हुआ है। कोशी, गंडकी और महाकाली नदियों से संबंधित संधियों को भी नेपाल के लोग अनुचित और शोषणकारी मानते हैं।
भारत-नेपाल के बीच गोरखा भर्ती, तस्करी, सीमा पार आपराधिक गतिविधियां, खुली सीमाओं का दुरुपयोग, 1950 की संधि, भारतीय सुरक्षाकर्मियों द्वारा कथित सीमा अतिक्रमण की घटनाएं या नेपाल की सीमा में उनके अनधिकृत प्रवेश की घटनाएं भी दोनों देशों के बीच तक़रार की मुख्य वजहें हैं। लंबे समय से चले आ रहे इन विवादित मुद्दों को दोनों मुल्कों के सुलझाने की अक्षमता और अनिच्छा की वजह से भी भारत के प्रति संदेह को और बढ़ावा मिला है।
पड़ोसी देशों से उदारता की उम्मीद
अर्थव्यवस्था ने भी भारत-विरोधी भावनाओं को भड़काने और प्रचारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत के आर्थिक और भौगोलिक आकार की वजह से भी इसके पड़ोसी मुल्कों को देश से उदारता की उम्मीद पैदा होती है।
यही वजह है कि भारत से कनेक्टिविटी, मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने और व्यापार प्रतिबंधों को कम करने की उम्मीद बढ़ जाती है लेकिन आर्थिक एकीकरण और कनेक्टिविटी के क्षेत्र में हाल में मिली कुछ सफलताओं के बावजूद अंतर-क्षेत्रीय व्यापार का स्तर कम बना हुआ है। यह समान वस्तुओं के उत्पादन और निर्यात, पैरा-टैरिफ़, संरक्षणवादी नीतियों, उच्च लॉजिस्टिक लागत, गैर-औपचारिक व्यापार और गैर-टैरिफ़ बाधाओं के चलते लगातार रूकावटें पैदा होती गईं।
सभी द्विपक्षीय और क्षेत्रीय व्यापार समझौतों के बावजूद दक्षिण एशिया के साथ भारत का कारोबार महज़ 36 बिलियन डॉलर का ही है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के पक्ष में व्यापार घाटे ने अपने पड़ोसियों को और अधिक परेशान कर दिया है, क्योंकि वे भारत से अधिक उदारता की उम्मीद करते हैं (तालिका-1 देखें)। इस प्रकार इसने भारत के बारे में महज़ एक व्यापारी और एक शोषक देश होने की धारणा को बल दिया है।
यह व्यापार घाटा छोटे पड़ोसी मुल्कों के भौगोलिक नुकसान और वस्तुओं में विविधता लाने और व्यापार को बढ़ावा देने में असमर्थता की भी पड़ताल करता है। नतीज़तन, इसी तरह के व्यापार घाटे में कमी चीन के साथ भी बनी हुई है। लेकिन यहां चीनी-विरोधी भावनाओं का न होना इस बात को साबित करता है कि भारत के साथ पहले से मौजूद संशयवाद, ऐतिहासिक मतभेद और अनसुलझे विवादों ने शत्रुतापूर्ण भावनाओं और धारणाओं में योगदान दिया है।
घरेलू राजनीति में उलझती वैश्विक समस्याएं
घरेलू राजनीति और लोकतंत्र के प्रचार ने भी पड़ोस में भारत-विरोधी भावनाओं को भड़काना जारी रखा है। दरअसल, भारत के आंतरिक और बाहरी हितों, विवादों को सुलझाने में नाकामी और इस क्षेत्र की आर्थिक शिकायतों ने एक खालीपन पैदा किया है जिसका इस्तेमाल अभिजात वर्ग द्वारा अपने घरेलू और चुनावी लाभ के लिए किया जा रहा है।
दक्षिण एशियाई देशों के आधिकारिक और केंद्रीकृत सरकार के दौरान भी भारत-विरोधी भावनाएं मौजूद थीं, लेकिन सत्ता के विविधीकरण और विकेंद्रीकरण ने इन प्रजातांत्रिक अभिजात्यों को भारत की जनता के लिए एक जोख़िम के रूप में प्रदर्शित करने के लिए उकसाया है।
यह एक ऐसी समस्या है जो गैर-लोकतांत्रिक शासनों के दौरान काफी हद तक मौजूद नहीं रही। इस प्रकार लोकतंत्र के अस्तित्व ने इस पूरे क्षेत्र में भारतीय निवेश, विकास परियोजनाओं और सुरक्षा गारंटी के राजनीतिकरण को जन्म दिया है और यह पड़ोसी मुल्कों में लोकतंत्र के प्रसार के साथ तेजी से बढ़ता गया है, जैसा कि मालदीव और नेपाल में देखा जा रहा है।
इसके अलावा, इन देशों में भारत के आंतरिक और बाहरी हितों, घरेलू राजनीति के साथ प्रजातंत्र को बढ़ावा देने की कोशिशों को देखते हुए अपने हित भी हैं और इसे लेकर पड़ोसी मुल्कों के अभिजात्य वर्ग ने यह साबित करने की कोशिश की है कि वो अपने देश को भारत के वर्चस्व से सुरक्षा देंगे।
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वे अक्सर भारत की कीमत पर राष्ट्रवाद पर एकाधिकार बनाए रखने के लिए दूसरों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करते हैं। यही वजह है कि भारत-विरोधी भावनाएं और बयानबाजी लगातार बढ़ती ही जा रही है। कोरोना महामारी के दौरान पड़ोसी मुल्कों को नई दिल्ली ने जिस तरह से मदद किया है उसने भी दक्षिण एशिया में भारत द्वारा निभाई जाने वाली अहम भूमिका को रेखांकित किया है। यह विडंबना ही है कि पड़ोस में लोकतंत्र को बढ़ावा देने की भारत की कोशिशें उसे उसके पड़ोसी मुल्कों में लगातार अस्वीकार्य बनाती जा रही है।
तो अब क्या होगी कूटनीति
भारत उन चुनौतियों को स्वीकार कर रहा है जिनका सामना वो पड़ोस में कर रहा है और इसे लेकर मंथन जारी है। अपने पड़ोसियों के साथ अधिक से अधिक संपर्क बढ़ाने और एक सतत राजनीतिक पहुंच को लगातार बढ़ावा देना हाल के वर्षों में भारत की पड़ोस नीति को आकार दिया है।
कोरोना महामारी के दौरान पड़ोसी मुल्कों को नई दिल्ली ने जिस तरह से मदद किया है उसने भी दक्षिण एशिया में भारत द्वारा निभाई जाने वाली अहम भूमिका को रेखांकित किया है। यही नहीं संरचनात्मक चुनौतियां इस पूरे इलाक़े में भारत विरोधी भावनाओं को जल्द ख़त्म नहीं होने देगा लेकिन अगर भारतीय नीति निर्माता इस भावना की जड़ को पहचान लेंगे तो वे अपनी नीति प्रतिक्रिया को बेहतर ढंग से आकार दे सकेंगे।
This article first appeared on Observer Research Foundation.
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