देश बहुत बड़ा है और ये आगे बढ़ता ही जाएगा। हालही में अखबारों और टीवी चैनलों की खबरों में जनसंख्या विस्फोट प्रमुखता से दिखाया गया। सिर्फ दिखाया गया। केंद्र और राज्य सरकार के अफसर और नेता चुपचाप यह सब खबरें देख ही रहे थे और इस बीच एक और नए (लेकिन पुराने) मुद्दे ने दस्तक दी। ये था ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ यानी एक देश एक चुनाव।
कोई इसके पक्ष में तो कोई हमेशा की तरह विरोध कर रहा है फर्क इतना है कि हम एक देश एक कर, एक देश एक चुनाव की बात करते हैं एक देश समान शिक्षा की बात कब करेंगे। ये अलग विषय है लेकिन, जब वन नेशन वन इलेक्शन की बात हो रही है तो ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या ऐसा करने से राजनीति की वर्तमान शैली में कोई फर्क आएगा? क्या देश की आत्मा संसद में आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त, हत्या, डकैती और भी कई तरह के अपराध कर चुके लोगों का आना-जाना चलता रहेगा?
हालही में जब इस विषय पर पीएम नरेंद्र मोदी ने संसद पर इस बात पर चर्चा की तो सीफीआईएम महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि यह देश में संसदीय प्रणाली की जगह पिछले दरवाजे से राष्ट्रपति शासन लाने की कोशिश है। उन्होंने ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ के केंद्र सरकार के विचार को असंवैधानिक और संघीय व्यवस्था के खिलाफ करार दिया।
लेकिन, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के मुद्दे को लेकर एक कमेटी बनाई जाएगी, जो इसके सभी पक्षों पर विचार करके अपनी रिपोर्ट देगी। सरकार की तरफ से 40 पार्टियों को बैठक में बुलाया गया था। कांग्रेस, एसपी, बीएसपी, आम आदमी पार्टी, टीएमसी जैसी कई पार्टियों ने इस बैठक में शिरकत नहीं की।
तो वहीं, खबर यह भी है कि चुनाव आयोग का कहना है कि फिलहाल वन नेशन वन इलेक्शन देश में लागू करने के लिए ये सही समय नहीं है। देश में कानून व्यवस्था उतनी बेहतर नहीं है, जितनी होनी चाहिए।
पक्ष में दी जाने वाली दलीलें
- आदर्श आचार संहिता लागू नहीं करनी पड़ेगी। नीतिगत फैसले लिए जा सकेंगे। विकास कार्य प्रभावित नहीं होंगे। नए प्रोजेक्ट्स की घोषणा कम समय के लिए ही रुकेगी।
- सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इससे वे अपने तय काम को सही से पूरा कर पाएंगे।
- एक बार चुनाव होने से कालेधन और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी। क्योंकि चुनाव के दौरान कालेधन का इस्तेमाल खुलेआम होता है।
- बार-बार चुनाव कराने से राजनेताओं और पार्टियों को सामाजिक एकता और शांति को भंग करने का मौका मिल जाता है। बेवजह तनाव का माहौल बनता है।
- भारी चुनावी खर्च में कमी आएगी. बार-बार चुनाव कराने से देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ती है। सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा।
विरोध में दिए जाने वाले तर्क
- भारतीय संविधान में लोकसभा और विधानसभा चुनावों को लेकर पांच साल की अवधि तय है। संविधान की ओर से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर कोई निश्चित प्रावधान का जिक्र नहीं है। तर्क दिया जा रहा है कि एक साथ चुनाव मूल भावना के खिलाफ है।
- लोकसभा और विधान सभाओं का चुनाव एक साथ कराने पर कुछ विधानसभाओं के खिलाफ उनके कार्यकाल को बढ़ाया या घटाया जाएगा, इससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित होगी।
- केंद्र सरकार के पास राज्य सरकारों को आर्टिकल 356 के तहत भंग करने का अधिकार है। इस अधिकार के होते हुए एक साथ चुनाव नहीं कराए जा सकते।
- ऐसे में राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे छोटे हो जाएं या इसका उलटा हो जाएगा। राष्ट्रीय पार्टियों का क्षेत्र विस्तृत होता जाएगा और क्षेत्रीय पार्टियों का दायरा इससे कम होगा।
- एक देश एक चुनाव खुद में महंगी प्रक्रिया है। विधि आयोग की माने तो 4,500 करोड़ रु. के नए ईवीएम 2019 में ही खरीदने पड़ते अगर एक साथ चुनाव होते। 2024 में एक साथ चुनाव कराने के लिए 1751.17 करोड़ सिर्फ ईवीएम पर खर्च करने पड़ेंगे।
इन देशों में है वन नेशन वन इलेक्शन
स्वीडन में पिछले साल सितंबर में आम चुनाव, काउंटी और नगर निगम के चुनाव एक साथ कराए गए थे। इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम भी एक बार चुनाव कराने की प्रक्रिया लागू है।
भारत में कब-कब एक साथ हुए चुनाव
- आज़ादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे। तब लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे। इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी चुनाव एक साथ कराए गए, लेकिन फिर ये सिलसिला टूटा।
- साल 1999 में विधि आयोग ने पहली बार अपनी रिपोर्ट में कहा कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हों। साल 2015 में कानून और न्याय मामलों की संसदीय समिति ने एक साथ चुनाव कराने की सिफ़ारिश की थी।
- मोदी सरकार इस साल हुए लोकसभा चुनाव के साथ हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड के विधानसभा के चुनाव भी कराना चाहती थी लेकिन कहा जाता है कि इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने ही अपनी सहमति नहीं जताई थी। इन राज्यों में बीजेपी की सरकार है और यहां के मुख्यमंत्रियों ने कहा था कि वो समय से पहले अपनी विधानसभा भंग नहीं कर सकते हैं।
सबसे बड़ी चुनौती ‘राजनीतिक सहमति’
7 सितंबर, साल 2016 में इंडियन एक्प्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक यह बताया गया था कि पीएम मोदी का विचार ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ क्यों काम नहीं कर सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देश में एक साथ चुनाव कराने का विचार वांछनीय हो सकता है, लेकिन यह भारत जैसे विशाल और विविध देश में काम नहीं कर सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह संभव नहीं है। उस समय सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार के मुताबिक, सबसे बड़ी चुनौती राजनीतिक सहमति हासिल करना है, जो कि ‘चिंताजनक’ है। संसद की स्थायी रिपोर्ट का हवाला देते हुए आईडीएफसी वेबसाइट पर एक ब्लॉग पोस्ट में, प्रवीण चक्रवर्ती लिखते हैं, ‘77% संभावना है कि भारतीय मतदाता राज्य और केंद्र दोनों के लिए एक ही पार्टी के लिए मतदान करेगा जब एक साथ चुनाव होते हैं।’
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