चित्र : पिथौरागढ़ और नेपाल की सीमा पर लिपुलेख तक जाती सड़क।
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक।
भारत और नेपाल के बीच एक छोटी-सी सड़क को लेकर काफी कहा-सुनी चल पड़ी है। यह सड़क पिथौरागढ़ और नेपाल की सीमा पर है। यह लिपुलेख के कालापानी क्षेत्र से होती हुई सीधी कैलाश-मानसरोवर तक जाती है। इस कच्ची सड़क को पक्की बनाकर इसका उद्घाटन रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कुछ दिन पहले ज्यों ही किया, नेपाल में हड़कंप मच गया।
नेपाल की सत्तारुढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों ने कई भारत-विरोधी प्रदर्शन कर दिए। नेपाली विदेश मंत्रालय ने भारतीय राजदूत को बुलाकर एक कूटनीतिक पत्र थमा दिया और पूछा कि इस नेपाली भूमि पर भारत ने सड़क कैसे बना ली? सत्तारुढ़ पार्टी के सह अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल प्रचंड ने यह भी कह दिया कि भारत इन कूटनीतिक कोशिशों से रास्ते पर नहीं आएगा। नेपाल को आक्रामक कार्रवाई करनी होगी।
प्रधानमंत्री केपी. शर्मा ओली भी कौन से पीछे रहने वाले थे? उन्होंने नेपाल में फैल रहे कोरोना के लिए भारत को जिम्मेदार ठहरा दिया, चीन को नहीं, क्योंकि भारत के सेना-प्रमुख एम.एम. नर्वणे ने एक संगोष्ठी में कह दिया था कि नेपाल किसी अन्य (चीन) के इशारे पर भारत से पंगे ले रहा है। नेपाल के रक्षा मंत्री ईश्वर पोखरेल ने नर्वणे की कड़ी आलोचना भी कर दी है। दूसरे शब्दों में 80 किमी की इस नई सड़क को लेकर एक बार दोनों पड़ौसी देश, जिन्हें मैं भातृराष्ट्र (भाई-देश) कहता हूं, फिर उसी कटुता के जाल में फंस जाएंगे, जो हमने 2015 की नेपाल की घेराबंदी के दौरान देखा था।
क्या है सुगौली संधि
यह विवाद उस 30-35 किमी जमीन का है, जो हमारी 80 किमी की सड़क का हिस्सा है। यह जमीन भारत, नेपाल और तिब्बत के त्रिकोण पर स्थित है। इस कालापानी क्षेत्र को लेकर लंबे समय से भ्रांति बनी हुई है। इस क्षेत्र का इस्तेमाल सैकड़ों वर्षों से तीन देशों के लोग करते रहे हैं। लेकिन 1816 में भारत की ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाली सरकार के बीच सुगौली संधि हुई, जिसमें नेपाल-नरेश ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि काली नदी के पश्चिम के किसी हिस्से पर नेपाल का अधिकार नहीं है। इसी पश्चिम हिस्से में ही वह विवादास्पद सड़क है।
नेपाल के हिस्से में कालीनदी का पूर्वी हिस्सा आता है। लेकिन नेपाल सरकार का अब कहना है कि सुगौली संधि में जिस काली नदी का उल्लेख है, उसमें उसका पश्चिमी हिस्सा भी शामिल है, जिस पर भारत ने अपना अधिकार जमा रखा है। हाल ही में नेपाल सरकार ने अपने हिस्से की जमीन पर सीमा-सुरक्षा चौकियां भी बना दी हैं।
जब नेपाल ने आनन-फानन नक्शे छाप दिए
यह मामला सन 2000 में भी उठा था। नेपाल के प्रधानमंत्री गिरिजाप्रसाद कोइराला ने भारत के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से निवेदन किया था कि इसे बातचीत के द्वारा सुलझा लिया जाए। दोनों देशों की सीमा निर्धारण के लिए 1981 में जो संयुक्त-दल बना था, उसने 98 प्रतिशत सीमा तय कर ली थी। सिर्फ कालापानी और सुस्ता के दो मामले रह गए थे। अब जब कैलाश-मानसरोवर सड़क का उदघाटन हुआ है तो नेपाल ने आनन-फानन नक्शे छाप दिए हैं और उसमें पिथौरागढ़ के क्षेत्रों को अपनी सीमा में दिखा दिया है।
जब सुगौली की संधि हुई थी तो नेपाल के पास नक्शा छापने की कोई व्यवस्था नहीं थी। ब्रिटिश सरकार ने जो नक्शे छापे, वे ही सर्वस्वीकार्य थे। उस समय काली नदी नाम की दो नदियों की बात भी नेपाल की ओर से कही जाती थी। ब्रिटिश नक्शों की मनमानी व्याख्याएं समय-समय पर चलती रहीं।
1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद नेपाल ने इस सड़क पर अपना दावा ठोका था लेकिन वास्तविक रुप से इस क्षेत्र पर भारत का ही अधिकार रहा है। 2015 में जब भारत और चीन ने इस लिपुलेख क्षेत्र से व्यापार-मार्ग चलाने का समझौता किया था, तब भी नेपाल ने चाहे, नरम शब्दों में ही सही, उसका विरोध किया था। नेपाल ने यह प्रस्ताव भी पांच-छह साल पहले रखा था कि दोनों देशों के विदेश सचिव बैठकर इस मामले को हल करें।
नेपाल की आतंरिक राजनीति, मामले को उलझाया
अभी भी नेपाली सरकार का आधिकारिक रुख यही है लेकिन नेपाल की आतंरिक राजनीति इस मामले को उलझाती चली जा रही है। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के सह-प्रधान प्रचंड ने प्रधानमंत्री के.पी. ओली को अपदस्थ करने का अभियान चला रखा है। पहले तो नेपाल की खराब आर्थिक स्थिति को बहाना बनाया जा रहा था, अब उन्हें यह नया हथियार हाथ लग गया है। पड़ौसी देशों में राष्ट्रवाद और देशभक्ति की भावना को भड़काना हो तो उनका सबसे सुगम हथियार है- भारत-विरोध!
भारतीय विदेश मंत्रालय ने साफ-साफ कहा है कि कोरोना-संकट का समय टलते ही इस सीमा-विवाद का हल वह बातचीत के द्वारा करना चाहता है लेकिन भारतीय सेनाध्यक्ष नर्वणे के बयान को जमकर उछाला जा रहा है। कहा जा रहा है कि भारतीय सेना में लगभग 60 हजार नेपाली गोरखा जवान हैं। उन पर नर्वणे के बयान का क्या असर होगा? मेरी राय यह है कि नर्वणे वैसा बयान नहीं देते तो अच्छा होता।
नेपाल की कई पार्टियों के नेताओं से फोन पर मेरी बात हुई। वे अपनी जनता के सामने जो चाहें, सो बोलें लेकिन सबकी राय यह है कि इस मामले को तूल नहीं दिया जाना चाहिए। मैं कहता हूं कि कोरोना के खत्म होने का इंतजार क्यों किया जाए? दोनों देश तुरंत बात क्यों नहीं शुरु करें।
यह है लिपुलेख विवाद का समाधान
नेपाल की पूर्व उप-प्रधानमंत्री सुजाता कोइराला ने एक काफी व्यावहारिक सुझाव दिया है। उन्होंने मुझे बताया कि नेपाल-बांग्लादेश सीमांत पर भारत का जो फुलबाड़ी क्षेत्र है (18 किमी), यदि भारत उसे नेपाल को लीज़ पर दे दे तो बंगाल की खाड़ी तक पहुंचने में जमीन से घिरे नेपाल को अत्यधिक सुविधा हो जाएगी और उस कालापानी क्षेत्र को भारत नेपाल से लीज पर ले ले तो सारा मामला हल हो जाएगा।
नेपाल को यदि हम भाई-देश मानते हैं तो 35 किमी जमीन, जो अब तक हमारी ही है, हम अपने पास रखें और उसके बदले में किसी भी सीमांत पर उससे दुगुनी जमीन उसे भेंट कर दें। इसके अलावा भी कई व्यवहारिक हल हो सकते हैं लेकिन उन्हें जल्दी से जल्दी निकाला जाना चाहिए।
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