मुक्ति वाहिनी के लोगों ने भारतीय सेना के साथ मिलकर बांग्लादेश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए लड़ाई लड़ी थी। चित्र सौजन्य : आउटलुक/रघु राय।
लगभग 6 दशकों पहले 1971 में, भारत के मजबूत इरादों वाले भारत के शानदार सैनिकों, बंगालियों के पूर्ण समर्थन, भारत के एक अटूट राजनीतिक नेतृत्व के कारण पाकिस्तान पर एक प्रसिद्ध जीत हासिल की और बाग्लादेश को मुक्त राष्ट्र बनाने में मदद की।
असम के कई पुलिस अधिकारियों ने युद्ध से पहले मुक्ति वाहिनी (मुक्तिवाहिनी, उन सभी संगठनों का सामूहिक नाम है जिन्होने सन् 1971 में पाकिस्तानी सेना के विरुद्ध संघर्ष करके बांग्लादेश को पाकिस्तान से स्वतंत्र कराया। बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के दौरान मुक्ति वाहिनी का गठन पाकिस्तान सेना के अत्याचार के विरोध में किया गया था।) को गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षित किया।
साल 1971 के मुक्ति संग्राम के एक अधूरे अध्याय में पूर्वोत्तर भारतीय राज्य असम के कुछ अधिकारियों की भूमिका थी, जो बांग्लादेश (1971 तक पूर्वी पाकिस्तान) की सीमा में है। इन अधिकारियों ने पाकिस्तानी सेना का मुकाबला करने के लिए मुक्ति वाहिनी के हजारों स्वतंत्रता सेनानियों को प्रशिक्षित किया।
इनमें दो अधिकारी, ज्ञानानंद सरमा पाठक और बिरजा नंदा चौधरी, जो विशेष सुरक्षा ब्यूरो (एसएसबी) से संबंधित थे, जिन्हें भारत की बाहरी खुफिया एजेंसी, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) का ‘गुरिल्ला विंग’ माना जाता है, ने लिबरेशन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
चौधरी सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश में एक राजनीतिक अधिकारी थे, जहां से उन्हें एक वरिष्ठ प्रशिक्षक के रूप में एसएसबी में सेवा देने के लिए प्रतिनियुक्त किया गया था। उन्होंने महाराष्ट्र के महाबलेश्वर में विध्वंस रणनीति पर व्यापक प्रशिक्षण प्राप्त किया था। जब रॉ ने ‘मुक्ति वाहिनी’ के पदाधिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिए
पाठक, भारतीय पुलिस सेवा के असम कैडर से एक उप-महानिरीक्षक थे और भारत के पूर्वोत्तर के सीमावर्ती क्षेत्रों में एसएसबी के संचालन का प्रबंधन करने के लिए लिबरेशन वॉर से दो साल पहले एसएसबी में प्रतिनियुक्त थे। एसएसबी की प्राथमिक भूमिका चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को ‘भारत में घुसपैठ करने से रोकना और भारत-चीन सीमा पर रहने वाले स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित करना था।’
ज्ञानानंद सरमा पाठक और बिरजा नंदा चौधरी को दायित्व दिया था। ज्यादातर भारतीय सेना द्वारा ऑपरेशन जैकपॉट नामक एक अभ्यास में किया था। संगठन के वरिष्ठ अधिकारियों ने चर्चा की और बाद असम में तेजपुर के पास 27 एसएसबी बटालियन की सलोनीबाड़ी स्थापना में मॉड्यूल को ठीक किया गया था। उन्होंने बिना देर किए लोअर हाफलोंग में मुक्ति वाहिनी के पदाधिकारियों का प्रशिक्षण शुरू करने का फैसला किया।
पाठक के बेटे विजयंत जो वर्तमान में द असम ट्रिब्यून के मुख्य उप-संपादक हैं, वह बताते हैं कि निचला हाफलोंग असम के दीमा हसाओ जिले में पहाड़ी इलाके का एक खंड है। यह भारत-बांग्लादेश सीमा से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और इसे मुक्ति वाहिनी के प्रशिक्षण के लिए एक आदर्श स्थान माना जाता था।
विजयंत के अनुसार, ‘कई बैचों में केंद्र में लगभग 10,000 कार्यकर्ताओं ने प्रशिक्षण लिया। पाठ्यक्रम संक्षिप्त था और लगभग दो महीने तक चला जिसके बाद उन्हें पूर्वी पाकिस्तान में घुसपैठ कर दिया गया। कुछ अवसरों पर, एसएसबी कर्मियों ने प्रशिक्षित लड़ाकों के साथ बांग्लादेश में सीमा पार की, उनमें से कई कभी घर नहीं लौटे।’
25 मार्च 1971 को, पाकिस्तानी सेना ने एक क्रूर कार्रवाई शुरू की। इसके तुरंत बाद मुक्ति वाहिनी का उदय हुआ। कुछ महीनों के भीतर, यह बांग्लादेश की अस्थायी सरकार के प्रति निष्ठा के कारण सशस्त्र और प्रशिक्षित पुरुषों के एक विशाल संगठन के रूप में विकसित हो गया था।
मुक्ति वाहिनी में दो डिवीजन शामिल थे, ‘नियोमितो वाहिनी (नियमित सेना)’ और ‘गानो वाहिनी (लोगों की सेना)’। नियोमितो वाहिनी को स्वाधीन बांग्ला रेजिमेंट और मुक्ति फौज (सेक्टर सैनिकों) में विभाजित किया गया था। आत्मघाती दस्ते, बिच्छू दस्ते, और तूफान बहिनी (तूफान सेना) गानो बहिनी के तीन बिंदु थे।
नवंबर के अंत तक, भारत द्वारा प्रशिक्षित 50,000 अनियमित और गुरिल्लाओं के अलावा, मुक्ति वाहिनी की ताकत लगभग 70,000 तक बढ़ गई थी, जो नियमित सैनिकों के दो पूर्ण डिवीजनों से थोड़ा अधिक था। इसके अलावा, मुजीब बाहिनी भी थी, जो 10,000 की एक स्वतंत्र सेना थी, जो आवामी लीग के छात्र विंग के प्रति निष्ठा रखने वाले छात्रों से बनी थी।
ऑपरेशन जैकपॉट के तहत, मुक्ति वाहिनी के पदाधिकारियों को भारतीय सेना द्वारा पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, त्रिपुरा और मेघालय राज्यों में विभिन्न स्थानों पर चार से छह सप्ताह तक प्रशिक्षित किया गया था। बांग्लादेश के अंदर भी गुरिल्ला ठिकाने बनाए गए, जहां उन्हें आश्रय, भोजन, दवाएं और संचालन के बारे में जानकारी प्रदान की गई।
रीता चौधरी, एक प्रसिद्ध लेखिका और ब्रज नंद चौधरी की बेटी हैं वो बताती हैं, ‘लोअर हाफलोंग में प्रशिक्षण सत्र संपूर्ण थे और पूरे दिन और कभी-कभी सूर्यास्त के बाद चलते थे। पाठ्यक्रम में हथियार प्रशिक्षण, घात लगाकर हमला करना, कमांडो प्रशिक्षण, जासूसी और वायरलेस संचार में प्रशिक्षण शामिल था। रीता बताती हैं कि, उन्होंने अपने पिता और एसएसबी-मुक्ति वाहिनी के एक संयुक्त दस्ते के साथ पूर्वी पाकिस्तान में उस स्थान पर सीमा पार की, जहां स्वतंत्रता सेनानियों के लिए बंकर बनाए गए थे।
वरिष्ठ पत्रकार राजीव भट्टाचार्य कहते हैं कि पाठक और चौधरी के अलावा, असम के अन्य पुलिस अधिकारी मुक्ति वाहिनी के प्रशिक्षण में थे। डी.एन. सोनोवाल और हिरण्य कुमार भट्टाचार्य, दोनों भारतीय पुलिस सेवा से संबंधित थे, ऑपरेशन में विभिन्न क्षमताओं में शामिल थे।
जब प्रशिक्षण सत्र आयोजित किया गया था तब सोनोवाल सलोनीबाड़ी में प्रतिनियुक्ति पर एसएसबी में सेवारत थे। 2013 में, हिरण्य कुमार भट्टाचार्य को बांग्लादेश में आमंत्रित किया गया था और निकट युद्ध की रणनीति में मुक्ति वाहिनी के एक बैच को प्रशिक्षित करने में उनकी भूमिका के लिए ‘युद्ध मुक्ति सम्मान’ से सम्मानित किया गया था।
नोट : बांग्लादेश का स्वतंत्रता संग्राम 1971 में हुआ था, इसे ‘मुक्ति संग्राम’ भी कहते हैं। यह युद्ध वर्ष 25 मार्च, 1971 से 16 दिसंबर, 1971 तक जारा था। इस रक्तरंजित युद्ध के जरिए बांलादेश ने पाकिस्तान से स्वाधीनता प्राप्त की। इस तरह 16 दिसम्बर सन् 1971 को बांग्लादेश बना था।
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