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कूटनीति : यूक्रेन की उलझती गुत्थी पर क्या है भारत का रुख़

  • हर्ष वी. पंत।

यूक्रेन को लेकर रूस और पश्चिम के बीच खींचतान जारी है। पश्चिम, जितना अधिक रूस को अलग-थलग करेगा, मॉस्को और बीजिंग की नजदीकी उतनी बढ़ती चली जाएगी। यह शीत युद्ध के दौर के भू-राजनीतिक तनाव की याद दिला रहा है। हालांकि, बड़ी ताकतें जहां यूक्रेन के भविष्य को लेकर उलझी हुई हैं, वहीं यूक्रेनवासियों की आवाज बिल्कुल किनारे कर दी गई है।

बहरहाल, यूक्रेन जंग का एक ऐसा मैदान बन गया है, जो आने वाले दिनों में यूरोप के सुरक्षात्मक ढांचे को आकार दे सकता है। इसीलिए, पश्चिम और रूस के बीच तनाव महज यूक्रेन के भविष्य को लेकर नहीं है, बल्कि इससे निहितार्थ कहीं अधिक गहरे हैं, क्योंकि इससे शीत युद्ध के बाद की पूरी भू-राजनीतिक संरचना ढहती दिख रही है।

वाशिंगटन ने दावा किया है कि यूक्रेन पर हमला करने के लिए जरूरी सैन्य-संसाधन का 70 फीसदी साजो-सामान रूस ने सीमा पर तैनात कर दिया है। उसने यह भी चेतावनी दी है कि रूसी हमले की सूरत में 50 हजार से अधिक नागरिक और 25 हजार के करीब यूक्रेनी सैनिक मारे जा सकते हैं। रूस ने इस दावे को ‘उन्माद और खौफ फैलाने वाला’ बताया और इसे पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया है. यूक्रेन भी सीमा पर रूसी सैन्य ढांचे के निर्माण को तवज्जों नहीं दे रहा।

राष्ट्रपति वलोडिमिर जेलेंस्की ने अपने देशवासियों से कहा है, ‘वे तबाही की आशंकाओं पर विश्वास न करें। यूक्रेन किसी भी तरह के घटनाक्रम के लिए तैयार है। आज यूक्रेन के पास एक मजबूत सेना और अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय समर्थन है। यूक्रेनवासी भी अपने देश पर पूरा विश्वास करते हैं। दुश्मन को हमसे डरना चाहिए, न कि हमें उससे।’

कूटनीतिक प्रयास जारी

हालांकि, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज की मदद से परदे के पीछे से कूटनीतिक प्रयास भी जारी हैं। मैक्रों जहां मॉस्को और कीव का दौरा कर चुके हैं, वहीं शोल्ज अगले हफ्ते दोनों देशों की यात्रा करेंगे। यूरोप में यही मान्यता है कि यूक्रेन-रूस जंग से बचा जा सकता है। मैक्रों ने यूरोपीय देशों की सुरक्षा और रूस को संतुष्ट करने के लिए ‘नए संतुलन’ का आह्वान किया है।

ऐसा करते हुए उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि रूस का अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित होना लाजिमी है। फ्रांस पिछले कुछ समय से रूस के साथ यूरोप के संबंधों को नए सिरे से गढ़ने की वकालत कर रहा है और यूरोपीय संघ से कह रहा है कि वह वाशिंगटन के चश्मे से मॉस्को को न देखे। मगर नाटो की मुख्यत: अमेरिका पर निर्भरता और आगामी रुख को लेकर यूरोपीय संघ के अंदरूनी मतभेदों के कारण ब्रसेल्स (यूरोपीय संघ का मुख्यालय) सिर्फ कूटनीतिक तरीकों से ही जमीनी हालात को प्रभावित कर सकता है।

दूसरी ओर, चीन के साथ रूस के रिश्ते लगातार मज़बूत हो रहे हैं, और दोनों देश पश्चिम से मुकाबला करने के लिए अपनी साझेदारी को आगे बढ़ा रहे हैं। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन शीतकालीन ओलंपिक में भाग लेने के लिए बीजिंग भी पहुंचे, और पिछले दो वर्षों में पहली बार किसी ताक़तवर देश के राष्ट्राध्यक्ष के साथ चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की निजी मुलाकात हुई।

अपनी यात्रा के दौरान, दोनों नेताओं ने एक साझा बयान भी जारी किया, जिसमें उनके द्विपक्षीय संबंधों का विस्तार से वर्णन था। बयान में कहा गया, ‘(रूस और चीन) की आपसी दोस्ती की कोई सीमा नहीं है। सहयोग का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, जो ‘वर्जित’ हो।’ साझा बयान में नाटो को घेरा गया कि वह शीत युद्ध की सोच को आगे बढ़ा रहा है, और ‘ऑक्स’ (ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका का समूह) पर भी चिंता जताई गई। इसके अलावा, माॉस्को ने बीजिंग की ‘एक चीन नीति’ का भी समर्थन किया, क्योंकि उसने ‘ताइवान की आजादी के किसी भी रूप का विरोध’ किया।

आर्थिक रिश्ते को बढ़ाने के साथ-साथ रूस और चीन ने गैस सौदे की भी जानकारी बयान में दी, जिसके तहत चीन को अब गैजप्रोम हर साल 38 अरब क्यूबिक मीटर के बजाय 48 अरब क्यूबिक मीटर गैस देगी। हालांकि, इसमें यूक्रेन का कोई ज़िक्र नहीं था, लेकिन दोनों देशों का इरादा स्पष्ट था कि रूस और चीन बाहरी ताकतों के उन प्रयासों के ख़िलाफ हैं, जिसके जरिये वे साझा निकटवर्ती इलाकों की सुरक्षा और स्थिरता को कमजोर करने की जुगत में हैं। इतना ही नहीं, संप्रभु राष्ट्रों में बाहरी ताकतों की किसी भी तरह की दखलंदाजी के भी वे ख़िलाफ हैं, सत्ता विरोधी आंदोलनों का वे विरोध करते हैं और कई क्षेत्रों में वे आपसी सहयोग बढ़ाएंगे।

बहरहाल, यूक्रेन में 2014 के क्रीमिया संकट के दौरान देखा गया था कि बीजिंग ने मॉस्को को आर्थिक और कूटनीतिक सहयोग की पेशकश की थी, क्योंकि रूस को अलग-थलग करने के लिए पश्चिम एकजुट हो गया था। रूस के लिए न केवल पश्चिमी दबाव का समाधान निकालने के लिए, बल्कि अपनी वैश्विक ताकत को बरकरार रखने के लिए भी चीन का समर्थन महत्वपूर्ण है।

पश्चिम जितना अधिक रूस को अलग-थलग करेगा, मॉस्को और बीजिंग की नजदीकी उतनी बढ़ती चली जाएगी। वैश्विक वर्चस्व की इस राजनीति के बेशक अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन भारत जैसे देशों के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। नई दिल्ली ने अब तक अपने रुख में संतुलन बनाए रखने की ही कोशिश की है, लेकिन अगर तनाव बढ़ता है, तब यह संतुलन कितना टिक सकेगा, इसका अभी ठीक-ठीक जवाब नहीं दिया जा सकता।

समाधान खोजने में भारत की रुचि

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में यूक्रेन पर चर्चा करने के लिए हुए प्रक्रियागत वोट से भारत ने दूरी बरती थी। तर्क दिया गया था कि ‘भारत की रुचि ऐसा समाधान खोजने में है, जो तनाव को तत्काल कम कर सके। यह समाधान सभी देशों के सुरक्षा हितों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाए और दीर्घकालिक शांति व स्थिरता सुनिश्चित करे।’

भले ही, नई दिल्ली इस तनाव को कम करने की दिशा में जमीनी स्तर पर बहुत कुछ नहीं कर सकती, लेकिन इस संकट का अंतिम परिणाम निश्चित तौर पर भारतीय हितों को प्रभावित करेगा, इसलिए उसका सावधानी से मूल्यांकन अनिवार्य है। बीजिंग अब भी नई दिल्ली के लिए सबसे बड़ी रणनीतिक चुनौती है, और रूस व पश्चिम के तनाव के साथ-साथ रूस व चीन की बढ़ती नजदीकी आने वाले समय में भारतीय हितों को चोट पहुंचा सकती है। इसलिए, भारत इस मसले की अनदेखी ज्यादा दिनों तक नहीं कर सकता।

This article first appeared on Observer Research Foundation.

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