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तालिबान : वो सवाल, जो भारत-पाक का ‘कश्मीर मामला’ कर सकता है हल

चित्र : श्रीनगर स्थित लाल चौक।

  • डॉ. वेदप्रताप वैदिक। लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।

पिछले ढाई महिने से भारत की विदेश नीति बगले झांक रही थी। अब वह धीरे-धीरे पटरी पर आने लगी है। जब से तालिबान काबुल में काबिज हुए हैं, अफगानिस्तान के सारे पड़ौसी देश और तीनों महाशक्तियां निरंतर सक्रिय हैं। वे कुछ न कुछ कदम उठा रही हैं लेकिन भारत की नीति शुद्ध पिछलग्गूपन की रही है।

हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर कहते रहे कि हमारी विदेश नीति है, ‘बैठे रहो और देखते रहो की! मैं कहता रहा कि यह नीति है ‘लेटो रहो और देखते रहो की’। चलो, कोई बात नहीं। देर आयद, दुरुस्त आयद! अब भारत सरकार ने नवंबर में अफगानिस्तान के सवाल पर एक बैठक करने की घोषणा की है। इसके लिए उसने पाकिस्तान, ईरान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, चीन और रूस के सुरक्षा सलाहकारों को आमंत्रित किया है।

इस निमंत्रण पर मेरे दो सवाल हैं। पहला, यह कि सिर्फ सुरक्षा सलाहकारों को क्यों बुलाया जा रहा है? उनके विदेश मंत्रियों को क्यों नहीं? हमारे सुरक्षा सलाहकार की हैसियत तो भारत के उप-प्रधानमंत्री जैसी है लेकिन बाकी सभी देशों में उनका महत्व उतना ही है, जितना किसी अन्य नौकरशाह का होता है।
हमारे विदेश मंत्री भी मूलतः नौकरशाह ही हैं। नौकरशाह फैसले नहीं करते हैं। ये काम नेताओं का है। नौकरशाहों का काम फैसलों को लागू करना है। दूसरा सवाल यह है कि जब चीन और रूस को बुलाया जा रहा है तो अमेरिका को भारत ने क्यों नहीं बुलाया? इस समय अफगान-संकट के मूल में तो अमेरिका ही है।

क्या अमेरिका को इसलिए नहीं बुलाया जा रहा है कि भारत ही उसका प्रवक्ता बन गया है? अमेरिकी हितों की रक्षा का ठेका कहीं भारत ने तो ही नहीं ले लिया है? यदि ऐसा है तो यह कदम भारत के स्वतंत्र अस्तित्व और उसकी संप्रभुता को ठेस पहुंचा सकता है। पता नहीं, पाकिस्तान हमारा निमंत्रण स्वीकार करेगा या नहीं? यदि पाकिस्तान आता है तो इससे ज्यादा खुशी की कोई बात नहीं है।

तालिबान के काबुल में सत्तारुढ़ होते ही मैंने लिखा था कि भारत को पाकिस्तान से बात करके कोई संयुक्त पहल करनी चाहिए। काबुल में यदि अस्थिरता और अराजकता बढ़ेगी तो उसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव पाकिस्तान और भारत पर ही होगा। दोनों देशों का दर्द समान होगा तो ये दोनों देश मिलकर उसकी दवा भी समान क्यों न करें?

    यदि तालिबान के सवाल पर दोनों देश सहयोग करें तो कश्मीर का हल तो अपने आप निकल आएगा। इस समय अफगानिस्तान को सबसे ज्यादा जरुरत खाद्यान्न की है। भुखमरी का दौर वहां शुरु हो गया है। यूरोपीय देश गैर-तालिबान संस्थाओं के जरिए मदद पहुंचा रहे हैं लेकिन भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा हुआ है।

    इस वक्त यदि वह अफगान जनता की खुद मदद करे और इस काम में सभी देशों की अगुवाई करे तो तालिबान भी उसके शुक्रगुजार हो जाएंगे और अफगान जनता तो पहले से उसकी आभारी है ही। विभिन्न देशों के सुरक्षा सलाहकारों की बैठक में भारत क्या-क्या मुद्दे उठाए और उनकी समग्र रणनीति क्या हो, इस पर अभी से हमारे विचारों में स्पष्टता होनी जरुरी है।

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