- डॉ. वेदप्रताप वैदिक।
नई शिक्षा नीति में मातृभाषाओं को जो महत्व दिया गया है, उसमें भी मुझे चार व्यावहारिक कठिनाइयां दिखाई पड़ रही हैं। पहली, यदि छठी कक्षा तक बच्चे मातृभाषा में पढ़ेंगे तो सातवीं कक्षा में वे अंग्रेजी के माध्यम से कैसे निपटेंगे? दूसरी, अखिल भारतीय नौकरियों के कर्मचारियों के बच्चे उनके माता-पिता का तबादला होने पर वे क्या करेंगे?
प्रांत बदलने पर उनकी पढ़ाई का माध्यम भी बदलना होगा। यदि उनकी मातृभाषा में पढ़नेवाले 5-10 छात्र भी नहीं होंगे तो उनकी पढ़ाई का माध्यम क्या होगा? तीसरी, क्या उनकी आगे की पढ़ाई उनकी मातृभाषा में होगी? क्या वे बी.ए., एम.ए. और पीएच.डी. अपनी भाषा में कर सकेंगे? क्या उसका कोई इंतजाम इस नई शिक्षा नीति में है?
चौथी बात, जो सबसे महत्वपूर्ण है। वह यह है क्या ऊंची सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियां भारतीय भाषाओं के माध्यम से मिल सकेंगी? क्या भर्ती के लिए अंग्रेजी अनिवार्य होगी? यदि हां, तो माध्यम का यह अधूरा बदलाव क्या निरर्थक सिद्ध नहीं होगा?
यानी पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा या राष्ट्रभाषा हो और नौकरी का, रुतबे का, वर्चस्व का माध्यम अंग्रेजी हो तो लोग अपने बच्चों को मातृभाषा, प्रादेशिक भाषा या राष्ट्रभाषा में क्यों पढ़ाएंगे? वे अपने बच्चों को कान्वेन्ट में भेजेंगे। कई राज्य अपनीवाली चलाएंगे।
वे कहेंगे कि शिक्षा तो संविधान की समवर्ती सूची में है। हम अपने बच्चों को नौकरियों, बड़े ओहदों और माल-मत्तों से वंचित क्यों करेंगे? हमारे देश में आज भी लगभग 50 प्रतिशत बच्चों को लोग निजी स्कूलों में क्यों पढ़ाते हैं? शिक्षा की ये मोटी-मोटी दुकानें क्यों फल-फूल रही हैं? ये स्कूल लूट-पाट के अड्डे क्यों बने हुए हैं?
क्योंकि ऊंची जातियों, शहरियों और मालदारों के बच्चे इन स्कूलों की सीढ़ियों पर चढ़कर शासक-वर्ग में शामिल हो जाते हैं। देश के 80-90 प्रतिशत लोगों को अवसरों की समानता से ये स्कूल ही वंचित करते हैं। लोकतंत्र को इस मुट्ठीतंत्र से मुक्ति दिलाने में क्या यह नई शिक्षा नीति कुछ कारगर होगी?
मुझे शक है। इस नीति में मुझे एक खतरा और भी लग रहा है। यह विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में जमने की भी छूट दे रही है। ये विश्वविद्यालय हमारे विश्वविद्यालयों में क्या हीनता-ग्रंथि पैदा नहीं करेंगे? क्या ये अंग्रेजी के वर्चस्व को नहीं बढ़ाएंगे? क्या ये देश में एक नए श्रेष्ठि वर्ग को जन्म नहीं देंगे?
मैं अफगानिस्तान, ब्रिटेन, सोवियत रुस और अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में अपनी पीएच.डी. के लिए पढ़ता और शोध करता रहा हूं और कई अन्य देशों में पढ़ाता भी रहा हूं लेकिन मैंने हमेशा महसूस किया कि यदि उन राष्ट्रों की तरह हम भी अपने उच्चतम शिक्षा, शोध और नौकरियों का माध्यम स्वभाषा ही रखें तो भारत भी शीघ्र ही महाशक्ति बन सकता है।
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