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बुक रिव्यू : ‘मीडिया और भारतीय चुनाव प्रक्रिया’

भारत में चुनाव प्रक्रिया जटिल और चुनौतीपूर्ण है। ऐसे में मीडिया के नजरिए से चुनाव में क्या चुनौतियां होती हैं यदि आप ये जानना चाहते हैं तो ‘मीडिया और भारतीय चुनाव प्रक्रिया’ किताब आपके लिए ही है।

प्रोफेसर संजय द्विवेदी द्वारा संपादित इस किताब को दिल्ली स्थित यश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने प्रकाशित किया है। किताब में 23 आलेख हैं। शब्दों के ताना-बाना से संपादित की गई यह किताब चुनाव से जुड़े हर उस पहलू की ओर इंगित करती है, जो आज हर उस व्यक्ति को जानना चाहिए जो भारतीय लोकतंत्र में स्वतंत्र नागरिक है।

जब आप किताब की भूमिका पढ़ते हैं, तब आपके सामने वो मुद्दे होंगे जो आप जानते हैं लेकिन वो कितने गंभीर है, इस बात से संपादकीय आलेख में रू-ब-रू होंगे। यहां कई बातें ऐसी भी होंगी जो आम मतदाता भले ही ना जाने लेकिन मीडिया इन मुद्दों के बारे में हर समय इंगित कर रही होती है। यहां नेताओं के एजेंडे मिलेगें तो चुनावी रिपोर्टिंग के वो किस्से जो आज के राष्ट्रीय अखबारों के संपादकों के बीते किस्से हैं, जो उनके अनुभव से पत्रकारिता कर रहे विद्यार्थियों और पत्रकारों को पथप्रदर्शित करते हैं।

किताब में प्रकाशित एक आलेख में वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर लिखते हैं कि किस तरह कैम्ब्रिज एनालिटिका के मायाजाल ने चुनावी प्रणाली को ध्वस्त किया और अमेरिका के चुनाव को प्रभावित किया। यह पूरा किस्सा सारगर्भित शब्दों में आप यहां पढ़ सकते हैं। 80 और 90 के दशक में मीडिया के सामने चुनाव के दौरान क्या चुनौतियां होती थीं ये बात वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश दुबे समय और शब्दों को मोती की तरह पिरोते हुए धाराप्रवाही तरह से लिखते हैं, जिसे पढ़ना जितना रोचक है उतना ही जानकारियों से भरा हुआ। ठीक इसी तरह मूल्यानुगत मीडिया के संपादक प्रो.कमल दीक्षित का लेख इस बात की ओर इंगित करता है कि पहले का मीडिया किस तरह राजनीतिक दल के प्रलोभन में ना आते हुए जिम्मेदारी से काम करता था, ये वो दौर था जब पत्रकार अपने मूल्यों से समझौता नहीं करता था। हालाकि समय के साथ सब कुछ बदलता चला गया।

भारतीय चुनाव और मीडिया विषय पर लिखी गई इस किताब में मौजूद आलेख शीर्षक के अनुरूप ही परिपक्व है। यहां आपको वो रोचक किस्से भी पढ़ने को मिलेंगे। आप यहां पढ़ सकेंगे कि किस तरह अंग्रेजी के एक बड़े अखबार ने राजीव गांधी के एक अहम घोटाले की तह तक जाने के लिए अपने संवाददातों को विदेशों तक भेजा था। जब यह किताब आप पढ़ना शुरू करते हैं तो यह अपने अंत तक आपको बांधे रखती है। यहां मौजूद आलेख में समय और परिस्थितियां भले ही बदलती रहें लेकिन आलेख का शीर्षक आपको प्रतिबिंब बनकर आलेख में मौजूद बातों की गहराई के बारे में बताता है। यहां आप पेड न्यूज और फेक न्यूज जैसी समस्याओं और उनके समाधान के बारे में पढ़ेंगे।

महात्मा गांधी ने कहा था, ‘पत्रकारिता का सच्चा कार्य जनता के दिमाग को शिक्षित करना है, न कि इच्छित और आवंछित छापों के साथ इसे प्रभावित करना।’ गांधी की जी ये बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी पहले थी। कहने का आशय यह है कि ‘लोक’ इस ‘तंत्र’ में जितना अधित सूचित होगा लोकतंत्र उतना ही अधिक मजबूत होगा। इस बात को विस्तार रूप में आप इस किताब के उन सभी आलेख में पढ़ेंगे जो आपको भारत में चुनाव और मीडिया की भूमिका को स्पष्ट करेगा। भारत ही नहीं दुनियाभर में निर्वाचन और लोकतंत्र की क्या भूमिका रही है यह भी यहां मौजूद है।

क्यों पढ़नी चाहिए यह किताब: यदि आप भारत में चुनाव के दौरान मीडिया की क्या भूमिका होती है और होना चाहिए इस बारे में बहुत ही सटीक शब्दों में जानना चाहते हैं। तो ये किताब आपको बताएगी की आप किस तरह अपने इस प्रश्न का उत्तर यहां पढ़कर खुद को अगले प्रश्न के लिए तैयार कर सकते हैं। 155 पन्नों की यह किताब बहुत ही संक्षिप्त, सारगर्भित और सरल शब्दों के तालमेल में संपादित की गई है। यहां लेखकों के आलेख किताब के शीर्षक को बेहतर तरह से प्रस्तुत करते हैं।

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