- रविकांत द्विवेदी, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और सामाजिक मुद्दों पर लिखते हैं।
अब तक: हम ओडिशा के दारिंगबाड़ी इलाके के सुगापाड़ा गांव पहुंचे जहां हमने ‘कोइ’ जनजाति की महिलाओं से बात की जो माहवारी ‘सैनिटरी’ पैड का खर्च भी नहीं उठा सकतीं। (रिपोर्ट का पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें) अब आगे…
सवाल ये है कि आखिर ऐसी मानसिकता क्यों है, क्या ये कोई बीमारी है, आपने कोई अपराध किया है या फिर आप इससे और इससे जुड़े विषय से खुद को असहज महसूस करते/करती हैं। सही मायने में लोगों को आज भी पता नहीं है कि माहवारी क्या होती है, इसे कैसे हैंडल करना होता है। इसमें लापरवाही के दुष्परिणाम क्या-क्या होते हैं या हो सकते हैं।
‘महाराष्ट्र के बीड़ के चल रहे शूगर फार्म्स में आज भी ऐसी महिलाएं काम नहीं कर पाती जो माहवारी के दिनों में होती हैं। महिलाओं को नौकरी नहीं मिलती जब वो उन दिनो में हों या फिर मासिक धर्म में उनकी चार-पांच दिन काम से छुट्टी लेने के कारण मजदूरी पर असर पड़ता है।’
– डॉ. शिवानी, स्त्री रोग/प्रजनन विशेषज्ञ
शिवानी के अनुसार भारत में अगर फ्री में सैनिटरी पैड की पहुंच हो तो महिलाएं उन दिनो में परेशान नहीं होंगी। इसके लिए सरकार को आगे आना होगा और जमीनी स्तर पर काम करना होगा। इसके विकल्प के रुप में अगर कपड़े की पहुंच हो तो, इस सवाल पर शिवानी कहती हैं कि ये भी एक विकल्प हो सकता है। इसे लेकर लोगों की मानसिकता कैसे बदले इस बात पर शिवानी कहती हैं कि इसके लिए सामाजिक तौर पर जागरुकता लाने की जरुरत है।
सवाल ये है कि क्या फ्री में सैनिटरी पैड दे देने भर से कहानी खत्म हो जाएगी? क्या इसके बारे में सरकार, नीतियां बनाने वाले लोग, राजनेता और बड़े लुभावने वादे जिम्मेदार हैं या फिर जमीनी स्तर पर काम करने की इच्छाशक्ति जिम्मेदार है? कपड़े के सैनिटरी पैड पर करीब दो दशकों से काम कर रही सामाजिक संस्था गूंज से हमने इसे और बारीकी से समझने की कोशिश की।
‘माहवारी को लेकर आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में बहुत सारी गलत धारणाएं हैं जिन्हें तोड़ना बेहद जरुरी है। आखिर ऐसा क्यों होता है कि हमारे देश में माहवारी के दिनो में महिलाएं मंदिर में नहीं जा सकती, लोगों की परेशानी महिलाएं नहीं बल्कि माहवारी के दिनो की महिलाएं हैं, जो कि सही मायने में ठीक नहीं है। ऐसी कौन सी वजह है कि यहां पर महिलाओं के छूने से अचार खराब हो जाता है जबकि विदेश में उसी महिला के छूने से अचार खराब नहीं होता। ये लोगों की सिर्फ संकीर्ण मानसिकता है और कुछ नहीं। ऐसे में मानसिकता को बदलना बेहद जरुरी है।’
– अंशु गुप्ता, गूंज के संस्थापक और रमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता
एक उदाहरण के जरिए अंशु समझाने की कोशिश करते हैं कि परिवार नियोजन के लिए बहुत सारे प्रयास किए गए जिसमें फ्री में कंडोम बांटना प्रमुख रहा, लेकिन इससे कितना फर्क पड़ा आप बेहतर जानते हैं, ऐसे में केवल फ्री में कुछ कर देने भर से हालात बेहतर व परिवर्तित नहीं होते बल्कि इसके लिए मानसिकता पर चोट करना पहला प्राथमिकता होनी चाहिए और इसी बात का ध्यान रखते हुए गूंज समय समय पर चुप्पी तोड़ो बैठक के माध्यम से देश के कोने-कोने में महिलाओं से खुलकर बात करता है।
इन बैठकों के जरिए गूंज की कोशिश होती है कि माहवारी और उससे जुड़ी साफ-सफाई के बारे में उन्हें बहुत अच्छे तरीके से जागरुक किया जा सके और इसे लेकर लोगों के मिथक को भी जड़ से खत्म किया जा सके।
हालही में अक्षय कुमार की फिल्म पैडमैन से थोड़ी बहुत जागरुकता बढ़ी है, लोग इस विषय पर अब बात कर रहें हैं। अलग-अलग संगठन व आम लोग अब थोड़ा सहज होने लगे हैं, लेकिन क्या इतना भर ही काफी होगा? क्या थोड़ा बहुत सोच और बात कर लेने से क्या हमारी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है।
ऐसे बहुत सारे अनगिनत सवाल हैं जो इसके इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। क्या हम मासिक धर्म के ट्रिपल A यानी (Access, Affordability and Awareness) लोगों के बीच इसकी जागरूकता, इसकी पहुंच और इसके सस्ते होने को एक जरिया बना सकते हैं। सोचने की जरुरत है।
इन्हीं बातों को मद्देनजर रखते हुए ‘शर्म की परत और शर्मिंदगी को जड़ से मिटाने की’ दिल्ली के IIMC में 21 मई, 2019 को स्वयंसेवी संस्था गूंज की ओर से माहवारी के अनछुए पहलुओं पर एक डिबेट का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें इससे जुड़े हर बिंदुओं पर खुलकर बातचीत होगी।
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