कोरोना वैक्सीन के साथ, नया साल उम्मीद लेकर आया, लेकिन कई ओर चुनौतियां दुनिया के तमाम देशों के सामने हैं। म्यांमार में बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम सामने आया। यह देश, भारत का पड़ोसी देश है। वहां सेना ने तख्ता-पलट कर दिया और एक साल के लिए आपातकाल की घोषणा की, अब सत्ता सेना के नियंत्रण में है।
म्यांमार की स्टेट काउंसलर (प्रधानमंत्री) आंग सान सू की और राष्ट्रपति यू विन मिंट समेत कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है। देश के पहले उप राष्ट्रपति और रिटायर्ड सैन्य अधिकारी माइंट स्वे को म्यांमार का कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया है। कार्यवाहक राष्ट्रपति के दस्तखत वाली एक घोषणा के मुताबिक देश की सत्ता अब ‘कमांडर-इन-चीफ ऑफ डिफेंस सर्विसेस’ मिन आंग ह्लाइंग के नियंत्रण में रहेगी। जनरल मिन आंग लाइंग ही अब विधायिका, प्रशासन और न्यायपालिका की जिम्मेदारी संभालेंगे।
सेना की ओर से कहा गया है कि उसने यह फैसला इसलिए लिया क्योंकि देश की स्थिरता खतरे में थी। म्यांमार मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक सेना के इस फैसले के बाद देश में किसी भी विरोध को कुचलने के लिए सड़कों पर सेना की तैनाती कर दी गई है और फोन लाइनों, कई जगहों पर इंटरनेट को बंद कर दिया गया है।
म्यांमार में ऐसा क्यों हुआ?
म्यांमार में आंग सान सू की की पार्टी ने दो तिहाई से ज्यादा सीटों से जीत हासिल की थी, लेकिन फिर भी उनकी सरकार सेना के हस्तक्षेप को खत्म करने के लिए कानून में अपने मुताबिक बदलाव नहीं कर सकी। दरअसल, सेना द्वारा लागू किए गए संविधान के मुताबिक कानून में बदलाव के लिए 75 फीसदी सांसदों की सहमति जरूरी है लेकिन, इतना समर्थन जुटा पाना नई सरकार के लिए संभव नहीं है क्योंकि संसद में 25 फीसदी सीटें सेना के लिए पहले से रिजर्व हैं (इसके चलते साधारण बहुमत हासिल करने के लिए भी एनएलडी को बची हुई सीटों में से दो तिहाई से ज्यादा सीटें जीतने की जरूरत थी)। साथ ही बीते आम चुनाव में सेना समर्थित पार्टी यूएसडीपी ने भी कुछ सीटें जीती हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि जब म्यांमार की सेना को अपनी स्थिति को लेकर कोई खतरा नहीं है तो फिर उसने तख्ता पलट क्यों किया? कुछ जानकार वर्तमान सेना प्रमुख मिन आंग ह्लाइंग की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को तख्ता पलट के पीछे की प्रमुख वजह मानते हैं, उनके मुताबिक मिन इस साल तीन जुलाई को 65 साल के हो जाएंगे और इस दिन उन्हें रिटायर होना पड़ेगा। वे 2016 में ही रिटायर होने वाले थे, लेकिन तब उन्होंने अपना कार्यकाल पांच साल आगे बढ़वा लिया था।
साल 2016 के बाद मिन आंग ह्लाइंग ने जिस तरह के कदम उठाए, उनसे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा साफ़ झलकती है। उन्होंने रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ बड़ी कार्रवाई की और इस समुदाय के 07 लाख लोगों को देश से बाहर कर दिया। इसके बाद वे देश की बहुसंख्यक बौद्ध आबादी के बीच खासे लोकप्रिय हो गए, वे एक राजनेता की तरह अक्सर बौद्ध मठों पर जाकर चंदा भी देने लगे, इसे भी बौद्ध आबादी में पैठ बनाने की उनकी कोशिश की तरह देखा गया।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक सेना प्रमुख मिन आंग ह्लाइंग शायद सोचकर बैठे थे कि उनके रिटायरमेंट से पहले सेना समर्थित पार्टी की सरकार बनेगी और वे रिटायर होने के बाद उसका नेतृत्व करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ और इसी वजह से उन्होंने तख्ता पलट का आदेश दे दिया।
भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष डॉ. वेदप्रताप वैदिक टेकोहंट टाइम्स को बताते हैं कि यह फौजी तख्ता-पलट सुबह-सुबह हुआ है जबकि अन्य देशों में यह अमूमन रात को होती है। म्यांमार की फौज ने यह तख्ता इतनी आसानी से इसीलिए पलट दिया है कि वह पहले से ही सत्ता के तख्त के नीचे घुसी हुई थी। साल 2008 में उसने जो संविधान बनाया था, उसके अनुसार संसद के 25 प्रतिशत सदस्य फौजी होने अनिवार्य थे और कोई चुनी हुई लोकप्रिय सरकार भी बने तो भी उसके गृह, रक्षा और सीमा इन तीनों मंत्रालयों का फौज के पास रखा जाना अनिवार्य था।
20 साल के फौजी राज्य के बावजूद जब 2011 में चुनाव हुए तो सू की की पार्टी ‘नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी’ को स्पष्ट बहुमत मिला और उसने सरकार बना ली। फौज की अड़ंगेबाजी के बावजूद सू की की पार्टी ने सरकार चला ली लेकिन फौज ने सू की पर ऐसे प्रतिबंध लगा दिए कि सरकार में वह कोई औपचारिक पद नहीं ले सकीं लेकिन उनकी पार्टी फौजी संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग करती रही।
नवंबर 2020 में जो संसद के चुनाव हुए तो उनकी पार्टी ने 440 में से 315 सीटें 80 प्रतिशत वोटों के आधार पर जीत लीं। फौज समर्थक पार्टी और नेतागण देखते रह गए। अब 1 फरवरी को जबकि नई संसद को समवेत होना था, सुबह-सुबह फौज ने तख्ता-पलट कर दिया। कई मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और मुखर नेताओं को भी उसने पकड़कर अंदर कर दिया है। यह आपात्काल उसने अभी अगले एक साल के लिए घोषित किया है।
उसका आंरोप है कि नवंबर 2020 के संसदीय चुनाव में भयंकर धांधली हुई है। लगभग एक करोड़ फर्जी वोट डाले गए हैं। म्यांमार के चुनाव आयोग ने इस आरोप को एकदम रद्द किया है और कहा है कि चुनाव बिल्कुल साफ-सुथरा हुआ है। अभी तक फौज के विरुद्ध कोई बड़े प्रदर्शन आदि नहीं हुए हैं लेकिन दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने इस फौजी तख्ता-पलट की कड़ी भर्त्सना की है और फौज से कहा है कि वह तुरंत लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहाल करे, वरना उसे इसके नतीजे भुगतने होंगे।
भारत पर क्या होगा असर
म्यांमार में भारत के राजदूत रहे जी पार्थ सारथी बताते हैं कि भारत के संबंध को लेकर पूरे म्यांमार में आम सहमति है। भारत-म्यांमार की 1640 किमी की सीमा है। इस सीमा पर ऐसे कई कबाली गुट हैं जो अलगाववादी हैं जो उनकी सरकार और हमारी सरकार के खिलाफ चलते हैं। इनमें से कुछ गुटों को चीन का समर्थन भी मिला हुआ है, क्योंकि यह एक त्रिकोणीय है भारत-म्यांमार-चीन। म्यांमार में ऐसे 26 गुट हैं जो भारत को प्रभावित करते हैं। वो भारत के अलगावादी गुट से मिलते हैं चीन इनको प्रोत्साहन देता है। भारत, म्यांमार के अंदरुनी मामलों में दखल नहीं करता है, चीन चाहता है कि म्यांमार में एक ऐसी सरकार हो जो उसके राष्ट्रीय हितों को देखे।
बहरहाल, भारत ने भी दबी जुबान से लोकतंत्र की हिमायत की है लेकिन चीन साफ़-साफ़ बचकर निकल गया है। वह एकदम तटस्थ है। उसने बर्मी फौज के साथ लंबे समय से गहरी सांठ-गांठ कर रखी है। बर्मा सन् 1937 तक भारत का ही एक प्रांत था। अब ऐसे में, भारत सरकार का विशेष दायित्व है कि वह म्यांमार के लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी हो।
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