चित्र : भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ, जापान के पूर्व प्रधामंत्री शिंजो आबे, जिनकी पिछले दिनों गोली मारकर हत्या कर दी गई।
- लेख : शशांक मट्टू। संपादन : अमित कुमार सेन।
भारत के लिए, शिंजो आबे जैसे नेता का असामयिक निधन एक बड़ा झटका है। क्योंकि वो आबे ही थे जिन्होंने भारत को अपनी हिंद प्रशांत रणनीति के केंद्र में रखा था। वैसे तो आबे से पहले के प्रधानमंत्रियों ने भी भारत के साथ रिश्तों का दायरा बढ़ाने में काफ़ी संभावनाएं देखी थीं और उन्हें विस्तार देने की कोशिश की थी।
शिंजो आबे दोनों देशों के रिश्तों को एक नई दिशा की तरफ़ ले गए। जापान और भारत के संबंध आज भी उन्हीं के दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। हिंद और प्रशांत महासागरों को जोड़ने की बात करने वाले दो, ‘महासागरों के मिलन’ का सिद्धांत ने, भारत और जापान के रिश्तों के पारंपरिक दायरों को न केवल जोड़ा बल्कि सामरिक स्तर पर व्यापक ‘हिंद प्रशांत’ रणनीति की परिकल्पना को आकार दिया।
शिंजो आबे का तर्क था कि नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था, लोकतंत्र और मानव अधिकारों के हक़ में खड़े होकर भारत और जापान को हिंद प्रशांत परिकल्पना को आकार देना होगा। आबे ने अपने इसी नज़रिए से दोनों देशों के रिश्तों में नई ऊर्जा दी।
अगर इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके गर्मजोशी भरे रिश्तों को जोड़ दें, तो इसने भी भारत और जापान के और नज़दीक आने में बड़ी भूमिका अदा की। साल 2014 से 2020 के दौरान, दोनों नेताओं ने व्यापार बढ़ाने, भारत में जापान का निवेश बढ़ाने, क्वॉड को फिर से ज़िंदा करने और चीन के आक्रामक रवैये के ख़िलाफ़ साझा रणनीति बनाने के लिए मिलकर काम किया।
एक वक़्त में जापान और भारत के जो रिश्ते बेहद सीमित थे वो आज आपूर्ति श्रृंखला की सुरक्षा, अहम तकनीक, अंतरिक्ष, साइबर सुरक्षा में सहयोग और युद्ध अभ्यासों तक फैल चुके हैं।
भारत के लिए अच्छा ये है कि शिंजो आबे ने जापान की विदेश नीति को लेकर जो आम सहमति क़ायम की थी। इस वजह से भारत, जापान का एक प्रमुख कूटनीतिक और सुरक्षा साझीदार बना रहेगा। शिंजो आबे से पहले अमेरिका के साथ गठबंधन के भविष्य और चीन के उभार के प्रति जापान का रुख़ कैसा हो, इसे लेकर जापान में ज़बरदस्त राजनीतिक विभाजन था।
हालांकि, शिंजो आबे के सत्ता में आने के बाद इन मुद्दों पर जापान का सामरिक नज़रिया बिल्कुल स्पष्ट हो गया। साल 2013 की अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में शिंजो आबे ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और भारत जैसी लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ नज़दीकी रिश्ते क़ायम किए और जापान की घरेलू रक्षा क्षमताओं में इज़ाफ़ा करने के कदम उठाए।
उनकी ये रणनीति आज भी जापान की विदेश नीति को राह दिखाने वाला दस्तावेज़ बनी हुई है। साल 2020 में प्रधानमंत्री का पद छोड़ने के बाद भी शिंजो आबे की विदेश नीति जैसी है वैसी ही, बनी हुई है और उनके आगे भी बने रहने की संभावना है। इस लिहाज़ से देखें तो जापान के एक अहम साझीदार के तौर पर भारत की हैसियत बनी रहने की पूरी संभावना है।
शिंजो आबे की ग़ैरमौजूदगी का असर भारत पर ज़रूर पड़ेगा क्यों कि जापान अब दूसरे विश्व युद्ध के बाद के शांतिवाद की धुरी से अलग दिशा में बढ़ने की कोशिश कर रहा है। इस मामले में कम से कम ये तो कह ही सकते हैं कि जापान के संविधान की समीक्षा और इसमें संशोधन अभी दूर की कौड़ी दिखने लगी है।
जापान का संविधान, दूसरे विश्व युद्ध के बाद उसे हराने वाले अमेरिका के अधिकारियों ने लिखा था। उस वक़्त अमेरिका ने जापान के लिए शांतिवादी संविधान इसलिए तैयार किया, ताकि भविष्य में जापान को अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा बनने से रोका जा सके। मिसाल के तौर पर, जापान के संविधान की धारा 9 बिल्कुल साफ़ तौर पर ‘एक संप्रभु देश के तौर पर युद्ध छेड़ने के अधिकार’ को छोड़ने की बात करती है।
इसी धारा में जापान पर अपने लिए जल, थल या वायुसेना गठित करने पर रोक लगाई गई है। वैसे तो जापान के राजनीतिज्ञों ने संविधान और इसकी धारा 9 की नए सिरे से व्याख्या की थी। लेकिन ये एक ऐसा क़दम था जो आज तक विवादित बना हुआ है। वैसे तो जापान के संविधान में सुधार को लेकर कुछ आशंकाएं अभी भी बनी हुई हैं। लेकिन, इसका एक मक़सद ये हो सकता है कि इसके ज़रिए जापान के सैन्य बलों की संवैधानिकता के सवाल को ख़त्म किया जाए और आत्मरक्षा बलों को अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा क़ायम करने में एक स्पष्ट भूमिका दी जाए।
चूंकि शिंजो आबे, जापान को एक ‘सामान्य देश’ बनाना चाहते थे, तो ये बात भारत के लिए दिलचस्पी वाली हो सकती है। ऐसे सुधार की कोशिशें, जापान की सेना की वैधानिकता पर उठने वाले सवालों को ख़त्म करेंगी और भविष्य में जापान के नेताओं के लिए भारत जैसी क्षेत्रीय ताक़तों के साथ सैन्य सहयोग का दायरा बढ़ाना आसान बनाएंगी।
ऐसे ही मौक़ों पर शिंजो आबे के प्रभाव और तजुर्बे की कमी महसूस की जाएगी। ऐसे में दूसरे विश्व युद्ध के बाद, जापान के शांतिवादी संविधान में सुधार और उसे एक ‘सामान्य राष्ट्र’ बनाने के किसी भी प्रस्ताव पर गंभीर रूप से विवाद होना तय है।
मौजूदा प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा की सरकार को संसद के दोनों सदनों में शोर-शराबे भरी परिचर्चा के बीच से ऐसे सुधारों को पास कराना होगा। तभी संवैधानिक सुधार के मुद्दों को सशंकित जनता के बीच ले जाया जा सकेगा। अगर फुमियो किशिदा किसी दबाव में आकर ऐसे संवैधानिक सुधार से पीछे हटते हैं और ज़्यादा नरमपंथी सुधार के लिए राज़ी होते हैं, तो आशंका! इसी बात की है कि उन्हें अपनी पार्टी के दक्षिणपंथियों के विरोध का सामनना करना होगा।
क्योंकि ये तबक़ा, संवैधानिक सुधारों को जापान की राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव लाने का एक ज़रिया मानता है। शिंजो आबे अपनी विश्वसनीयता के चलते ऐसी नीतियां मंज़ूर कराने की अनूठी क्षमता रखते थे। वो इसके लिए अपनी राजनीतिक साख को भी दांव पर लगाने को तैयार रहते थे। शिंजो आबे के गुज़र जाने के बाद, संवैधानिक समीक्षा के आंदोलन ने अपना सबसे जाना-पहचाना चेहरा खो दिया है। शिंजो आबे की ज़बरदस्त राजनीतिक हैसियत के बग़ैर, किशिदा सरकार पर संविधान की समीक्षा का जो दबाव है, वो भी कम होने का डर है।
This article first appeared on Observer Research Foundation.
Be First to Comment