- राकेश ढोंडियाल।
उत्तराखंड आन्दोलन जब अपने चरम पर था, तब मैंने यह लेख लिखा था। प्रभाकर क्षोत्रिय जी ने इसे ‘वागर्थ’ पत्रिका में रम्य रचना के नाम से प्रकाशित किया था। जिस क़स्बेनुमा शहर का ज़िक्र इसमें किया गया है उसका नाम है ‘नैनीताल’।
वह सड़क सिर्फ़ एक मील लंबी है और वह सिर्फ़ सड़क नहीं है। ऐसा नहीं कि उस एक मील की लंबाई के दोनों सिरों पर खाइयां हैं अलबत्ता दोनों सिरों पर उसकी प्रकृति ज़रूर बदल जाती है और साथ ही साथ उसका नाम भी। वह एक मील किसी ख़ास मुकाम तक नहीं पहुंचाती बल्कि वह हर वक्त लोगों को, ज़िंदगी को पकड़ने की कोशिश में लगी रहती है। अंग्रेज़ों के ज़माने में उसे मॉल रोड कहते थे।
आज़ादी के बाद उसका नाम बदल दिया गया हालांकि नाम बदल जाने से वो सड़क बिल्कुल भी नहीं बदली। पहले की तरह ही उसे एक तरफ से नीली झील लगातार भिगोती रही और दूसरी तरफ एकदम चढ़ाई वाला पहाड़ ज्यों का त्यों खड़ा रहा। सड़क के बीच और किनारे चिनार और पांगड़ भी वैसे के वैसे ही खड़े रहे।
यहां आप कितना भी चलें, थकेंगे नहीं
जब से मैंने होश संभाला तभी से हर शाम मल्लीताल से तल्लीताल तक की इस एक मील की दूरी को मापने की आदत सी लग गई थी। वैसे यह उस क़स्बेनुमा शहर की अपनी ख़ास संस्कृति भी कही जा सकती है। वहां के लगभग सभी लोग शाम को किसी न किसी बहाने मॉल पर उतर ही आते हैं। विशुद्ध रूप से घूमने न सही, सब्ज़ियां ख़रीदनी हों या भले ही मंदिर जाना हो लेकिन मॉल का एक चक्कर तो तयशुदा है। झील ने किनारे-किनारे लाठी लिए हुए कुछ काफी वृध्द लोग भी घूमते मिल जाएंगे जिन्हें देखकर लगेगा कि कोई अदृश्य शक्ति ही इन्हे चला रही है, लेकिन वह शक्ति मेरे लिए दृश्य है।
किसी ज़मीन की तासीर होती है कि आप कितना भी चलें, थकेंगे नहीं, कुछ ऐसी ही ज़मीन पर बनी सड़क है वह। मॉल पर घूमने का जुनून देखना हो तो बरसात या सर्दियों में देखिए। जब वहां सात-सात दिनों तक लगातार बारिश होती रहती है, तब भी मॉल के दीवानों के हौसले कतई पस्त नहीं होते, हां छतरियां उनके साथ जरूर जुड़ जाती हैं। बर्फ वाले दिनों, अकड़ी अंगुलिओं से मूंगफली ठूंगते(छीलते) हुए ये लोग उसी सहज भाव से घूमते मिलेंगे।
निराशा भरी कविताओं वाले दिन
एक अजीब सा भावनात्मक रिश्ता है मेरा उस सड़क के साथ और न जाने कितनी स्मृतियां उससे जुड़ी है। बपचन से बेरोज़गारी तक की। वाटर बॉल, सॉफ्टी, भुट्टे, गुब्बारे। प्रभातफेरियां, परीलोक से आई तितलियां। गुदगुदी, फिकरे। राजनीति थिएटर और दर्शन पर गरमागरम बहसें और निराशा भरी कविताओं वाले दिन।
वह सड़क ज़िन्दगी का पर्याय न सही लेकिन उससे ज़िन्दगी चिपकी हुई ज़रूर है और उसके बल पर कई ज़िन्दा भी हैं भुट्टे वाले रेस्तरां वाले, होटल वाले, रिक्शेवाले, ट्रैवल एजेंसी वाले और कई तरह के पहाड़ी तोहफों की दुकानदारी करने वाले । भले ही मैं उस सड़क से सैकड़ों मील दूर होऊं, अवसाद के क्षणों में मैं उस पर पहुँच ही जाता हूँ और हर बार एक नई शक्ति लेकर लौटता हूं।
इस बार ठीक चार साल बाद उस क़स्बेनुमा शहर लौटने का मौका मिला है। काठगोदाम से जैसे ही बस ने पहाड़ों पर चढ़ना शुरू किया, बस के साथ-साथ मेरा दिमाग़ भी हिचकोले खा रहा है। पता नहीं कैसी होगी वो सड़क न जाने क्या-क्या बदल गया होगा देखता हूं इस बार तल्लीताल से मल्लीताल तक सड़क पर कितने परिचित मिलते हैं वैसे वहां अब साथ वाला शायद ही कोई मिले नौकरी की तलाश में बी.ए. करते ही तो भागने लगे थे।
जहां देवदार और बांज बसते थे वहां
आज अक्स के साथ-साथ सड़क भी ठहरी हुई है। सारी नावें किनारों पर लगी हैं और झील का पानी जमा हुआ सा दिखता है। मुझे मालूम था कि लोग उत्तराखंड और पहाड़ों की अस्मिता के लिए लड़ रहे हैं फिर सर्दियां तो हैं ही। ऐसे मैं सैलानी निश्चित रूप से ही नही के बराबर होंगे, जानता था, किंतु ऐसे सन्नाटे की उम्मीद न थी। इन वर्षों में मैं उस शहर की तरक्की से भी नावाकिफ़ था। हां, चिठ्ठियों के ज़रिए यह ज़रूर जानता था कि कश्मीर जाने वाले ज्यादातर सैलानी इधर का रुख करने लगे हैं इसलिए इस बीच काफ़ी होटल बन गए हैं, लेकिन आज मैंने खुद अपनी आंखों से पहाड़ की फटी छाती देखी। जहां देवदार और बांज बसते थे वहां कंक्रीट के रंग बिरंगे कुकुरमुत्ते उग आए थे। फटी छाती का मलवा बारिश में बहकर सड़क पर उतर आया था।
जगह-जगह मलवे और कूड़े के ढेर लगे थे। मुझे याद है कि आगरा में ताजमहल के आसपास की सफ़ाई की बात को लेकर एक गाइड ने वहां मुझसे कहा था कि मेरे शहर जैसी साफ़ सड़कें उसने कहीं नहीं देखी। उसका अभिप्राय मॉल रोड से ही था। तब मुझे बहुत फ़क्र हुआ था अपने क़स्बेनुमा शहर पर। गंदगी से ढकी वही सड़क आज बेजान सी लेटी थी। उस पर न भुट्टे वाले थे न मूंगफली वाले, न रिक्शे वाले न होटल के गाइड। कुछ इक्के-दुक्के लोग थे जो निश्चित तौर पर किसी न किसी काम के सिलसिले में ही निकले होंगे।
उनके चेहरों पर अनिश्चितता और दहशत साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती थी। लगभग चौथाई सड़क पार कर चुका हूं लेकिन अभी तक कोई परिचित नहीं मिला। मोड़ पर घूमते हुए मेरी नज़र झील पर है पानी उसी तरह जमा हुआ सा दिखता है। नज़रें वापस सड़क पर लौटती हैं और मैं बुरी तरह चौंक पड़ता हूं। सामने सड़क के बगल में पहाड़ को काटकर बनाए गये तीन चार मंज़िले होटलों की कतार खड़ी है। मैंने याद किया यहां पर पांगड़ में पेड़ों का झुरमुट हुआ करता था।
सड़क पर वो पीले रंग का कार्पेट सा बिछ जाना
अक्टूबर के महीने में जब पत्ते गिरते तो सड़क पर पीले रंग का कार्पेट सा बिछ जाया करता था। इसी सड़क पर घूमते समय एक बार दादाजी ने बताया था ‘भव्वा तुझे मालूम है, अंग्रेज़ों के टाइम मॉल रोड में ट्रक नहीं चल सकते थे। भारी गाड़ियों को वो तल्लीताल में ही रुकवा देते थे और मॉल रोड के ऊपर वे जो पहाड़ है ना, शेर का डांडा,’ इस पर कोई मकान नहीं बना सकता था और जो ज़रूरी थे वो लकड़ी के बनाए जाते थे ताकि पहाड़ पर और इस सड़क पर ज़ोर न पड़े।’
दादाजी की वह बात शायद इसलिए याद हो गई क्योंकि तब मुझे बहुत अटपटा सा लगा था कि इतने बड़े पहाड़ पर या इतनी चौड़ी सड़क पर मकानों का भला क्या ज़ोर पड़ सकता है, लेकिन कुछ ही वर्षों बाद मुझे लगा कि वाकई अंग्रेज़ कितने चिंतित थे पहाड़ के लिए, इस सड़क के लिए। हालांकि उनके लिए यह शहर एक ‘नॉस्टेल्जिया’ था -टेम्स नदी का किनारा, लंदन की कुहासे भरी शामें और पानी के विस्तार को अपनी खिड़कियों में समेटे कुछ मध्यम रोशनी वाले रेस्तरां और वे अपने ‘नॉस्टेल्जिया’ को सुरक्षित रखना चाहते थे लेकिन कुछ भी हो उन्होंने इसे बचाए तो रखा ही था।
कौन पास करता है यह नक्शे
मुझे बहुत ग़ुस्सा आने लगा। कौन पास करता है यह नक्शे इनकी संवेदनायें मर गई हैं क्या कैसा तंत्र है यह क्यों खिलवाड़ कर रहे है ये पहाड़ के साथ। गले में हल्का सा दर्द होने लगा है। लाइब्रेरी वाला मोड़ आ चुका है अब सड़क के किनारे झील पर झुके मजनू के पेड़ों का सिलसिला शुरू होगा लेकिन ये क्या-ये सड़क को क्या हुआ। ये क्यों झुकी है झील की तरफ? मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा है। झील वाले छोर की तरफ सड़क का किनारा जगह-जगह से टूटकर पानी में समा चुका है।
कई मंजनू के पेड़ अब वहां नहीं हैं, कुछों की जड़े ऊपर हैं और सर पानी में डूबा हुआ। काफ़ी दूर तक सड़क का यही हाल है। उसके आगे सड़क को बचाने के लिए ‘रिटेनिंग वॉल’ बनाई गई है किन्तु दबाव से उसका पेट किसी गर्भवती महिला की तरह फूला हुआ है। मेरे गले का दर्द बहुत तेज़ हो गया है। सड़क बहुत उदास सी दीखती हैं। मेरा क्रोध भी धीरे-धीरे उदासी का रूप ले लेता है। चलते-चलते आज थकान महसूस करने लगा हूं।
अचानक सड़क मुझसे बातें करने लगी है ‘तू क्यों दुखी होता है रे! मैं अपने लिए उदास थोड़े ना हूं, मुझे मालूम है मुझ पर दबाव हैं, मै बूढ़ी हो रही हूं, टूट रही हूं, लेकिन यह मेरे दुख का कारण नहीं। मैं इसलिए उदास हूं कि मेरी गोद में बड़ा हुआ एक ख़ूबसूरत सा नौजवान मेरी अस्मिता के लिए आवाज़ उठाने गया था, तीन महीने होने को आए, लेकिन वो लौटकर नहीं आया। मैं इसलिए उदास हूं कि मैं एक अर्से से किसी को खुशियां नहीं बांट सकी। मैंने कब से उस नौजवान जैसी खिलखिलाहटें नहीं सुनी।’
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