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स्पीति के रंग-2 : यहां है ऐसा गांव जहां कभी हुआ करता था समुद्र!

  • राकेश ढोंडियाल।

स्पीति के रंग: यात्रा के पहले भाग में हम रिकांग पिओ से चले थे और काज़ा स्पीति नदी के तट, पिन घाटी से मुद गांव के रास्ते मोनेस्ट्री पहुंचे थे जहां तिब्बती बुद्धिज़्म के सबसे नए स्वरुप जेलपु विचारधारा के बारे में हमने जाना। अब आगे…

हम बहुत ऊंचाई पर बसे गांव लांग्जा, कोमिक और हिक्किम देखने निकल पड़े हैं। 14435 फ़ीट की ऊंचाई पर बसा ये गांव है लांग्जा। इतनी ऊंचाई पर सामान्यतः सर घूमने लगता है, मैं भाग्यशाली हूं कि इस गांव के बीच से होते हुए लगभग 2 किलोमीटर पैदल चलकर भी मैं जल्द ही सामान्य हो गया हूं।

यह गांव फॉसिल्स के लिए विख्यात है। उस युग के फॉसिल्स के लिए जब यहां समुद्र हुआ करता होगा। लांग्जा गांव की चोटी पर बैठकर सोच रहा हूं कि यहां जीवन कितना कठिन है फिर सोचता हूं कि हम सुविधाभोगी शहरी, भौतिक सुविधाओं के दम पर क्या वाकई प्रसन्न हैं? यहां जीवन इतना असुरक्षित है, किन्तु क्या शहरों में हम अपने आप को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करते है? क्या हमें असुरक्षा की भावना नहीं घेरती? यदि घेरती है तो क्या उसकी तीव्रता यहां के लोगों से कम है? क्या प्रसन्नता भौतिक सुविधाओं की मोहताज है? मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं है।

ये काज़ा से कुछ ही दूरी पर स्थित रंगरिक गांव है। एक समय, यह स्पीति का सबसे बड़ा गांव हुआ करता था। आज मैं यह गांव देखने नहीं बल्कि कीह गोम्पा देखने निकला हूं। ‘कीह मॉनेस्ट्री’ काज़ा से पंद्रह किलोमीटर दूर है और स्पीति की सबसे बड़ी मॉनेस्ट्री है।

वाह! यह गोम्पा का पहला दृश्य है। सच कहूं तो इसी मॉनेस्ट्री का एक चित्र देख कर ही मेरे मन में स्पीति घूमने की इच्छा जागृत हुई थी। मैं जानता हूं कि वैसा चित्र लेने के लिए मुझे मॉनेस्ट्री के ठीक पीछे उस रेतीले पहाड़ पर आधा- एक किलोमीटर पैदल चढ़ना होगा। 13668 फ़ीट की ऊंचाई पर ऐसा करना मुश्किल तो होगा लेकिन मैं प्रयास ज़रूर करूंगा

मोनेस्ट्री के अंदर फोटो लेने अनुमति नहीं है। छत पर जाकर चित्र ले सकते हैं। जेलूग्पा पंथ के इस तिब्बती गोम्पा को विभिन्न आक्रमणकारियों ने कई बार क्षति पहुंचाई किन्तु हमारा सौभाग्य है कि हम आज भी इसे देख पा रहे हैं।

वज्रयान बुद्धिज़्म, तंत्र में भी विश्वास रखता है। लामा निंग्मा मुझे मॉनेस्ट्री घुमाकर मुझसे मेरे काम के बारे में पूछते हैं। उन्हें रेडियो में बहुत रुचि है। वे मुझे हर्बल चाय पिलाते हैं और बताते हैं कि ये चाय हाई अल्टीट्यूड पर होने वाली परेशानियों से बचाती है। मैं सोचता हूं कि यदि यह सच हुआ तो गोम्पा का चित्र लेने के लिए पहाड़ पर चढ़ना मेरे लिए आसान हो जाएगा।

स्पीति को अलविदा कहने की घड़ी आ चुकी है। जिस दिन मैं काज़ा पहुंचा था तभी रोहतांग और कुंजुम पास खुलने की ख़बर आई थी। काज़ा से मनाली का मार्ग छोटी गाड़ियों के लिए खोल दिया गया है। हिमाचल परिवहन की बसें अभीशुरू नहीं हुई हैं, लेकिन दो सूमो रोज़ यहां से जाने लगी हैं। यह रास्ता सिर्फ चार या पांच महीने खुला रहता है। चेरांग आंग दुई ने बताया है कि 200 किलोमीटर के इस सफर में भी लगभग 12 घंटे लगेंगे। मेरे लिए ये नया रास्ता होगा, यह सोचकर सूमो की एक सीट रिज़र्व करवा ली। एक सीट का किराया है 1000 रुपए। सुबह साढ़े छः बजे चलकर अभी हम लोसर में चाय के लिए रुके हैं।

बहुत चढ़ाई के बाद हम कुंजुम पास पहुंच गए हैं। ये कुंजुम देवी का मंदिर है जिनकी स्थानीय लोगों में बहुत मान्यता है। ‘कुंजुम ला’ लाहौल स्पीति घाटी को कुल्लू घाटी से जोड़ता है और रोहतांग दर्रे से भी ऊंचा है। कुंजुम पास से कुछ पहले तक हम स्पीति नदी के विपरीत चल रहे थे, लेकिन इस दर्रे को पार करने के बाद अब हम चेनाब के साथ साथ चलेंगे। इसका उद्गम स्पीति घाटी के बारालाचा दर्रे से हुआ है।

छतरू में हम खाने के लिए रुके हैं। इस पुल के नीचे चेनाब नदी बह रही है। बातल से छतरू तक 31 किलोमीटर का रास्ता हमने लगभग दो घंटे में तय किया। हम सड़क के बजाय कभी नदी के किनारे- किनारे मिटटी पर चले, कभी पहाड़ों से गिरे बड़े पत्थरों की बीच, कभी पिघलती बर्फ के पानी पर और कभी बर्फ के ढेर के बीचों बीच इससे सुन्दर हिमालयन सफारी नहीं हो सकती।

स्पीति घाटी पीछे छूट चुकी है, रोहतांग ला पहुंचते-पहुंचते साढ़े तीन बज रहे हैं। स्थानीय लोग बताते हैं की रोहतांग पर इस साल अपेक्षाकृत कम बर्फ है।

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मैं मनाली पहुंच चुका हूं। इन दिनों मनाली की हालत ठीक वैसी है, जो गर्मियों में रेलवे स्टेशन के वातानुकूलित प्रतीक्षालय की होती है। बेहद भीड़। बेहद शोर। सिर्फ इतने दिनों में मेरा रंग ताम्बई हो गया है और मैं स्पीतियन सा दिखने लगा हूं। एक हफ्ते में ये रंग जा चुका होगा, लेकिन मेरे मन का एक कोना स्पीति के रंग में ऐसा रंगा है कि ये रंग ताउम्र नहीं छूटेगा।

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