- राकेश ढोंडियाल।
अगर साल भर तक, हर रोज़ एक नई मस्जिद में नमाज़ अदा करना चाहें तो भोपाल आ जाइए। मध्यप्रदेश का भोपाल ऐसा शहर है, जहां एशिया की सबसे छोटी मस्जिद से लेकर एशिया की छठी सबसे बड़ी मस्जिद भी आपको मिलेगी। ‘द रॉयल जर्नी ऑफ भोपाल’ के लेखक अख्तर हुसैन के अनुसार भोपाल ने डेढ़ सौ बरस पहले ही 365 मस्जिदों का आंकड़ा हासिल कर लिया था, तब इस्लामी देशों के किसी भी शहर में भी इतनी मस्जिदें नहीं थी।
मस्जिदों की गिनती के लिहाज से भारतीय उपमहाद्वीप में भोपाल का दूसरा स्थान है। बांग्लादेश की राजधानी ढाका के बाद यहां दरख्तों के नाम पर, बागों के नाम पर, औरतों के नाम पर मस्जिदें हैं।
मस्जिदों में मस्जिद है यह मस्जिदों का शहर
ग्यारहवीं सदी में मालवा के परमार वंश के शासक राजा भोज ने भोजपाल नाम की एक बस्ती को आबाद किया था। यही बस्ती बाद में भोपाल के नाम से प्रसिध्द हुई। राजा भोज के शासनकाल के लगभग सात सौ साल बाद सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में एक साहसी अफगान भोपाल आया, जिसका नाम था ‘दोस्त मोहम्मद ख़ान’। वह अफगानिस्तान के तिरह के मीर अज़ीज़ का वंशज था और मूल रुप से औरंगज़ेब की सेना में भर्ती होने की नीयत से आया था।
कुछ दिनों तक उसने दिल्ली में औरंगज़ेब की सेना में काम भी किया, लेकिन वहां एक युवक की हत्या करने के बाद वह फ़रार हो गया। वह भागकर मालवा आया और उसने चन्देरी पर सैय्यद बंधुओं के आक्रमण में हिस्सा लिया। बाद में इस लड़ाके ने पैसे लेकर लोगों के लिए लड़ना शुरु कर दिया। इसी सिलसिले में दोस्त मोहम्मद को भोपाल की गोंड रानी द्वारा बुलवाया गया और रानी ने मदद की एवज़ में उसे बैरसिया परगने का मावज़ा गांव दे दिया।
रानी की मृत्यु के बाद 1722 में दोस्त मोहम्मद ख़ान ने भोपाल पर कब्ज़ा कर लिया। उसने राजा भोज के टूटे हुए क़िले के पास भोपाल की चहारदीवारी बनवाई और इसमें सात दरवाज़े बनवाए जो हफ्तों के दिनों के नाम से थे।
यहां है एशिया की सबसे छोटी मस्जिद
सन 1726 में दोस्त मोहम्मद ख़ान ने अपनी बीवी फतेह के नाम पर एक किला बनवाया, जिसका नाम फतेहगढ़ का किला रखा गया। इसके मग़रबी बुर्ज पर एक मस्जिद बनवाई गई। इस छोटी सी मस्जिद में दोस्त और उसके सुरक्षा कर्मी नमाज़ अदा किया करते थे। यह एशिया की सबसे छोटी मस्जिद के रुप में जानी जाती है और इसका नाम है ‘ढाई सीढ़ी की मस्जिद’।
इसका नाम ‘ढाई सीढ़ी की मस्जिद’ क्यों पड़ा यह कहना बहुत मुश्किल है क्योंकि ढाई सीढ़ी आज कहीं भी नज़र नहीं आती, लेकिन जब यह बनी होगी तब ढाई सीढ़ी जैसी कोई संरचना इससे अवश्य जुड़ी होगी। इसे भोपाल की पहली मस्जिद कहते हैं। हालांकि कुछ लोग आलमगीर मस्जिद को भोपाल की पहली मस्जिद कहते हैं। उनका मानना है कि औरंगज़ेब जहां से निकला उसके लिए जगह जगह आलमगीर मस्जिदें तामीर की गईं और इस लिहाज से इसका नाम पहले आना चाहिए।
मौखिक इतिहास पर विश्वास न कर यदि तथ्यों का विश्लेषण किया जाय तो ‘ढाई सीढ़ी की मस्जिद’ को ही भोपाल की पहली मस्जिद कहा जाएगा। यहीं से शुरु होता है भोपाल में मस्जिदें तामीर करवाने का सिलसिला। दोस्त मोहम्मद ख़ान के बाद एक लम्बे समय तक कोई ख़ास निर्माण कार्य नहीं हुआ। बाद में उसके पोते फैज़ मोहम्मद ख़ान ने भोपाल की झील के किनारे कमला महल के पास एक मस्जिद बनवाई जो आज रोज़ा है और इसे मकबरे वाली मस्जिद के नाम से जाना जाता है।
भोपाल की पहली जामा मस्जिद
ऐसा स्थान जहां मस्जिद और मज़ार साथ में होते हैं उसे रोज़ा कहा जाता है। दोस्त मोहम्मद ख़ान की बहू माजी ममोला, जो विवाह के पहले हिन्दू थी, उसने तीन मस्जिदें बनवाई। इनमें से एक थी तालाब के किनारे स्थित माजी साहिबा कोहना जिसे भोपाल की पहली जामा मस्जिद भी कहा जाता है। दूसरी मस्जिद थी गौहर महल के पासवाली माजी कलां और तीसरी इस्लाम नगर जाने वाले रास्ते नबीबाग में है।
माजी ममोला के बाद तीन नवाब हुए और तीसरे नवाब की बेटी थी कुदसिया बेगम इनका असली नाम था गौहर आरा। कुदसिया बेगम बहुत धार्मिक थीं और उन्होने पहली बार मक्का मदीना में हाजियों के ठहरने के लिए इंतज़ाम की पहल की। पुराने भोपाल शहर के बीचों बीच स्थित जामा मस्जिद का निर्माण कुदसिया बेगम ने ही करवाया था।
1832 में इसका संग-ए- बुनियाद रखा गया और इसे मुक्कमल होने में 25 साल लग गए। इस मस्जिद के निर्माण में तब 5, 60, 521 रुपए खर्च हुए थे। यह मस्जिद बहुत ऊंचे आधार पर बनी है और इस आधार पर कई दुकानों का भी प्रावधान किया गया था। ये दुकानें आज भी लगती हैं और मस्जिद के इर्द-गिर्द एक रंगबिरंगी दुनिया का अहसास कराती हैं।
जामा मस्जिद के आधार पर फूल पत्तियों की घुमावदार आकृतियों हिन्दू स्थापत्य शैली का प्रभाव स्पष्ट करती हैं। यह मस्जिद एक तरह से भोपाल में स्थापत्य की शुरुआत है।
मोती बीवी के नाम पर मोती मस्जिद
जामा मस्जिद के दक्षिण पश्चिम की तरफ बमुश्किल एक मील दूर एक और मस्जिद आपको मिलेगी जिसका नाम है मोती मस्जिद। इसकी संगे बुनियाद भी कुदसिया बेगम ने ही रखी थी। बाद में इसे कुदसिया बेगम की बेटी सिकन्दर जहां ने मुकम्मल करवाया। सिकन्दर जहां का असली नाम मोती बीवी था और इन्हीं के नाम पर मस्जिद का नाम पड़ा। इसमें सफेद संगमरमर और लाल पत्थर का इस्तेमाल किया गया है और यह स्थापत्य का बेहद खूबसूरत नमूना है।
अब रुख़ करते हैं भोपाल की सबसे बड़ी मस्जिद यानि ताजुल मसाजिद का ताजुल मसाजिद का अर्थ है ‘मस्जिदों का ताज’। सिकन्दर बेगम ने इस मस्जिद को तामीर करवाने का ख्वाब देखा था।
दरअसल 1861 के इलाहबाद दरबार के बाद जब वह दिल्ली गई तो उन्होने पाया कि दिल्ली की जामा मस्जिद को ब्रिटिश सेना की घुड़साल में तब्दील कर दिया गया है। उन्होंने अपनी वफादारियों के बदले अंग्रेज़ों से इस मस्जिद को हासिल किया और ख़ुद हाथ बांटते हुए इसकी सफाई करवाकर शाही इमाम की स्थापना की। इस मस्जिद से प्रेरित होकर उन्होंने भोपाल में भी ऐसी ही मस्जिद का निर्माण कराने का विचार किया।
21 खाली गुब्बदों की एक अनोखी संरचना
सिकन्दर जहां का यह सपना उनके जीते जी पूरा न हो पाया तो उनकी बेटी शाहजहां बेगम ने इसे अपना ख्वाब बना लिया। उन्होंने इसका वैज्ञानिक तौर पर नक्शा तैयार करवाया। ध्वनि तरंग के सिद्धांतों को दृष्टिगत रखते हुए 21 खाली गुब्बदों की एक ऐसी संरचना का मॉडल तैयार किया गया कि मुख्य गुंबद के नीचे खड़े होकर जब ईमाम कुछ कहेगा उसकी आवाज पूरी मस्जिद में गूंजेगी।
शाहजहां बेगम ने इस मस्जिद के लिए विदेश से 15 लाख रुपए का पत्थर भी मंगवाया इन पत्थरों में चेहरा भी साफ तौर पर देखा जा सकता था तब मौलवियों ने इस पत्थर के इस्तेमाल पर रोक लगा दी। आज भी ऐसे कुछ पत्थर दारुल उलूम में रखे हुए हैं। शाहजहां बेगम का ख्वाब भी अधूरा ही रह गया क्योंकि गाल के कैंसर के चलते उनका असामयिक मृत्यु हो गई। इसके बाद सुल्तान जहां और उनका बेटा भी इस मस्जिद का काम पूरा नहीं करवा सके। आज जो ताजुल मसाजिद हमें दिखाई देती है, उसे बनवाने का श्रेय मौलाना मुहम्मद इमरान को जाता है, जिन्होनें 1970 में इस मुकम्मल करवाया।
बन सकती थी दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिद
यह दिल्ली की जामा मस्जिद की हूबहू नक़ल है। आज एशिया की छठी सबसे बड़ी मस्जिद है, लेकिन क्षेत्रफल के लिहाज से देखें और वुजू के लिए बने 800 X 800 फीट के मोतिया तालाब को भी इसमें शामिल कर लें तो बकौल अख्तर हुसैन के द्वारा यह दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिद होगी।
भोपाल की कुछ और क़दीमी मस्जिदें हैं जो देखने लायक हैं जैसे अहमदाबाद पैलेस स्थित सोफिया मस्जिद। यह संभवत: भारत की पहली एक मीनारा मस्जिद है। इक़बाल मैदान के पास छोटी सी झक सफेद हीरा मस्जिद भले ही अपनी ओर आपका ध्यान आकर्षित न कर पाए लेकिन शाहजहां बेगम द्वारा बनवाई गई यह ऐसी मस्जिद है जो भोपाल के बाहर टुकड़ों में तैयार की गई थी और यहां लाकर इसे जोड़ भर दिया गया था।
भोपाल में मस्जिदों के बनने का सिलसिला जारी है, लेकिन इसकी क़दीमी मस्जिदों की बात अलहदा है। इनकी ऊंची-ऊंची मीनारों ने कई दौर देखे हैं। इन्होंने कभी इंसानियत को ख़ुद से ऊंचा उठता देखा है तो कभी उसे हैवानियत में तब्दील होते हुए। लेकिन, ये गुंबद, ये मीनारें ये मस्जिदें सदियों से एक पैग़ाम दे रही हैं और वह पैग़ाम है ‘इंसानियत’ का।
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