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श्रीमद्भगवत् गीता : सोच बदलना है तो दृष्टिकोण बदलें

  • अमोघ लीला दास।

निश्चित ही सकारात्मक सोचना बेहतर है लेकिन यह सोच तभी विकसित होगी, जब हम अपने दृष्टिकोण को बदलेंगे। दृष्टिकोण हम बदल सकते हैं। हम कैसे देखते हैं, कहां देखते हैं, यह इसके लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

मान लीजिए हम किसी ऊंची इमारत के नीचे खड़े हैं। हम स्वयं को बौना महसूस करेंगे। यदि हम हवाई जहाज में बैठकर उसके ऊपर उड़ने लगे तो वही इमारत छोटी हो जाएगी। इमारत वही है अब वह छोटी लगने लगी। यह केवल सोच बदलने से नहीं दृष्टिकोण बदलने से हुआ। आमतौर पर दृष्टिकोण बदले बिना केवल सोच बदलने का प्रयास कल्पना होती है।

श्रीमदभगवत् गीता शुरूआत में ही हमारा दृष्टिकोण बदलती है। अब आप कहेंगे कैसे? हमारी स्थिति बदलकर। श्रीमद्भगवत् गीता हमें हमारे परिवेश और परिस्थितियों से ऊपर उठाकर हमारी सोच को बदलती है| गीता (2.13) में बताया गया है कि मूल रूप से हम अविनाशी आत्मा हैं और भौतिक जड़ वस्तुओं से भिन्न और श्रेष्ठ हैं, जिस भौतिक शरीर को हम अपनी सच्ची पहचान मानते हैं वह हमारी आत्मा के ऊपर पड़ा हुआ एक अस्थाई वस्त्र है।

    जब भी इस संसार में समस्या और नकारात्मकता हमें घेर लेती है तो हमें केवल यह स्मरण करना है कि हम अविनाशी हैं। यह बदला हुआ दृष्टिकोण हमारी चेतना को शान्ति एवं विश्वास से भर देगा। तब न केवल हमारी सोच बल्कि हमारा जीवन भी सकारात्मक हो जाएगा।

    श्रीमद्भागवत् गीता (2.13) में घोषणा करती है कि, ‘जिस प्रकार देहधारी आत्मा निरंतर इस शरीर में बाल्यावस्था से युवावस्था में तथा युवावस्था से वृद्धावस्था में जाती है, उसी प्रकार मृत्यु के बाद यह दूसरी देह में प्रवेश करती है| धैर्यवान इंसान इस परिवर्तन से भ्रमित नहीं होते।’

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