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अस्तित्व : मां दुर्गा के ‘महिषासुर मर्दिनी रूप में’ छिपा है ये रहस्य

मां दुर्गा महिषासुर मर्दिनी के रूप में। नटराज शिव मंदिर, चिदंबरम, तमिलनाडू। चित्र सौजन्य : रिचर्ड मोरटेल/विकीपीडिया

देवी को महिषासुर मर्दिनी क्यों कहा जाता है और इस प्रतीकात्मकता का हमारे जीवन में क्या महत्व है? इस बारे में कभी न कभी कहीं ना कहीं किसी अवसर पर आपने एक बार तो विचार किया ही होगा, लेकिन इसके पीछे भी प्रकृति का रहस्य है।

दरअसल, यौगिक संस्कृति में दिव्यता का स्त्रियात्मक पहलू एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। देवी के कई सारे रूपों की पूजा की जाती है, विशेष रूप से साल के कुछ खास समय, जैसे नवरात्रि के नौ दिनों में! हालांकि नवरात्रि देवी के तीन मूल पहलुओं का ही उत्सव मनाती है, उसके और भी कई रूप हैं।

देवी की, एक ऐसी ही अभिव्यक्ति महिषासुर मर्दिनी के रूप में हुई है, जिन्होंने महिषासुर का वध किया था। महिषासुर, जिसे पारंपरिक ढंग से आधे भैंसे और आधे मनुष्य के रूप में चित्रित किया जाता है, मनुष्य के पशु स्वभाव को दर्शाता है। क्रमिक विकास की प्रक्रिया की वजह से अमीबा, केंचुए, कीड़े, पक्षी और हर तरह के पशु के स्वभाव के अंश आज भी हममें हैं।

हमारे ये सब रुझान हमारी आदतों और मजबूरी में किये जाने वाले कामों की वजह से हैं। आधुनिक तंत्रिका विज्ञान भी यह मानता है कि हमारे मस्तिष्क का एक भाग सांप के जैसा है। क्रमिक विकास की प्रक्रिया में सांप का मस्तिष्क विकास की उस दशा को दर्शाता है जिसमें सहज स्वभाव, मूल स्वभाव प्रमुखता से हमारे ऊपर हावी रहता है।

जब इंसानों ने सीधे खड़े हो कर चलना शुरू किया और उनकी रीढ़ की हड्डी सीधी हो गयी तब सांप के मस्तिष्क में से विकसित हो कर मस्तिष्क का मानवीय फूल खिल गया। यही हमें मनुष्य बनाता है। इसी की वजह से हम ये सोच सकते हैं कि अस्तित्व सब तरफ एक जैसा है और सभी कुछ एक ही है। इसी की वजह से हम आध्यात्मिक जिज्ञासु या वैज्ञानिक बनते हैं।

अगर हम सांप के मस्तिष्क की ओर जायें तो उसमें जो कुछ भी है वो है टिके रहने का स्वभाव। शिक्षा, आध्यात्मिक प्रक्रिया और ध्यान के जो सब प्रयास हैं, वे सांप के मस्तिष्क से मनुष्य के मस्तिष्क की ओर विकास करने के लिये ही हैं। सद्गुरु बताते हैं कि ये आपको जीवन के प्रति एक ज्यादा समावेशी नज़रिया देता है। अगर आप सिर्फ अपने सांप वाले मस्तिष्क से ही काम करते हैं तो आपको बस सीमायें बनाना ही आयेगा।

जब भी आपको अपने आसपास के लोगों के साथ समस्या होती है, तो ये मूल रूप से आपके और उनके बीच की सीमाओं की वजह से होतीं हैं या फिर, जो कुछ आपके और उनके पास है, उसके बीच की सीमाओं की वजह से होती हैं। अगर आप अपने मस्तिष्क के सिर्फ एक भाग से काम करते हैं तो आपका काम तो होता रहेगा पर आप अपनी पूरी क्षमता को इस्तेमाल नहीं कर पायेंगे।

यौगिक प्रणाली में ऐसे तरीके हैं जो सांप वाले मस्तिष्क को इस तरह से खोल देते हैं कि ये मानवीय मस्तिष्क के साथ संदेश व्यवहार करने लगता है और दोनों मिल कर एक पूरे मस्तिष्क के रूप में काम करने लगते हैं। कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि कुछ खास ध्यान प्रक्रियाओं से ये किया जा सकता है।

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यही कारण है कि यौगिक संस्कृति में, मानवीय प्रणाली के चक्रों को दर्शाने के लिये कमल के फूल का प्रतीक इस्तेमाल होता है। सबसे बड़ा फूल सिर के सबसे ऊपर के भाग में सहस्रार चक्र को दर्शाता है। ये फूल खुलना चाहिये। अगर मस्तिष्क का फूल खुल जाता है तो मनुष्य की बुद्धिमत्ता एक मिलाने वाली, समावेशी ढंग से काम करना शुरू करती है।

समावेशी होना कोई नीति नहीं है, यह अस्तित्व का स्वभाव है। दूसरा कोई भी प्राणी ये काम नहीं कर सकता, वे हमेशा अपनी सीमायें तय करने में लगे रहते हैं। एक कुत्ता अपने आसपास के इलाके में हर तरफ मू्त्र करता जाता है। ये उसकी कोई मूत्र संबंधी समस्या नहीं है पर इससे वो अपना राज्य, अपना इलाका घोषित करता है, जिसमें और कोई कुत्ता नहीं आ सकता। मनुष्य भी अलग तरीकों से ऐसा ही करने लगे हैं। वे अपनी सीमायें बना लेते हैं और जितना संभव हो, उन्हें आगे बढ़ाते जाते हैं।

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देवी द्वारा महिषासुर को मारने की प्रतीकात्मकता मनुष्य के अंदर के पशु को खत्म करने की बात दर्शाती है। इसका मतलब है कि पशुता खत्म होने पर आप एक बड़े फूल बन जाते हैं। अब आपके पास ये विकल्प है कि या तो आप अपना सांप वाला मस्तिष्क खोल लें या फिर देवी आपको मार देगी।

इस प्रतीकात्मकता का दूसरा आयाम ये है कि पुरुषत्व अपने स्वभाव के हिसाब से, अपनी समझ के अनुसार जीता है। इसका मतलब है कि उसका सांप वाला मस्तिष्क एक बंद मुट्ठी की तरह है। जब स्त्रीत्व आता है तो ये खुल सकता है। जब ये खुलता है तो पुरुषत्व या पशु स्वभाव उसके पैरों पर गिर पड़ता है। देवी और महिषासुर प्रतीकात्मक रूप से यही समझाते हैं चूंकि वह अपनी पूरी शक्ति के साथ खड़ी हो गयी तो पशुता का खात्मा हो गया।

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