भक्त और भगवान अध्यात्म के उस पहलु से जुड़े रहते हैं, जहां आस्था, विश्वास और उमंग की डोर उन्हें कभी अलग नहीं होने देती है। हम जिस भी रूप में अपने आराध्य को पूजते हैं, वह हमें उसी रूप में स्वीकार करते हैं। ऐसा तभी होता है, जब भक्त पूरे विश्वास और आस्था से भगवान का ध्यान करता है।
भक्त होने का मतलब प्रशंसक होना तो बिल्कुल भी नहीं है। भक्त सभी कारणों से परे होता है। भक्त एक ऐसी दुनिया में होता है, जहां कुछ भी सही या गलत नहीं है, जहां कोई पसंद या नापसंद नहीं है। भक्ति ही आपको उस दुनिया में ले जाती है, जहां भगवान रहते हैं और भगवान भी भक्त को उसी रूप में स्वीकार करते हैं।
इस बात का प्रमाण हमारे वैदिक ग्रंथों में भी मिलता है यानी भगवान हमें बिल्कुल वैसे ही स्वीकार करते हैं जैसे हम वाकई में हैं और हम जिस भी रूप में है, उसे हमने अपनी चेतना से जन्म दिया है। हमारी चेतना ही हमारे कर्म, विचार को आकार प्रदान करती है।
एक बार स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास उनके शिष्य आए। शिष्य आश्रम में नृतकों, गायकों और कलाकारों के एक समूह को लेकर आए। उनके साथ मनोरंजन करने वाले नट भी थे, रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें गले से लगा लिया और उनके प्रति अपना प्रेम व्यक्त किया।
तब उनके कुछ शिष्य जो संकीर्ण सोच से ग्रसित थे। उन्होंने रामकृष्ण परमहंस जी से पूछा कि आपने ऐसे छोटे वर्ग (नट) वाले लोगों का गले लगाकर स्वागत क्यों किया? तो उस महान योगी ने कहा, ‘जिस भगवान की वो लोग पूजा करते हैं, वो नृत्य और संगीत है। लेकिन वो जानते हैं कि अपने भगवान की पूजा कैसे करनी है और इसी से भगवान प्रसन्न होते हैं।’
यह हमारी तरह खुद को दुनिया के समाने सावधानी से या सुनियोजित रूप से प्रस्तुत नहीं करते हैं। यह बात सुनकर संकीर्ण सोच रखने वाले शिष्य अपने गुरु के सामन क्षमा याचक की भूमिका में खड़े थे।
भक्ति का अर्थ धर्मस्थलों पर जाकर ईश्वर के नाम का जप करना नहीं बल्कि वो इन्सान जो अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है और भगवान भी उसी के साथ हमेशा रहते हैं और उसे स्वीकार करते हैं।
Be First to Comment