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Death Penalty: किन-किन परिस्थितियों कम हो सकती है मौत की सजा, सुप्रीम कोर्ट का फैसला आज

विस्तार सुप्रीम कोर्ट मृत्युदंड को कम करने वाली परिस्थितियों से संबंधित दिशा-निर्देशों पर सोमवार को अपना फैसला सुना सकता है। सुप्रीम कोर्ट इन बातों को लेकर दिशा-निर्देश जारी कर सकता है कि निचली अदालत में सुनवाई के दौरान किन परिस्थितियों में और कब मौत की सजा को कम करने पर विचार किया जा सकता है।

मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित ने 17 अगस्त को मामले को लेकर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। उन्होंने कहा था, मृत्युदंड एक ऐसी सजा है जिसके बाद दोषी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और मरने के बाद फैसले को किसी भी हाल में पलटा या बदला नहीं जा सकता है। इस वजह से आरोपी को उसके अपराध गंभीरता को कम साबित करने का प्रत्येक अवसर देना जरूरी है। ताकि कोर्ट को इस बात के लिए राजी किया जा सके कि मामले में मृत्युदंड की जरूरत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट इस याचिका के फैसले पर इस बात को सुनिश्चित करना चाहता है कि मृत्युदंड की संभावना वाले मामलों में ट्रायल के दौरान परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को भलीभांति तरीके से शामिल किया जाए। सुप्रीम कोर्ट को ऐसा लगा कि इस मामले में त्वरित कार्रवाई की जरूरत है। 

शीर्ष अदालत ने इस मामले में स्वत: संज्ञान लिया था और कहा था कि यह सुनिश्चित करने की तत्काल आवश्यकता है कि उन अपराधों के लिए सजा कम करने वाली परिस्थितियों पर (निचली अदालत में) सुनवाई के स्तर पर ही विचार किया जाना चाहिए, जिनमें मौत की सजा का प्रावधान है। यह मामला इरफान नाम के एक व्यक्ति की याचिका से उत्पन्न हुआ था, जिसमें निचली अदालत द्वारा उसे दी गई मौत की सजा को चुनौती दी गई थी, जिसकी पुष्टि मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने की थी।

उम्र कैद की सजा देने की होनी चाहिए आजादी
यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने पिछली सुनवाई (17 अगस्त) के दौरान कहा था कि अदालतें उचित रूप से राहत के लिए सजा देने से पहले मामले को स्थगित कर सकती हैं। जस्टिस एसआर भट और जस्टिस सुधांशु धूलिया भी पीठ के सदस्य थे। शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि अगर अपराध सिद्धांत (थ्योरी) के आधार पर अदालत इस नतीजे पर पहुंचती है कि मौत की सजा जरूरी नहीं है तो उसे उसी दिन उम्र कैद की सजा देने की आजादी होनी चाहिए। वहीं अगर मामले में मौत की सजा के संबंध में कुछ अतिरिक्त बातचीत की आवश्यकता है, तो उसको लेकर कोशिश की जानी चाहिए।

तथ्यों को शामिल करने का काम हाईकोर्ट पर छोड़ना चाहिए
न्याय मित्र के रूप में नियुक्त किए गए वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ दवे इस मामले में पीठ की सहायता कर रहे हैं। उन्होंने कहा है कि ऐसे मामलों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले दिए निर्णयों के अनुसार निर्देशित करना चाहिए। दूसरी ओर अटॉर्नी जनरल केके वेनुगोपाल ने भी कहा कि मृत्युदंड वाले संभावित मामलों में ऐसे तथ्यों को शामिल करने के कार्य को हाईकोर्ट के विवेक पर छोड़ देना चाहिए।इस पर पीठ ने कहा कि यह निचली अदालत के न्यायाधीश को अभियुक्तों के पक्ष में कमजोर परिस्थितियों को देखने के अवसर से वंचित कर देगी।

साथ ही कहा कि मौत की सजा वाले अपराध के लिए, राज्य को उचित वक्त पर आरोपी के मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन का खुलासा करने के लिए सत्र न्यायालय के समक्ष पहले से जमा किए गए सबूत पेश करने चाहिए। आपराधिक कानून में, गंभीरता कम करने वाली परिस्थितियां वाले कारक हैं जो अपराधी के अपराध को कम करने में मदद करते हैं और जजों को सजा के साथ अधिक उदार होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। पीठ ने कहा था कि वर्तमान में अपराध और उसकी प्रकृति, चाहे वह दुर्लभतम से दुर्लभ श्रेणी में आता हो, पर चर्चा की जाती है और अपराधी और उसके पक्ष में आने वाली परिस्थितियों को सजा के समय ही निपटाया जाता है।

पीठ ने पहले, यह जांचने का फैसला किया था कि मौत की सजा के मामले से निपटने वाली अदालतें कैसे आरोपी और अपराध के बारे में व्यापक विश्लेषण प्राप्त कर सकती हैं, विशेष रूप से कम करने वाली परिस्थितियों में ताकि संबंधित न्यायिक अधिकारी यह तय कर सके कि मौत की सजा देने की जरूरत है या नहीं। इससे पहले नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के प्रोजेक्ट 39ए द्वारा एक आवेदन दायर किया गया था, जिसमें एक मौत की सजा पर बहस करने के लिए आरोपी के पक्ष में सजा कम करने वाली जानकारी एकत्र करने के लिए एक जांचकर्ता की अनुमति की मांग की गई थी।

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