रिसर्च डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली Published by: हिमांशु मिश्रा Updated Fri, 16 Sep 2022 04:40 PM IST
नामीबिया से लाए जा रहे आठ चीतों को शनिवार को मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ा जाएगा। कभी चीतों का घर रहे हिन्दुस्तान में आजादी के वक्त ही चीते पूरी तरह विलुप्त हो गए थे। 1947 में देश के आखिरी तीन चीतों का शिकार मध्य प्रदेश के कोरिया रियासत के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने किया था। इसकी फोटो भी बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी में है। उस दिन के बाद से भारत में कभी भी चीते नहीं दिखे। अब 75 साल बाद आठ चीतों को नामीबिया से लाया जा रहा है।
ऐसे में आज हम आपको भारत में चीतों की जिंदगी की पूरी कहानी बताएंगे। कैसे एक-एक करके देश से सारे चीते विलुप्त हो गए? चीतों की क्षमता क्या है? भारत आ रहे आठों चीतों की क्या खासियत है? आइए जानते हैं….
कहानी की शुरुआत पौराणिक काल से करते हैं
12वीं सदी के संस्कृत दस्तावेज मनसोलासा में सबसे पहले चीतों का जिक्र है। इसे सन 1127 से 1138 के बीच शासन करने वाले कल्याणी चालुक्य शासक सोमेश्वरा तृतीय ने तैयार करवाया था।
अब आइए बताते हैं कि राजा-महाराजा के समय क्या-क्या हुआ?
कहा जाता है कि चीता शब्द संस्कृत के चित्रक शब्द से आया है, जिसका अर्थ चित्तीदार होता है। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) के पूर्व उपाध्यक्ष दिव्य भानु सिंह ने चितों को लेकर एक किताब लिखी है। इसका नाम ‘द एंड ऑफ ए ट्रेल-द चीता इन इंडिया’ है। इसमें उन्होंने बताया है कि अलग-अलग राजाओं के शासनकाल में चीतों की मौजूदगी देखी गई है। कहा जाता है कि 1556 से 1605 तक शासन करने वाले मुगल बादशाह अकबर के समय देश में 10 हजार से ज्यादा चीते थे। अकबर के पास भी कई चीते रहते थे। जिनका इस्तेमाल वह शिकार के लिए करता था। कई रिपोर्ट्स में तो यहां तक दावा किया जाता है कि अकेले अकबर के पसा ही हजार से ज्यादा चीते थे।
अकबर के बेटे जहांगीर ने पाला के परगना में चीतों की मदद से 400 से अधिक हिरणों का शिकार किया था। अकबर ही नहीं, मुगलकाल और बाद के भी तमाम राजाओं ने शिकार के लिए चीतों का सहारा लेना शुरू कर दिया। चूंकि शिकार के लिए राजा चीतों को कैद करने लगे। एक तरह से कुत्ते-बिल्ली, गाय और अन्य पालतू जानवरों की तरह चीतों को राजा पालते थे। इसके चलते इनके प्रजनन दर में गिरावट आई और आबादी घटती चली गई।
बीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक भारतीय चीतों की आबादी गिरकर सैंकड़ों में रह गई और राजकुमारों ने अफ्रीकी जानवरों को आयात करना शुरू कर दिया। 1918 से 1945 के बीच लगभग 200 चीते आयात किए गए थे। ब्रिटिश शासन के दौरान चीतों का ही शिकार होने लगा।
इस राजा के पास था सफेद चीता, शाही शिकार के दौरान होता था इस्तेमाल
1608 में ओरछा के महाराजा राजा वीर सिंह देव के पास सफेद चीते थे। इन चीतों के शरीर पर काले की बजाय नीले धब्बे हुआ करते थे। इसका जिक्र भी जहांगीर ने अपनी किताब तुजुक-ए-जहांगीरी में किया है। इस तरह का ये इकलौता चीता बताया जाता था। इसके बाद धीरे-धीरे चीतों का भी शिकार शुरू हो गया। जो बचे थे, उन्हें भी राजाओं और अंग्रेजों के शौक ने मार डाला। अंग्रेजों के समय चीतों का शिकार करने पर इनाम मिलता था। चीतों के शावकों को मारने पर छह रुपये और वयस्क चीतों को मारने पर 12 रुपये का इनाम दिया जाता था।
आजादी के वक्त आखिरी तीन चीतों का भी शिकार हो गया
ये बात 1947-1948 की है। बताया जाता है कि तब देश के आखिरी तीन चीतों का शिकार हुआ था। मध्य प्रदेश के कोरिया रियासत (अब छत्तसीगढ़ में) के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने ये शिकार किया था। कहा जाता है कि उस दौरान गांव के लोगों ने राजा से शिकायत की कि कोई जंगली जानवर उनके मवेशियों का शिकार कर रहा है। तब राजा जंगल में गए और उन्होंने तीन चीतों को मार गिराया। यही तीनों चीजे देश के आखिरी बताए जाते हैं। उस दिन के बाद से भारत में कभी भी चीते नहीं दिखे। कोरिया के पास ही एक और रियासत थी। इसका नाम था अंबिकारपुर। कहा जाता है कि इसके राजा रामानुज शरण सिंह देव ने भी करीब 1200 से ज्यादा शेरों का शिकार किया था। साल 1952 में भारत सरकार ने आधिकारिक रूप से देश से चीतों के विलुप्त होने की घोषणा की थी।
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