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सतर्कता : ‘तिब्बत पर संकट’ भारत के लिए बड़ा खतरा

  • राहुल कश्यप।

साल 1951 में दुनिया की छत पर धरती के सबसे शांतिपूर्ण लोगों पर एक त्रासदी थी। इस ग्रह के इतिहास में इसे विडंबना ही कही जाएगी कि सबसे क्रूर शासनों में से एक क्रूर शक्ति द्वारा तिब्बत पर कब्जा कर इसे ‘शांतिपूर्ण मुक्ति’ की संज्ञा दी गई।

भारत और चीन दोनों का कई हजार साल पुराना सभ्यतागत इतिहास है, लेकिन लगभग 4000 किलोमीटर लंबी सीमा पर इन दोनों देशों के बीच कभी सीमाई साझेदारी नहीं रही। तिब्बत पर कब्ज़ा करने और बहुसंख्यक बौद्धों के अधिकारों को कुचलने के बाद ही बीजिंग (तब पेकिंग) के साथ भारत को मजबूरी में सीमा साझा करनी पड़ रही है।

यूएनएचसीआर की एक रिपोर्ट के अनुसार, इतिहास के सबसे बुरे नरसंहारों में से एक में अकेले मार्च 1959 और अक्तूबर 1960 के बीच 87,000 से अधिक तिब्बती मारे गए। 98 प्रतिशत मठों और भिक्षुणी विहारों को नष्ट कर दिया गया, और 99 प्रतिशत भिक्षुओं और भिक्षुणियों को हटा दिया गया।

गलवान में संघर्ष की ताजा यादें और वहां से सेनाओं को पीछे हटाने को लेकर चल रही बातचीत की कछुआ चाल के साथ, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की इस साल जुलाई 2021 में तिब्बत की हालिया यात्रा ने भारत में कई पंख कतर दिए हैं। किसी राष्ट्रपति की 30 वर्षों में तिब्बत की पहली यात्रा भारत के लिए संदेशों से भरी हुई थी। यह यात्रा तिब्बत की राजधानी ल्हासा और अरुणाचल प्रदेश के नजदीक निंगची शहर के बीच बुलेट ट्रेन के उद्घाटन के तुरंत बाद हुई। इसने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के शताब्दी समारोह के हिस्से के रूप में बताया गया।

यात्रा के दौरान उन्होंने तिब्बत के विकास के बारे में बात की। हालांकि, तथ्य यह है कि कथित विकास ने तिब्बत के पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाया है और यह भारत के लिए एक गंभीर खतरा भी है। विनाश की सीमा इतनी अधिक है कि जनसंहार के बाद कहा जाता है कि तिब्बत अब ‘पारिस्थितिकी’ का सामना कर रहा है।

‘मेल्टडाउन इन तिब्बत: चाइनाज रेकलेस डिस्ट्रक्शन ऑफ इकोसिस्टम्स फ्रॉम द हाइलैंड्स ऑफ तिब्बत टू द डेल्टास ऑफ एशिया’ पुस्तक में माइकल बकले लिखते हैं, ‘तिब्बत की विशाल नदियों को चीनी इंजीनियरिंग कंसोर्टियम द्वारा सत्ता की खातिर मुख्य भूमि की प्यास बुझाने के लिए क्षतिग्रस्त किया जा रहा है और चीन के औद्योगिक परिसर को आपूर्ति करने के लिए खनिजों की तलाश में भूमि का लगातार खनन किया जा रहा है। 14वीं पंचवर्षीय योजना के हिस्से के रूप में यारलुंग त्सांगपो (ब्रह्मपुत्र नदी की ऊपरी धारा) पर एक विशाल बांध को मंजूरी दे दी गई है, जिससे चीन के बारे में बहस शुरू हो गई है कि जल्द ही इस विशाल नदी के महान घाटी में जलविद्युत क्षमता शुरू हो जाएगी। इस बांध से हर साल 300 अरब किलोवाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य है।’

भारत के लिए ब्रह्मपुत्र का बहुत महत्व है। एक रिपोर्ट के अनुसार, यह देश के मीठे पानी के संसाधनों का लगभग 30 प्रतिशत और इसकी कुल जलविद्युत क्षमता का 44 प्रतिशत को पूरी करता है। कई नदियों के ऊपरी तटवर्ती देश चीन की स्थिति भारत की स्थिति को कमजोर बनाती है। जबकि भारत ने ग्रैंड वेस्टर्न वाटर डायवर्जन प्रोजेक्ट (या शूओटियन कैनाल) और रेड फ्लैग रिवर प्रोजेक्ट के माध्यम से चीन द्वारा नदी के पानी को सूखाग्रस्त क्षेत्रों की ओर मोड़ने के बारे में कई बार अपनी चिंताओं को व्यक्त किया है, लेकिन पहले से ही भारतीय सीमाओं के नजदीक तीन परियोजनाओं सहित ऊपरी इलाकों में छह जलविद्युत परियोजनाएं हैं। तिब्बती पठार पर होने वाले पर्यावरणीय विनाश एक ऐसा विषय है जिसके बारे में वैश्विक समुदाय को चिंतित होना चाहिए। चीन के तिब्बत पर कब्जे का विरोध न करने की कीमत भारत अब भी चुका रहा है।

हम अमूमन भारत और चीन के बीच स्पष्ट अंत को भूल जाते हैं। हम (भारत) एक संपन्न लोकतंत्र हैं जबकि चीन एक सत्तावादी पार्टी संचालित देश है। यह समझने वाली बात है कि इसीलिए भारत द्वारा लगातार न छेड़ने की कोशिश करने के बावजूद चीन ने स्पष्ट रूप से ‘अमित्र’ नीति अपनाई है। यह अमित्रता चाहे जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश में लगू हो, या पूर्वोत्तर में विद्रोह को समर्थन प्रदान करना हो।

कम्युनिस्ट चीन के संस्थापक माओ-त्से-तुंग ने कहा था कि तिब्बत वह हथेली है जिस पर अगर हम अधिकार कर लेते हैं तो फिर हम- लद्दाख, नेपाल, भूटान, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश रूपी पांच अंगुलियों तक पहुंच जाएंगे। तिब्बत पर चीनी कब्जे का विरोध न करने की कीमत भारत को चुकानी पड़ रही है, गलवान संघर्ष शृंखला में नवीनतम है। जबकि यह सूची लंबी है – 2013 (चुमार), 2014 (देप्सांग), 2017 (डोकलाम) और 1962 के आक्रमण को नहीं भूलना चाहिए।

हालांकि, गलवान में किए गए दुस्साहस को मिले जवाब ने चीनी प्रतिष्ठान को आश्चर्यचकित कर दिया। उसे उम्मीद नहीं थी कि भारत इस तरह के संकल्प और पराक्रम के साथ उसके विस्तारवाद का डटकर मुकाबला करेगा। जबकि बीजिंग उन क्षेत्रों से हिलना नहीं चाहता है, जहां उसने अतिक्रमण किया है। इस बात की भी थोड़ी से आशंका है कि वह फिर से वही दुस्साहस करेगा। यह आशंका भारत की ओर से सैनिकों की भारी तैनाती के कारण हो रही है। हालांकि, यह भी एक तथ्य है कि सैन्य गतिरोध को छोड़कर नई दिल्ली को अभी तक प्रतिरोध के सही भू-रणनीतिक उपकरण नहीं मिले हैं। तिब्बत कई लोगों के लिए एक ‘कार्ड’ हो सकता है, यह निश्चित रूप से एक ऐसा मुद्दा है जिसे भारत को सक्रिय रूप से संभालने की आवश्यकता है।

इसलिए, यह उचित समय है कि भारत अपनी तिब्बत नीति पर फिर से विचार करे और निर्वासित तिब्बती सरकार को मान्यता दे। उसे तुरंत हिमालय की सीमा को भारत-तिब्बत सीमा कहना शुरू कर देना चाहिए। भारत को दृढ़ता से कहना चाहिए कि 1914 में मैकमोहन रेखा की तिब्बत द्वारा पुष्टि की गई थी और उस समय चीन कहीं नहीं था। इससे साबित होता है कि ‘तिब्बत कम से कम स्वतंत्र देश था।’

तिब्बत पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का आधार इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि ‘नरसंहार किए गए थे’ और यह कि चीन द्वारा 1951 में कब्जा किए जाने से पहले तिब्बत कम से कम एक स्वतंत्र देश तो था।’ तिब्बत से एक ही धार्मिक परंपरा से जुड़े भारत को तिब्बती लोगों की मित्रता और उनका समर्थन मिलता है, जिनके भारतीय इतिहास के साथ संपर्क जुड़े हुए हैं और बौद्ध धर्म के माध्यम से ऐतिहासिक संबंध हैं।

पीछे मुड़कर देखें तो 1995 में एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट में कहा गया था, ‘असंतोष का दूसरा हालिया स्रोत तिब्बत में गैर-तिब्बती बसने वालों, मुख्य रूप से हान (चीनी नस्ल) और हुई (चीनी मुस्लिम अल्पसंख्यकों में से एक) की संख्या में भारी वृद्धि है। इनकी उपस्थिति को कई तिब्बतियों द्वारा तिब्बती राष्ट्रीय पहचान के लिए खतरा माना जाता है। हान और हुई बसने वालों को आर्थिक खतरे के रूप में भी देखा जाता है क्योंकि उनमें से कई दुकानें और जमीन खरीदने के लिए तिब्बत आते हैं।

चीनी दण्ड से मुक्ति, लोहे के पर्दे के पीछे अधिकारों के बेरहम उल्लंघन और चीन द्वारा वैश्विक चिंताओं की घोर अवहेलना की वास्तविक कहानियां तो तब सामने आएंगी जब तिब्बत वास्तव में मुक्त होगा और लोगों को लौह कठोर शासन का डर नहीं रहेगा। इस समय तिब्बती जीवन का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जो दांव पर न लगा हो। इसे समझने के लिए इससे बेहतर तरीके से तुलना नहीं हो सकती है कि तिब्बतियों को उनके चीनी समकक्षों की तुलना में और भी कम नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्रदान किए गए हैं।

जब पूरी दुनिया में मानवाधिकारों को सभी के लिए अपरिहार्य मौलिक अधिकारों के रूप में देखा जाता है, ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि चीनी पार्टी नियंत्रित शासन इसे ‘अपनी शक्ति के अस्तित्व के लिए एक संभावित खतरे के रूप में देखता है’। ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ ने अपने ‘प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2020’ में 180 देशों की सूची में चीन को 177वें स्थान पर रखा है। तिब्बत में लौह घेरेबंदी की वास्तविकता यह है कि उत्तर कोरिया में तिब्बत से अधिक विदेशी पत्रकार आते-जाते रहते हैं और विदेशियों के आवागमन के मामले में तिब्बत इस स्टालिनवादी देश की तुलना में अधिक दुर्गम है।

मार्च 2021 में आई फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में भी तिब्बत को सीरिया के बाद सबसे कम मुक्त देश के रूप में वर्णित किया गया है। इंडियन एक्सप्रेस ने निर्वासित तिब्बती सरकार के हवाले से रिपोर्ट प्रकाशित किया है कि चीनी उत्पीड़न के विरोध में 2009 और 2019 के बीच 26 महिलाओं सहित कम से कम 154 तिब्बतियों ने आत्मदाह कर लिया।

तिब्बत पर अमेरिकी नीति अब स्पष्ट है कि भारत को स्वाभाविक रूप से इस मुद्दे पर नेतृत्व करना चाहिए था और बीजिंग के खिलाफ एक कूटनीतिक अभियान शुरू करना चाहिए था, लेकिन इसके बजाए अक्टूबर 2021 में 40 पश्चिमी देशों ने अल्पसंख्यक समूहों के साथ दुर्व्यवहार के लिए चीन की निंदा की थी।

तिब्बत पर अमेरिकी नीति अब स्पष्ट है और इसने मानवाधिकारों के हनन पर चीन से जवाबदेही दिखाने की मांग की है। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने वरिष्ठ चीनी राजनयिक यांग जिएची से बातचीत में इस मुद्दे को उठाया। अमेरिका ने कंसोलिडेटेड एप्रोप्रिएशन एक्ट- 2021 (समेकित विनियोग अधिनियम) पारित किया है, जिसमें कहा गया है कि ‘अमेरिकी विदेश मंत्री तिब्बत में राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास की निगरानी के लिए तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीन जनवादी गणराज्य, चेंगदू स्थित अमेरिकी महावाणिज्य दूतावास का शाखा कार्यालय स्थापित करने के लिए प्रयास करेंगे।’

तिब्बत पॉलिसी एंड सपोर्ट एक्ट- 2020 की एक उपधारा में इस मांग में एक और चेतावनी है कि ‘विदेश मंत्री अमेरिका में आगे तब तक चीन को किसी भी अन्य वाणिज्य दूतावास खोलने की अनुमति नहीं दे सकते हैं, जब तक कि तिब्बत के ल्हासा में अमेरिका का वाणिज्य दूतावास स्थापित नहीं हो जाता है।’ पिछले साल सितंबर में, चीन पर अमेरिकी कांग्रेस-कार्यकारी आयोग ने कहा था, ‘चीनी सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी तिब्बती बौद्ध धर्म का ‘चीनीकरण’ करने के लिए बड़ा अभियान चला रही हैं। वे तिब्बती धार्मिक संस्थानों और समुदायों को कम्युनिस्ट पार्टी और उसकी नीतियों का समर्थन करने के लिए मजबूर कर रही हैं।

चीनी अधिकारियों का दावा है कि उनके पास भविष्य के 15वें दलाई लामा सहित सभी धार्मिक हस्तियों के पुनर्जन्म को चयनित और चिह्नित करने का एकमात्र अधिकार है। उसने 1995 से तिब्बत के दूसरे सर्वोच्च धार्मिक नेतृत्व पंचेन लामा को गायब कर दिया था। इससे वह दुनिया के सबसे लंबे समय तक अज्ञातवास में रहने वाले कैदियों में से एक बन गए हैं।

अमेरिका की तिब्बत पॉलिसी एंड सपोर्ट एक्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तिब्बती बौद्ध धर्मगुरुओं के चयन, शिक्षण और पूजा के संबंध में निर्णय विशेष रूप से आध्यात्मिक मामले हैं जिन्हें तिब्बती बौद्ध परंपरा के भीतर तिब्बती बौद्ध धर्म के उचित धार्मिक अधिकारियों द्वारा और साधकों की खुद की इच्छा के अनुरूप ही किया जाना चाहिए।

चीनी सरकार राजनीतिक आलोचना के प्रति असहनशील है जिस कारण वहां हिंसा, मनमानी गिरफ्तारी, नजरबंदी और यातना की स्थिति आती है। प्रगतिशील आधुनिक दुनिया को यह जानकर नफरत होनी चाहिए कि चीनी सरकार ‘सामाजिक आकलन प्रणाली’ लागू कर रही है जिसके तहत व्यक्तियों के आकलन मूल्यांकन, उपभोक्ता व्यवहार, इंटरनेट उपयोग और आपराधिक रिकॉर्ड के आंकड़े एकत्र किया जाता है और अंत में नागरिकों को ‘विश्वसनीयता’ के संबंध में मूल्यांकन करता है।

इसलिए भारत के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह तिब्बती मुद्दे का समर्थन करे, अपनी तिब्बत नीति पर फिर से विचार करे। चीन की नाराज़गी का अब कोई डर नहीं है। अमेरिका की स्थिति पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है। अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के सैन्य गठजोड़ ‘क्वाड’ का गठन, नई दिल्ली की स्थिति को पहले से कहीं अधिक मजबूत बनाता है, जो कि अब तक की मानसिकता के ठीक उलट है।

नोट : राहुल कश्यप सार्वजनिक मामलों और अंतरराष्ट्रीय संबंध के प्रसिद्ध विशेषज्ञ हैं। आलेख में मौजूद विचार लेखक के निजी विचार हैं।

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