- एन.एस.वेंकटरमन।
छह दशक से अधिक बीत चुके हैं, जब चीन ने सेना भेजकर तिब्बत पर जबरन कब्जा कर लिया और विरोध करने वाले तिब्बतियों को निर्दयतापूर्वक कुचल दिया था। इसके बाद दलाई लामा और उनके अनुयायियों के पास तिब्बत छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
उधर, अब चीन तिब्बती क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए कड़े कदम उठाता जा रहा है। यह तिब्बत में चीनी मूल के लोगों को बसाने और तिब्बतियों की उस वर्तमान पीढ़ी का दिमाग बदलने के लिए व्यवस्थित रूप से उपाय कर रहा है, जिस पीढ़ी ने दलाई लामा को नहीं देखा है। कुल मिलाकर चीन तिब्बत के इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश कर रहा है।
हालांकि, अब यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि चीन तिब्बती भावना को कुचलने में पूरी तरह से सफल नहीं हुआ है। यह इस तथ्य से और अधिक साबित होता है कि चीन किसी अन्य देश के नागरिकों को तिब्बत की यात्रा करने और इस महान बौद्ध क्षेत्र में अपने लिए परिस्थितियों को देखने की अनुमति देने के लिए तैयार नहीं है। जाहिर है, चीन के पास तिब्बत में दिखाने से कहीं अधिक छिपाने के लिए है। चीन अब लोहे के पर्दे से तिब्बत की रक्षा कर रहा है।
निर्वासित तिब्बतियों ने अपनी खुद की एक सरकार बनाई है और तिब्बत के साथ हुए अन्याय के बारे में लगातार आवाज उठा रहे हैं और चीन के आक्रामक नियंत्रण से तिब्बत की मुक्ति और स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं। कई तिब्बती संघ लोकतांत्रिक देशों में कार्य कर रहे हैं। हालांकि, जमीनी हकीकत यह है कि तिब्बत को मुक्त करने के लिए तिब्बतियों का रोना अरण्य रोदन बन कर रह गया है क्योंकि दुनिया ने कुल मिलाकर तिब्बत की दुर्दशा को नजरअंदाज कर दिया है।
भारत ने तिब्बतियों को रहने और अपनी सरकार चलाने के लिए जगह दी है, इससे ज्यादा कुछ नहीं किया है। एक बार अमेरिकी सरकार ने भी तिब्बतियों की दुर्दशा के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की है लेकिन इससे आगे कुछ नहीं किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिकी सरकार सोचती है कि अमेरिका में तिब्बती संघों को कार्य करने की स्वतंत्रता देना भी ही वर्तमान के लिए पर्याप्त है।
एक जमीनी सच्चाई यह है कि छह दशकों में मूल रूप से तिब्बत के कई तिब्बती परिवार दूसरे देशों में चले गए हैं और परिवारों के वंशज दूसरे देशों के नागरिक बन गए हैं। जबकि वे चीनी सरकार के हाथों तिब्बत द्वारा झेले गए अपमान के बारे में चिंतित हैं। वे इससे अधिक कुछ नहीं कर सकते हैं और हकीकत के विरुद्ध आशा करते हैं कि भविष्य में किसी समय कोई चमत्कार होगा जब तिब्बत को उसकी स्वतंत्रता और गौरव वापस मिल पाएगा। आज किसी को यकीन नहीं है कि ऐसा होगा और कैसे होगा या नहीं होगा।
साल 1960 के दशक में, जब चीन ने तिब्बत में प्रवेश किया तो भारत एक ऐसा देश था जो इसका विरोध कर सकता था और इसे चीनी सरकार का एक नाजायज कृत्य करार दे सकता था। दूसरी ओर, तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जो स्वयं एक प्रसिद्ध इतिहासकार थे, अपने कर्तव्य में विफल रहे और चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे को लगभग मंजूरी दे दी।
बाद में, एक अनुभवी राजनेता के रूप में माने जानेवाले भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तिब्बत पर कब्जे के इस जले पर और नमक छिड़कते हुए चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे को आधिकारिक मंजूरी दे दी और तिब्बत के भाग्य को लगभग सील कर दिया। इसलिए, इतिहास यह दर्ज करेगा कि चीन के अलावा भारत भी प्रमुख देश रहा है, जिसने चीनी आक्रमण पर चुप रहकर और तिब्बत पर चीन के अस्वीकार्य कब्जे के लिए किसी प्रकार की स्वीकृति प्रदान करके तिब्बत के हितों के खिलाफ काम किया है।
जब भारत ने इस तरह से कार्रवाई की तो दुनिया भी चुप रही। इस तरह तिब्बत को अकेला और तिब्बतियों को अकेले ही आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए छोड़ दिया गया। अब समय आ गया है कि भारत को तिब्बत पर चीन के कब्जे को मंजूरी देने में अपनी ऐतिहासिक गलती का प्रायश्चित करना चाहिए। आज भारत को चीन की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं का पूरा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है और उसे अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए बार- बार चीन के खिलाफ लड़ना पड़ रहा है। चीन भारत के राज्य अरुणाचल प्रदेश को अपना होने का दावा करता है और उसने भारत की प्रगति को किसी भी तरह से नियंत्रित करने और रोकने की अपनी महत्वाकांक्षा को छुपाया नहीं है।
वर्तमान में चीन भारत को अपना प्रमुख शत्रु मानता है जबकि वह अमेरिका को अपना प्रतिद्वंदी मानता है। अफ़ग़ानिस्तान तालिबानों के नियंत्रण में है और भारत का सबसे बड़ा दुश्मन पाकिस्तान और चीन एक साथ काम कर रहे हैं और इस्लामी आतंकवादी भारत को निशाना बना रहे हैं। भारत को चीन के खिलाफ आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी।
भारतीय राजय अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा करने के लिए अपनी सेना भेजने के अलावा चीन ने पहले ही भारत को काफी नुकसान पहुंचा रखा है। ऐसी परिस्थितियों में, भारत का चीन को खुश करने या चीन के साथ शांति स्थापित की कोशिश करना बेकार और यहां तक कि अपमानजनक भी है। तिब्बत पर चीन का कब्जा भारत के लिए एक बड़ा सैन्य खतरा है। यह ज्ञात तथ्य है कि चीन पहले से ही भारत को निशाना बनाकर तिब्बत में एक मजबूत सैन्य अड्डा बना रहा है।
अब, भारत के पास बिना किसी हीला-हवाली किए चीन के खिलाफ मुखर होने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उसे चीन की आक्रामक क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को दुनिया की नजरों में बेनकाब करना होगा और दुनिया को इस बात का एहसास कराना चाहिए कि अपनी सैन्य और आर्थिक ताकत के बावजूद चीन अब
आर्थिक रूप से एशिया और अफ्रीका में अपने आकाश को सैन्य रूप से विस्तारित करने की अघोषित महत्वाकांक्षा के कारण शांति का खलनायक बन गया है। ऐसा करने का प्रभावी और एकमात्र तरीका निर्वासित तिब्बती सरकार को तिब्बत की वैध सरकार के रूप में मान्यता देना है। अगर भारत इस तरह बिल्ली के गले में घंटी बांध पाता है तो उसका मंतव्य निश्चित रूप से साफ हो जाएगा। संभवतः अमेरिका और उसके जैसे अन्य लोकतांत्रिक देश भी इसका अनुसरण करेंगे, यही तिब्बत के लिए अपनी मुक्ति और स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रारंभिक बिंदु होगा। जहां तक तिब्बती मुद्दे की बात है तो गेंद साफ तौर पर भारत के पाले में है।
वर्तमान में, कई देशों को चीन के इरादों और तरीकों के बारे में चिंता है और मुख्य रूप से चीन को मात देने के लिए देशों के बीच गठजोड़ बनाए जा रहे हैं। अभी लोहा गर्म है और हथौड़ा मारने करने का समय आ गया है। तिब्बत को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देकर भारत चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षी योजनाओं और रणनीतियों के आगे बढ़ने में एक मजबूत प्रतिरोध पैदा करेगा।
इस प्रक्रिया में, दुनिया एक बेहतर जगह बन जाएगी क्योंकि दुनिया को तिब्बत की स्वतंत्रता और देश की गरिमा को बहाल करने और तिब्बत को वैश्विक क्षेत्र में उसका सही स्थान देने का अपना कर्तव्य निभाना होगा।
नोट : एन.एस. वेंकटरमन एक गैर-लाभकारी संगठन ‘नंदिनी वॉयस फॉर द डिप्राइव्ड’ के ट्रस्टी हैं। इस ट्रस्ट का उद्देश्य दलित और वंचित लोगों की समस्याओं को उजागर करना और उनके मुद्दे का समर्थन करना, निजी और सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देना और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर निष्पक्ष और उद्देश्यपूर्ण तरीके से विचार-विमर्श करना है। यह लेखक के निजी विचार हैं।
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