- डॉ. वेदप्रताप वैदिक।
इधर कोरोना से भारत निपट ही रहा है कि उधर चीन और नेपाल की सीमाओं पर सिरदर्द खड़ा हो गया है लेकिन संतोष का विषय है कि इन दोनों पड़ोसी देशों के साथ इस सीमा-विवाद ने तूल नहीं पकड़ा।
हमारे कुछ अतिउत्साही टीवी चैनल और अखबार कुछ नेपाली और चीनी अखबारों की तरह काफी भड़के हुए दिखाई पड़ रहे थे लेकिन तीनों देशों को दाद देनी होगी कि उन्होंने संयम से काम लिया और अपने विवादों को वे बातचीत के द्वारा सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं।
नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने जरुर अपने बयानों में मर्यादा का उल्लंघन किया लेकिन वह उनकी मजबूरी थी, क्योंकि भारत पर लांछन लगाकर वे अपने पार्टी-प्रतिद्वंदियों की हवा ढीली करना चाहते थे लेकिन हम जरा देखें कि भारत के प्रधानमंत्री और चीन के राष्ट्रपति ने इस विवाद पर कैसे मौन साधे रखा।
नेपाल ने नया नक्शा बनाया और उसमें सारा कालापानी और लिपुलेखवाला इलाका अपनी सीमा में दिखा दिया। 1816 की सुगौली-संधि का एकतरफा चित्रण करके उस नक्शे को ओली ने अपनी संसद की मोहर के लिए भी पेश कर दिया।
विपक्ष की नेपाली कांग्रेस को भी मजबूरी में हां करनी पड़ गई। अब नेपाल का कहना है कि भारत तुरंत बातचीत शुरु करे। कोरोना का बहाना न बनाए। दोनों देशों के विदेश सचिव इंटरनेट पर ही बात करें। (यदि नहीं करेंगे तो नई सीमा-रेखा पर नेपाली संसद मुहर लगा देगी)।
भारत अभी तक बातचीत को क्यों टालता रहा, समझ में नहीं आता लेकिन नेपाल की जल्दबाजी भी आश्चर्यजनक है। नेपाल को चाहिए कि वह चीन से कुछ सीखे। कल दोनों तरफ के फौजी अफसरों का संवाद 7-8 घंटे चला लेकिन अब यह तय हुआ है कि सारे मामले पर कूटनीतिक वार्ता हो।
यदि कूटनीतिक वार्ता से भी मामला हल नहीं होगा तो फिर राजनीतिक स्तर पर सीधा संवाद होगा। इससे क्या जाहिर होता है? यही कि दोनों देश परिपक्वता का परिचय दे रहे हैं। दोनों देशों ने वास्तविक नियंत्रण-रेखा पर से अपनी फौजी उपस्थिति को घटा लिया है।
चीन को यह विश्वास हो गया है कि किसी तीसरे देश के इशारे पर भारत अपने पड़ौसी से पंगा नहीं लेना चाहता है। क्या चीनी नेता और कूटनीतिज्ञ यह नहीं देख रहे होंगे कि भारत सरकार ने चीनी माल के बहिष्कार के समर्थन में एक शब्द भी नहीं बोला है?
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