चित्र: वरिष्ठ रंगमंच अभिनेता आलोक चटर्जी।
रंगमंच जिसे अंग्रेजी में हम थियेटर कहते हैं, एक ऐसी विद्या है जो न केवल आपके व्यक्तित्व विकास में सहायक है बल्कि वो समाज और आस-पास होने वाली हर गतिविधि को देखने का नजरिया बदल सकती है। वैसे तो इस विद्या में पारंगत कई अभिनेता और अभिनेत्री हैं, लेकिन इन्हीं में से एक चर्चित अभिनेता हैं ‘आलोक चटर्जी’।
साल 1987 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के गोल्ड मेडलिस्ट रहे आलोक एनएसडी में हिंदी सिनेमा के मशहूर अभिनेता इरफान खान के बैचमेट थे। बाद में नवंबर 1990 में उन्होंने थियेटर ग्रुप ‘दोस्त’ की शुरूआत की। उनके प्रसिद्ध नाटकों में ‘नटसम्राट’ और ‘डेथ ऑफ ए सेल्समैन’ का नाम काफी चर्चित हैं। हालही में उन्होंने उत्तरप्रदेश के बरेली में ‘नटसम्राट’ का 30वां मंचन किया। वर्तमान में वह मप्र नाट्य विद्यालय में डायरेक्टर हैं।
मध्यप्रदेश में रंगमंच की शुरूआत
आजादी के पहले से ही मध्यप्रदेश (जब मप्र नहीं बना था, उस समय इस क्षेत्र के अंतरगत आने वाले शहर) में थियेटर के बारे में लोग जागरुक हो चुके थे। कुछ शौकिया तो कुछ मराठी, बांग्ला, तमिल, कन्नड़ समाज के लोग अपने-अपने समुदाय में तीज-त्योहार के समय नाटक किया करते थे।
टेकोहंट टाइम्स को दिए इंटरव्यू में आलोक चटर्जी बताते हैं, ‘आधुनिक नाटक आजादी के पहले भी यहां होते रहे हैं, जब यह मप्र नहीं बना था। जबलपुर ग्वालियर, भोपाल, उज्जैन, और रायपुर, बिलासपुर (छत्तीसगढ़ बनने से पहले मप्र के शहर) सब उसके बड़े केंद्र रहे हैं। लेकिन फिर भी रंगमंच मूल रूप में शौकिया रंग समूह पर और उनके काम पर ही आगे चल रहा था। उनके पास आज के समय के अनुरूप आर्थिक संसाधन और संभावना नहीं थी।’
रंगमंच अब रोजगार का बना है जरिया
वह बताते हैं कि हालही के वर्षों में जैसे स्पोर्ट्स, संस्कृति को करियर के रूप में पहचान मिली है ठीक उसी तरह रंगमंच भी रोजगार और व्यवसाय के रूप में देखा जाने लगा है। रंगमंच करने के बाद आप कोई ड्रामा स्कूल में जा सकते हैं। अच्छे ड्रामा स्कूल से आप अच्छे फिल्म इंस्टीट्यूट्स में जा सकते हैं या आप थियेटर और सिनेमा में वहां बेहतर तरह से काम कर सकते हैं।
केंद्र और राज्य सरकारा द्वारा रंगमंच के लिए काफी आर्थिक सहायता दी जा रही है। इसमें फेस्टिवल, व्यक्तिगत, सैलरी, लाइब्रेरी, इक्युपमेंट, बिल्डिंग ग्रांट दी जा रही है। हर तरह की चीजों के लिए सरकार सुविधा दे रही है। रजिस्टर्ड थियेटर ग्रुप और थियेटर से जुड़े लोग फायदा लेकर काम कर रहे हैं। कई लोगों ने स्टूडियो थियेटर तैयार कर लिए है, जिसमें वह उसमें अपना काम कर रहे हैं और पार्ट-टाइम रंगमंडल के कई पुराने स्थापित रंगकर्मी अपनी संस्थाओं को चला रहे हैं।
मप्र में भारत भवन रंगमंडल हुआ करता था। वो 1997 में बंद हो गया। उसके बादे जून 2011 में मप्र नाट्य विद्यालय अस्तित्व में आया और पिछले कुछ वर्षों में इसने अपनी अंतरराष्ट्रीय पहचान बना ली है और यहां पूरे देश के राज्य से विद्यार्थी आते हैं। हमारे बहुत से विद्यार्थी केंद्रीय सरकार की फैलोशिप, संगीत नाटक अकादमी, मंत्रालय में काम कर रहे हैं और एनएसडी के छात्र के रूप में अध्ययन कर रहे हैं।
विवि में रंगमंच का शिक्षक क्यों नहीं?
थियेटर जब रोजगार का एक जरिया बनता जा रहा है ऐसे में हर विश्वविद्यालय (विवि) में नाट्य विभाग होना चाहिए। हर स्कूल में (हायर सेकेंड्री लेवल पर) एक थियेटर का टीचर होना चाहिए। जब स्कूल में पीटी मास्टर, म्युजिक टीचर, डांस टीचर, पेटिंग टीचर होता है तो थियेटर के लिए टीचर क्यों नहीं होता? हालांकि देश में वर्धा, हैदराबाद, जयपुर और भोपाल की कुछ विश्वविद्यालयों ने पहल की है। वक्त आज विशेषज्ञता हासिल करने का है, ऐसे में रोजगार के अवसर भी जन्म लेंगे।
भारत में बच्चों के रंगमंच की स्थिति
पूरी दुनिया में बाल रंगमंच विकसित है। जहां समाज शिक्षित है वहां पर बाल रंगमंच को बहुत बड़ी जगह दी जाती है। कहते है बाल मन को आसानी से समझ सकते हैं बचपन में बाल मन सबसे ज्यादा ग्रहणशील और कल्पना शील होता है और कला में ग्रहणशीलता और कल्पनाशीलता दोनों ही चाहिए।
विदेशों में बाल रंगमंच संबंधित लेखन नाटक को एक बहुत बड़ी जगह दी गई है। हमारे यहां भी प्रेमचंद्र से लेकर रविंद्र नाथ टैगोर ने बच्चों के ऊपर लिखा है। कई युवा निर्देशक/निर्देशिकाएं हैं जो बाल रंगमंच को नई उंचाईयां दे रहे हैं, लेकिन वो मुख्यधारा में नहीं आप पाते थे वो बच्चों के साथ काम करते हैं इसलिए उन्हें कोई गिनता नहीं जब कि वो बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण काम करते हैं। वो सोशल कम्युनिकेशन के जरिए स्कूल, कॉलेज, एनजीओ, दिव्यांग बच्चों के साथ एक बेहतर कार्य कर रहे होते हैं। उनको भी एक प्लेटफार्म मिलना चाहिए और नाट्य विद्यालय में बड़ों का ही रंगमंच नहीं होता है बच्चों के रंगमंच को भी हम प्रोत्साहन दे रहे हैं। यह एक छोटी सी पहल है और भविष्य में हम सरकार से अनुमति लेकर और अधिक विस्तार करेंगे।
जो रिश्ते हैं, क्या वो व्यवस्थित हैं?
आज सब कुछ होते हुए भी व्यक्ति अकेला है। नटसम्राट एक ऐसे ही चरित्र की कहानी है। क्यों आज वृद्धाश्रम बढ़ रहे हैं? और यहां क्यों आर्थिक रूप से कमजोर लोग ही नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से बहुत संपन्न लोग जो कभी सरकारी सेवाओं में अधिकारी रहे वो यहां मिलते हैं? सवाल कई है और उसका उत्तर यही है कि वो अकेलेपन के शिकार हैं। जो रिश्ते हैं, क्या वो व्यवस्थित हैं? क्या जो लोग अपने घर से दूर हैं वो खुद वहां अकेले हैं। यूं कहें तो अकेलेपन और बुढ़ापे से ग्रसित हैं तो उससे बचने के लिए वो लोग वृद्धाश्रम में रहते हैं। हमारे समाज में जब से संयुक्त परिवार टूटे हैं, और एकल परिवार सामने आए हैं। तब से यह समस्या बेहद गंभीर होती जा रही है। सांस्कृतिक इकोलॉजी विघटन का प्रतीक बन चुकी है। जिसका असर सीधा हमारे युवाओं और आने वाली नई पीढ़ी पर पढ़ेगा। ‘नटसम्राट’ इसी मुद्दे को उठाता है, और हमारी कोशिश है कि यह बात जन समान्य तक पहुंचे।
क्यों होती है आर्थिक मंदी
‘डेथ ऑफ ए सेल्समैन’ ऐसे समाज की कहानी है जो भारतीय मध्यमवर्ग जूझ रहा है। पिछले 10 साल से वो है उपभोक्तावाद के बढ़ते आक्रमण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जीवन के हर क्षेत्र में आगमन से विचलित है। ये अमेरिका में 1940-50 के पहले का दौर था। आर्थिक मंदी के दौरान और उस समय जॉब क्रियेट की गईं थी। एक सेल्समैन होगा, उसे कमीशन मिलेगा। पुराने लोग थे कंपनी में नौकर रख लेते थे। नाटक का नायक अपने अतीत में जाता है। जब जीवन सब ठीक था। जब उसका अपने बेटों से भी अच्छा संबंध था। उसका दुर्भाग्य है कि उसके बेटे बड़े हो गए हैं और बेरोजगार हैं। उसे मदद की जरूरत है। लेकिन उपभोक्तावाद कैसे लोगों को मारता है उसमें एक डॉयलॉग है, ‘जब हमने अपना घर लिया था। तो ये जगह शहर से काफी दूर थी और आस-पास डेफोडिल और बोगनवेलिया के फूल हुआ करते थे।’
इरफान शुरू से थे क्लियर
आलोक चटर्जी, बॉलीवुड अभिनेता इरफान खान के बैचमेट रहे हैं वो उनके बारे में बताते हैं, ‘वो शुरू से क्लियर थे कि फिल्म अभिनेता बनना है। वो एक ईमानदार विद्यार्थी के रूप में बेहतर थे। वो अच्छी फिल्में देखते थे। किताबें पढ़ते थे। झूठ नहीं बोलते थे। उन्होंने कई साल तक तैयारी की उसके बाद एक लंबा सफर। उनसे सीखना है तो धैर्य सीखिए। क्योंकि प्रतिभा होने के साथ आपके कई बार अपने वक्त का इंतजार करना पढ़ सकता है।’ नवाजुद्दीन को 14 साल इरफान को 10 साल मनोज वाजपेयी को 5 साल मैनस्ट्रीन सिनेमा में आने में लगे। प्रतिभावान लोगों को भी इंतजार करना पड़ता है।
व्यक्तित्व विकास का बेहतर माध्यम
वो बताते हैं कि थियेटर से दिलचस्प कोई किताब नहीं, उससे बड़ा कोई विद्यालय नहीं, इससे बड़ा कोई केनवास नहीं, जिसमें कोई रिश्ता ऐसा ना हो जो ना समाता हो। ऐसे कोई भावनाएं नहीं जो व्यक्त नहीं की जा सकती हो। इसमें सब कुछ बताया जा सकता है। रंगमंच व्यक्तित्व विकास का सबसे बड़ा माध्यम है। रंगमच हमें तीनों काल से जोड़ता है। लेकिन काम हमें वर्तमान में करना सिखाता है। वो हमें वास्तविक लोकतंत्र से जोड़ता है, जहां तमाम तरह की असहमतियां के रूप में हम टीम के रूप में जुड़कर काम करते हैं।
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