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मुद्दा : ये शर्म का विषय नहीं, फिर इस विषय पर बात क्यों नहीं?

  • रविकांत द्विवेदी, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और सामाजिक मुद्दों पर लिखते हैं।

बहुत सारी सरकारी योजनाएं, लेकिन जमीनी हकीकत आज भी बहुत सारे आंकड़ों से छत्तीस का आंकड़ा रखती हैं। लोगों के लिए ये आज भी शर्म और शर्मिंदगी का विषय है, इससे अधिक और कुछ नहीं। हद तो तब हो जाती है जब मेट्रोपोलिटन शहरों में रहने वाली लड़कियां आज भी ‘सैनिटरी पैड’ को मेडिकल की दुकान से तब खरीदना पसंद करती हैं जब दुकान पर कोई नहीं हो?

देश में बुलेट ट्रेन चलाने की तैयारी है, हम टू जी से धीरे-धीरे 5 जी की ओर चल पड़े हैं। अब तो लगभग सारा काम ही ऑनलाइन हो रहा है, कुल मिलाकर हम दिनों दिन तरक्की की नई सीढ़ियां चढ़ रहे हैं, नये आयाम गढ़ रहे हैं। ऐसे में अगर आपसे ये कहूं कि पीने के पानी के लिए आपको 2 किलोमीटर का पहाड़ लांघकर जाना है तो शायद आपके होश फाख्ता हो जाएं… सुनने में आपको थोड़ा अटपटा ज़रुर लग रहा होगा, लेकिन देश के कुछेक इलाको की यही कड़वी सच्चाई है। दूर-दराज के इन इलाकों में आज भी स्थिति सदियों पुरानी जैसी ही है, कुछ भी बदलाव नहीं हुआ है।

हम बात कर रहे हैं छत्तीसगढ़ के पण्ढरिया ब्लॉक के बसूलालूट गांव की। तकरीबन 90 लोगों का ये गांव आज भी पानी की समस्या से दिन रात लड़ता रहता है। यहां रहने वाली 34 साल की रामबाई को नहाने और पीने के पानी के लिए लगभग दो किलोमीटर के विशालकाय पहाड़ और उसके खतरनाक रास्ते को पार करना पड़ता है। रामबाई की मुश्किलें तब और बढ़ जाती है जब वो माहवारी के दिनो में होती हैं। वो 4-5 दिन तो इनके ऐसे गुजरते हैं जैसे दूसरा जन्म लेना पड़ा हो। पानी की दिक्कत और कपड़े की कमी के चलते वो एक ही कपड़े का इस्तेमाल करती है। बातचीत में ये पता चला कि ये वो कपड़े होते है, जिनका इस्तेमाल उन्होने करीब दो साल पहले माहवारी में किया था। फ्लो अधिक होने की दशा में वो उसी इस्तेमाल किये गये कपड़े को धोकर दुबारा इस्तेमाल करती हैं।

ऐसी ही स्थितियों से दो चार हो रही हैं यूपी के सहारनपुर की रहने वाली शालू बताती हैं कि पीरियड्स आने से दो-तीन दिन पहले वो खुद को मानसिक रूप से बीमार महसूस करती है। वो ये सोच कर सिहर जाती हैं कि उन दिनो में क्या इस्तेमाल करेंगी क्योंकि उनके पास सूती कपड़ा भी नहीं है। शालू के मुताबिक माहवारी के बारे में सोचते ही उन्हें सिरदर्द शुरु हो जाता है। पीरियड्स के दिनो में कई बार वो कुशन, पिलो कवर और बेड शीट भी खराब कर चुकी हैं, जिसके चलते उन्हें कई बार मां से डांट-फटकार मिली। आलम यह था कि एक बार गुस्से और हताशा में शालू ने दो दिनो तक खाना नहीं खाया। इससे निजात पाने के लिए वो अक्सर भगवान से प्रार्थना करती है कि उसके पीरियड्स हमेशा के लिए बंद हो जाएं।

ऐसी ही एक बानगी यूपी के फिरोजाबाद में देखने को मिली जहां के एक गांव में टिटनेस से एक महिला की मौत हो गई। हैरानी तब हुई जब ये पता लगा कि इसके मौत की असल वजह यह रही कि उसने माहवारी के दौरान फटे ब्लाउज़ का इस्तेमाल किया, जिसमें जंग लगा हुआ हुक लगा था। बात केवल रामबाई, शालू या फिर किसी और की नहीं बल्कि इनके जैसी हज़ारो महिलाओं की है जिनके लिए माहवारी किसी आपदा से कम नहीं और ख़ासकर तब जब हम ग्रामीण भारत की बात कर रहें हो।

हज़ारों ऐसी कहानियां सुनने व देखने को मिलती हैं जहां महिलाएं माहवारी के दिनो में सूखे पत्ते, घास, राख, बालू जैसी चीजें इस्तेमाल करती हुई पाई जाती हैं। सवाल है आखिर ऐसा क्यों… क्या ये अज्ञानता है, क्या उन्हें नहीं पता कि उन दिनो में क्या करना चाहिए या फिर उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वो ‘सैनिटरी’ पैड का खर्च उठा सकें।

वजह जानने की कोशिश में हम पहुचें ओडिशा के दारिंगबाड़ी इलाके के सुगापाड़ा गांव जहां हमने ‘कोइ’ जनजाति की महिलाओं से बात की, हमने पाया कि साल भर में केवल एक बार ही कपड़ा खरीद पाती हैं और पूरे साल उसी को इस्तेमाल करती हैं। जानकर हैरानी हुई कि वो कपड़े खरीदने के लिए स्थानीय साहूकारों से कर्ज लेती हैं, वजह साफ है आर्थिक तंगी। ऐसे में वो माहवारी के दौरान क्या करें और कैसे इसके स्राव को नियंत्रित करें, समझना बेहद जरुरी है।

बहुत सारी सरकारी योजनाएं हैं इसे लेकर, बहुत सारे संगठन भी काम करने का दंभ भर रहे हैं, लेकिन जमीनी हकीकत आज भी बहुत सारे आंकड़ों से छत्तीस का आंकड़ा रखती हैं। लोगों के लिए ये आज भी शर्म और शर्मिंदगी का विषय है, इससे अधिक और कुछ नहीं। हद तो तब हो जाती है जब मेट्रोपोलिटन शहरों में रहने वाली लड़कियां आज भी सैनिटरी पैड को मेडिकल की दुकान से तब खरीदना पसंद करती हैं जब दुकान पर कोई नहीं हो। खरीदने के तुरंत बाद ही उसे काली प्लास्टिक में लपेटना उन्हें काफी कंफर्टेबल बनाता है। चुपके से घर ले जाना और उसे संभालकर आलमारी के कपड़ों के बीच छुपाकर रखना उनके लिए काफी मुफीद होता है।

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