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यह श्रेष्ठ भारत का रास्ता नहीं

महावीर सरन जैन

 जनसत्ता 18 सितंबर, 2014: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का तर्क है कि अगर इंग्लैंड में रहने वाले अंगरेज हैं,

जर्मनी में रहने वाले जर्मन और अमेरिका में रहने वाले अमेरिकी हैं तो फिर हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिंदू क्यों नहीं हो सकते। भाजपा के गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने राज्य विधानसभा में तर्क पेश किया कि खाड़ी देशों में तो भारत के मुसलमान को भी हिंदू कहा जाता है। मोदी सरकार की एकमात्र मुसलिम मंत्री नजमा हेपतुल्ला (अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री) ने जोर देकर कहा है कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिंदू नहीं हैं, बल्कि हिंदी हैं। भाजपा के दो मुसलिम प्रवक्ताओं और अन्य अनेक नेताओं के बयान आते हैं कि हिंदू कोई धर्म नहीं है, यह भारत की राष्ट्रीयता का वाहक है, या हम सब हिंदुस्तानी हैं। इन सारे बयानों को पढ़ कर सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तानी शब्द भारत में आए कहां से, क्योंकि हमें ये शब्द मुसलमानों के भारत आगमन से पूर्व के रचित साहित्य में ढ़ूंढ़े से भी नहीं मिलते। इनका प्रयोग वेदों, उपनिषदों, गीता, महाभारत, रामायण, पुराणों में नहीं हुआ है।

ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में ‘स्’ ध्वनि नहीं बोली जाती थी। अवेस्ता में ‘स्’ का उच्चारण ‘ह्’ किया जाता था। उदाहरण के लिए, संस्कृत के असुर शब्द का उच्चारण अहुर किया जाता था। ‘हिंदी’ शब्द का विकास कई चरणों में हुआ है- सिंधु? हिंदु? हिंद+ई? हिंदी। अफगानिस्तान के बाद की सिंधु नदी के पार के हिंदुस्तान के इलाके को प्राचीन फारसी साहित्य में ‘हिंद’ और ‘हिंदुश’ नामों से पुकारा गया है। ‘हिंद’ के भूभाग की किसी भी वस्तु, भाषा और विचार के लिए विशेषण के रूप में ‘हिंदीक’ का प्रयोग होता था। हिंदीक माने हिंद का या हिंद की। यही हिंदीक शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में ‘इंदिका’ और ‘इंदिके’ हो गया। ग्रीक से लैटिन में यह ‘इंदिया’ और लैटिन से अंगरेजी में ‘इंडिया’ बन गया। यही कारण है कि अरबी और फारसी साहित्य में ‘हिंद’ में बोली जाने वाली जबानों के लिए ‘जबान-ए-हिंद’ लफ्ज मिलता है। 

भारत में आने के बाद मुसलमानों ने ‘जबान-ए-हिंदी’ का प्रयोग आगरा-दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली भाषा के लिए किया। ‘जबान-ए-हिंदी’ माने हिंद में बोली जाने वाली जबान। इस इलाके के गैर-मुसलिम लोग बोले जाने वाले भाषा-रूप को ‘भाखा’ कहते थे, हिंदी नहीं। कबीरदास की प्रसिद्ध पंक्ति है- संस्किरित है कूप जल, भाखा बहता नीर। अफगानिस्तान की सीमा से लगने वाली सिंधु नदी के पार का इलाका हिंद कहलाता था और उसके निवासियों को हिंदू कहा जाता था। इस नाते देखें तब तो सिंधु नदी के इस पार के पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान आदि समस्त देश हिंद हैं, यहां की भाषाएं हिंदी हैं और इन देशों के निवासी हिंदू हैं। मगर यह शब्द की व्युत्पत्ति का सत्य है। वर्तमान का सत्य नहीं है। वर्तमान का यथार्थ-बोध भिन्न है।

शब्द के अर्थ स्थिर नहीं होते, बदलते रहते हैं। इस संदर्भ में मुझे जनवरी, 2001 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के तत्कालीन अध्यक्ष लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के साथ एक वार्तालाप का स्मरण हो आया है। एक दिन मेरे घर पर भोजन करने के दौरान सिंघवीजी ने मुझसे कहा कि सेक्युलर शब्द का अनुवाद धर्मनिरपेक्ष उपयुक्त नहीं है। उनका तर्क था कि रिलीजन और धर्म पर्याय नहीं हैं। धर्म का अर्थ है, धारण करना। जिसे धारण करना चाहिए, वह धर्म है। कोई भी व्यक्ति या सरकार धर्मनिरपेक्ष किस प्रकार हो सकती है। इस कारण सेक्युलर शब्द का अनुवाद धर्मसापेक्ष्य होना चाहिए। 

उनसे मैंने निवेदन किया कि शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से आपका तर्क सही है। इस दृष्टि से धर्म शब्द किसी विशेष धर्म का वाचक नहीं है। जिंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। 

मगर संकालिक स्तर पर शब्द का अर्थ वह होता है जो उस युग में लोक उसका अर्थ ग्रहण करता है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से तेल का अर्थ तिलों का सार है, मगर व्यवहार में आज सरसों का तेल, नारियल का तेल, मूंगफली का तेल, मिट्टी का तेल भी ‘तेल’ होता है। कुशल का व्युत्पत्यर्थ है कुशा नामक घास को जंगल से ठीक प्रकार से उखाड़ लाने की कला। प्रवीण का व्युत्पत्यर्थ है वीणा नामक वाद्य को ठीक प्रकार से बजाने की कला। स्याही का व्युत्पत्यर्थ है जो काली हो। मैंने उनके समक्ष अनेक शब्दों के उदाहरण प्रस्तुत किए और अंतत: उनके विचारार्थ यह निरूपण किया कि वर्तमान में जब हम हिंदू धर्म, इस्लाम धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, सिख धर्म, पारसी धर्म आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं तो इन प्रयोगों में प्रयुक्त ‘धर्म’ शब्द रिलीजन का ही पर्याय है। 

अब धर्मनिरपेक्ष से तात्पर्य सेक्युलर से ही है। सेक्युलर या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म-विहीन होना नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि देश का नागरिक अपने धर्म को छोड़ दे। इसका अर्थ है कि लोकतंत्रात्मक देश में हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने का समान अधिकार है मगर शासन को धर्म के आधार पर भेदभाव करने का अधिकार नहीं है। इसका अपवाद अल्पसंख्यक वर्ग होते हैं जिनके लिए सरकार विशेष सुविधाएं तो प्रदान करती है मगर व्यक्ति-विशेष के धर्म के आधार पर सरकार की नीति का निर्धारण नहीं होता। उन्होंने मेरी बात से अपनी सहमति व्यक्त की। पता नहीं, भागवतजी मेरी बात से सहमत हो पाएंगे या नहीं।

वर्ष 1958 से लेकर 1962 तक मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था। वहां के रजिस्ट्रार मेरे पिताजी के मित्र केएल गोविल थे। उनके घर पर मेरी संघ के रज्जू भैया से अनेक बार मुलाकात हुई। उनका सोच यह था कि हमारे राष्ट्र की मूल धारा

एक है और वह धारा अविरल और शुद्ध रूप में प्रवाहित है। जो धाराएं हमारे देश में आक्रांताओं के द्वारा लाई गई हैं उन्होंने हमारी राष्ट्र-रूपी गंगा को गंदा कर दिया है। हमें उसे निर्मल बनाना है। मेरे दिमाग में उस समय से लेकर अब तक दिनकर की पंक्तियां गूंजती रही हैं कि भारतीय संस्कृति समुद्र की तरह है जिसमें अनेक धाराएं आकर विलीन होती रही हैं। एक दिन हमने रज्जू भैया से निवेदन किया कि आप जिन आगत धाराओं को गंदे नालों के रूप में देखते हैं, हम उनको इस रूप में नहीं देखते। आगत धाराएं हमारी गंगा की मूल स्रोत भागीरथी में आकर मिलने वाली अलकनंदा, धौली गंगा, अलकंदा, पिंडर और मंदाकिनी धाराओं की श्रेणी में आती हैं। राष्ट्रीयता अलग है और धर्म अलग है। एक ही धर्म मानने वाले एकाधिक देशों में रहते हैं। देश के हिसाब से राष्ट्रीयता है। व्यक्ति की आस्था की दृष्टि से धर्म है। भारत के संविधान ने निर्धारण कर दिया है कि इस देश में किसी के धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। 

मोहन भागवतजी भारत के बहुलतावाद को तो स्वीकार करते हैं। इसको स्वीकार करना विवशता है। मगर पंचों की राय सरमाथे पर, मेरा परनाला यहीं गिरेगा। इसी भाव से उनका वक्तव्य है कि हिंदुत्व ही एकमात्र ऐसा आधार है, जिसने भारत को प्राचीन काल से तमाम विविधताओं के बावजूद एकजुट रखा है। विविधताओं के बीच एकजुटता का कारण भारतीय मनीषियों की विशाल, उदार और सहिष्णु दृष्टि है। स्वाधीनता आंदोलन के समय तो पूरा देश एक स्वर से कहता था कि- ‘हिंदी हैं हम वतन हैं हिंदोस्तां हमारा’। मगर हिंदू शब्द को संकीर्ण और सांप्रदायिक बनाने का काम किसने किया। इसका उत्तर है कि यह काम उन संगठनों ने किया जिन्होंने कुर्सी हथियाने के लिए एक साधन मान लिया। इनके लिए भगवान राम साध्य नहीं थे, आराध्य नहीं थे, ‘ब्यापकु ब्रह्म अलखु अबिनासी/ चिदानंदु निरगुन गुनरासी’ नहीं थे; परमार्थ रूप नहीं थे। इनके लिए भगवान राम चुनावों में विजय-प्राप्ति के लिए केवल एक साधन थे। 

वर्तमान में, भारत को हिंदू राष्ट्र कहने पर और भारत में रहने वाले समस्त नागरिकों को हिंदू मानने पर अनेक कठिनाइयां पैदा हो जाएंगी। क्या मोहन भागवत इंग्लैंड और अमेरिका में निवास करने वाले लाखों हिंदू धर्मावलंबियों से यह कहेंगे कि वे अपने को हिंदू न कहें? भारत के बाहर के देशों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के झंडे तले जो लोग हिंदू नाम से प्रचार-प्रसार कर रहे हैं, उनको यह कहेंगे कि वे हिंदू शब्द का प्रयोग करना बंद कर दें? अगर सभी धर्मों और उपासना पद्धतियों में विश्वास करने वाले भारतीय हिंदू हैं तो क्या मोहन भागवत अयोध्या में मस्जिद गिराने वालों की भर्त्सना करेंगे? क्या भागवत भारत के सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म मानने वालों को हिंदू मानेंगे? 

अगर भारत के संविधान के अनुसार भारत के सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म मानने वाले भारतीय हैं तो भारतीय शब्द से मोहन भागवत को क्या आपत्ति है? जो शब्द वेदों, उपनिषदों, पुराणों में नहीं है, रामायण और महाभारत में नहीं है, गीता में नहीं है, उस शब्द के प्रति मोहन भागवत को इतनी आसक्ति क्यों है? 

भारत में रहने वाले लोग ही अगर  हिंदू हैं तो नेपाल में रहने वाले लोगों से यह कहेंगे कि आप हिंदू नहीं हैं, आप केवल नेपाली हैं, हिंदू तो भारत में निवास करने वाले ही हैं? क्या मोहन भागवत सिंधु नदी के इस पार के पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान आदि समस्त देशों के निवासियों को हिंदू कहेंगे? अगर वे कहेंगे भी तो उनकी बात कौन मानेगा! आप क्यों भारत के सिंधु नदी के इस पार के पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान आदि से हमारे देश के संबंध बिगाड़ना चाहते हैं?

समाज में सांप्रदायिक तनाव और नफरत फैला कर अच्छे दिन नहीं आ सकते। जो समाज के विभिन्न वर्गों के बीच जहर घोलने का काम कर रहे हैं, प्रधानमंत्री उनकी खुलेआम भर्त्सना क्यों नहीं कर रहे। मोदीजी के भक्त और कट््टर हिंदूवादी संगठन भारत के कुछ वर्गों की निष्ठा पर संदेह करते हैं। 1962 के भारत-चीन युद्ध में और 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान के युद्धों में भारत में रहने वाले समस्त धर्मों, वर्गों, जातियों, राज्यों के लोगों ने जिस एकजुटता का परिचय दिया है वह हमारे देश की सबसे बड़ी शक्ति है। इसी शक्ति का संबल लेकर श्रेष्ठ भारत का निर्माण संभव है। अगर इस शक्ति को खंडित करने वाली ताकतों को मोदीजी ने नहीं रोका तो भारत में अच्छे दिन कभी नहीं आ सकते। श्रेष्ठ भारत का निर्माण खंडित भारत से संभव नहीं है। सबका साथ, सबका विकास की भावना से ही हो सकता है। यह नारा मोदीजी का है। मगर उनकी पार्टी और पार्टी से जुड़े संगठन भारतीय समाज की मूलभूत एकता को तार-तार करने में लगे हैं। रोम जल रहा है और नीरो बांसुरी बजा रहा है। 

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