चित्र : भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद।
भारत में जाति और वर्ग आधारित राजनीति, आजादी के बाद से ही शुरू हो चुकी थी। पहले कांग्रेस और अब भारतीय जनता पार्टी सभी इसी फार्मुले पर वोट बैंक बनाते हैं। वो विकास की बात करते हैं, लेकिन विकास वहीं होता है जहां नेता और अधिकारियों को फायदा मिलता है।
विकास देखना है तो छोटे शहरों और खासतौर पर गांव में जाइए और खुद देखिए! आजादी के कई साल बाद क्या बदला? मौजूदा सत्तारुढ़ दल भाजपा कह सकती है, उन्होंने बहुत कुछ किया लेकिन बहुत कुछ करने के लिए कितना कुछ हटा और मिटा दिया गया, इस पर उनके नेता मौन रहते हैं? या आक्रोशित हो जाते हैं। तर्क आधारित हर सवाल का कुतर्क करना अब भारतीय राजनीति की पहचान बन गई है। अमूमन यह सभी राजनीतिक दल करते हैं।
जाति और वर्ग का पॉलिटिकल गेम इतना बड़ा है कि राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद को भी एक वर्ग विशेष के व्यक्ति को सौंपा जाने लगा है, जहां यह प्रोपेगेंडा तैयार किया जाता है कि उस विशेष वर्ग के नेता को भारत के सर्वोच्च पद पर आसीन करने से, उस विशेष वर्ग को सम्मान दिया जा रहा है।
25 जुलाई, 2017 ये वो तारीख थी जब रामनाथ कोविंद, भारत के 14वें राष्ट्रपति बने। उनका राष्ट्रपति बनना उस समय दलितों को सम्मान देना कहा गया। इसे भारतीय जनता पार्टी ने, प्रोपेगेंडा के जरिए बड़े स्तर पर प्रचारित भी किया था।
लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या एक दलित वर्ग के नेता को (जोकि अपने समय तक दलित की परिभाषा से बाहर आ चुके थे) राष्ट्रपति पद पर पहुंचाकर, क्या वकाई देश के बाकी दलितों को सम्मान मिल पाता है?
दलित शब्द का प्रोपेगेंडा
दरअसल, ‘दलित’ शब्द भारतीय समाज के सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिकता में निचली जातियों को संदर्भित करता है। महात्मा गांधी ने उन्हें ‘हरिजन’ के रूप में महिमामंडित किया, तो अम्बेडकर इस शब्द के घोर निंदक थे। यह ब्रिटिश सरकार ही थी जिसने उन्हें ‘अनुसूचित जाति’ के रूप में वर्गीकृत किया था।
जब भाजपा ने रामनाथ कोविंद को एनडीए का राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया था और चूंकि वह एक दलित जाति से हैं, तो ऐसा लगा था जैसे ‘दलित होना’ अचानक भारतीय राजनीति में एक गुण बन गया हो। हैरान करने वाली बात तो यह थी कि उनकी व्यक्तिगत विशेषताओं और क्षमताओं पर चर्चा करने के बजाय, सार्वजनिक चर्चा का पूरा ध्यान उनकी जाति की पृष्ठभूमि पर था। उस समय के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कोविंद की उम्मीदवारी की घोषणा करते हुए, उनकी जाति का लगभग 15 बार उल्लेख किया था।
बीते 5 साल में दलितों पर अत्याचार
केंद्रीय गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2009 और 2015 के बीच, दलितों के खिलाफ अपराध (अत्याचार के मामलों सहित) के लगभग 2,27,000 मामले दर्ज किए गए। 2009-2013 के दौरान दलित हत्याओं की 3,194 घटनाएं हुईं, 7,849 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। इस अवधि के दौरान, आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के सात राज्यों में कुल अपराधों और अत्याचारों का 80 प्रतिशत हिस्सा था, अकेले यूपी में लगभग 25 प्रतिशत का हिसाब था।
तो वहीं, केंद्र सरकार ने संसद को बताया कि 2018 और 2020 के बीच विभिन्न राज्यों में दलितों के खिलाफ अपराध के तहत लगभग 139,045 मामले दर्ज किए गए हैं, जिसमें पिछले साल अकेले 50,291 ऐसे अपराध दर्ज किए गए थे।
गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश ने तीन वर्षों में अनुसूचित जातियों (एससी) के खिलाफ अपराध के अधिकतम 36,467 मामले दर्ज किए, इसके बाद बिहार (20,973 मामले), राजस्थान (18,418) और मध्य प्रदेश (16,952) हैं। दलितों के खिलाफ अपराध के मामले 2019 में 45,961 और 2018 में 42,793 थे।
एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 में, 11,829 मामलों के साथ, यूपी में दलितों के खिलाफ अपराध के सबसे अधिक मामले देखे गए, इसके बाद राजस्थान में 6,794 मामले और बिहार में 6,544 मामले सामने आए।
दलित राष्ट्रपति चुनने के पीछे की मंशा
साल 2014 से जब से हिंदू राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली है, दलितों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों की दुर्दशा तेज हो गई। खासकर भाजपा शासित राज्यों में दलितों पर हमले लगातार बढ़ रहे थे। हालांकि ये सिलसिला पहले भी जारी था। तब भारत के कई राजनीतिक विश्लेषकों ने रामनाथ कोविंद के नामांकन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस पूरे घटनाक्रम को ‘मास्टरस्ट्रोक’ करार दिया था।
इस तरह यह दर्शाया गया कि भाजपा दलितों के सशक्तिकरण में विश्वास करती है। उस समय, मोदी 2019 के आम चुनावों से पहले दलितों का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे थे। इसकी वजह एक यह भी थी कि उस समय दलितों और दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों के वोटों ने मोदी को 2014 में व्यापक जीत हासिल करने में मदद की थी।
रामनाथ कोविंद, देश के 14वें राष्ट्रपति चुन लिए गए जो एक प्रतीक के रूप में अपने 05 साल पूरे करने में कामयाब रहे। लेकिन भारत का दलित और दलित कार्यकर्ता आज भी हाशिए पर खड़ा है, उनकी स्थिति में सुधार ऊंट के मुंह में जीरे की तरह आया।
भाजपा के कार्यकाल में दलितों की स्थिति
पिछले वर्षों में दलितों को बहिष्कार और दमन का सामना करना पड़ा है, सबसे पहले, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के एक शोध छात्र रोहित वेमुला को कठोर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा आत्महत्या के लिए प्रेरित किया गया था। हालांकि, पीड़िता की मां और दोस्तों ने आरोप लगाया कि यह सब विश्वविद्यालय के प्रशासन में स्थानीय और राष्ट्रीय भाजपा नेतृत्व के दबाव के कारण हुआ। जब उनकी मां ने न्याय की मांग की, तो केंद्र सरकार द्वारा गठित आयोग के एक सदस्य ने उनकी वंशावली का पता लगाने के लिए अपने जनादेश से परे जाकर उन्हें अपमानित किया।
11 जुलाई 2016 को गुजरात के उना में कुछ दलित युवकों को मृत गाय की चमड़ी निकालने की वजह से गौ रक्षक समिति का सदस्य बताने वाले लोगों ने सड़क पर बुरी तरह पीटा था। गुजरात सरकार ने इस घटना का सिर्फ इसलिए संज्ञान लिया क्योंकि यह सोशल मीडिया पर वायरल हो गई थी। उसके बाद जब भी दलितों ने इसका विरोध किया तो उन पर हमला किया गया।
उत्तर प्रदेश में भाजपा का दलित विरोधी चेहरा सामने आया, जहां उनके उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने सबसे बड़े दलित नेताओं में से एक मायावती का वर्णन करने के लिए आपत्तिजनक और अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। बसपा कार्यकर्ताओं के साथ-साथ मायावती ने भी राज्यसभा में उनका विरोध किया, जिसके बाद उन्हें प्रतीकात्मक रूप से दरवाजा दिखाया गया।
बाद में, भाजपा के नेतृत्व ने अपदस्थ नेता की पत्नी स्वाति सिंह को न केवल विधानसभा का टिकट देकर, बल्कि यूपी में भाजपा के सत्ता में आने पर उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाकर दलितों को अपमानित किया। दलितों के जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए सरकार बनने के तुरंत बाद उसी नेता यानी दयाशंकर सिंह को बड़ी धूमधाम से पार्टी में बहाल कर दिया गया।
राजस्थान में डेल्टा मेघवाल और हरियाणा के भड़ाना में दलित महिलाओं के बलात्कार के मामले आए। दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और दोषियों को सजा नहीं दी गई। इस सूची में यूपी के सहारनपुर को भी जोड़ा जा सकता है, जहां तथाकथित ऊंची जातियों द्वारा दलितों को पीटा गया और उनकी झोपड़ियों को जला दिया गया। नव निर्वाचित भाजपा सरकार ने दलित युवाओं के नेतृत्व वाली भीम आर्मी को खलनायक के रूप में चित्रित किया।
उत्तर प्रदेश में दलितों को और अपमानित किया गया जब मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की यात्रा से पहले नागरिक प्रशासन ने दलितों को साबुन और शैम्पू दिया। लोगों ने विरोध किया तो सरकार की ओर से कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया गया। यही नहीं, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड, बघेलखंड क्षेत्रों में ऊंची जातियों द्वारा निचली जातियों के लोगों पर अत्याचार किए जाते हैं, सामाजिक बहिष्कार/सुरक्षा और गरीबी के कारण ज्यादातर दलित चुप रहते हैं।
बतौर, दलित राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविंद
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की विशेष चुनौती दलितों की पीड़ा को कम करना थी,क्योंकि उनकी योग्यता से परे उन्हें बतौर एक दलित राष्ट्रपति के रूप में भारत के सर्वोच्च पद पर सुशोभत किया गया, दलितों के उत्थान के लिए उन्होंने कोई ऐसा कार्य नहीं किया जो इतिहास याद रखे।
भारत के राष्ट्रपति पद के लिए वो पहले दलित नहीं थे जिन्हें राष्ट्रपति बनने का अवसर मिला, ठीक दो दशक पहले 1997 में के.आर. नारायणन को पहले दलित राष्ट्रपति के रूप में चुना गया था। उन्हें न केवल यूपी में बल्कि पूरे देश में बसपा के लगातार बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस पार्टी ने, राष्ट्रपति पद के लिए नामित किया था।
हालांकि, कांग्रेस यूपी में बसपा के उदय को नहीं रोक सकी और वह धीरे-धीरे यूपी से कांग्रेस का सफाया करती चली गई। क्या भारतीय जनता पार्टी का भी यही हश्र होगा, यह तो वक्त ही बताएगा।
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