चित्र : सुरक्षा परिषद की बैठक।
यूक्रेन में जंग जारी है। रूस हमलावर है। तो वहीं, बीते दिनों सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव वीटो किया जिसमें यूक्रेन पर रूसी हमले को तुरंत रोकने और रूसी सेनाओं को वहां से हटाने की मांग की गई थी। लेकिन रूस ने ऐसा नहीं किया और युद्ध जारी है।
सुरक्षा परिषद में 15 सदस्य हैं, जिनमें से 11 सदस्यों ने इस प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया, जबकि चीन, भारत और संयुक्त अरब अमीरात ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्यों में से, अगर कोई एक भी सदस्य विरोध में मतदान कर दे, तो सुरक्षा परिषद की कोई भी कार्रवाई या प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ सकते। किसी स्थाई सदस्य के विरोध में मतदान को ही वीटो कहा जाता है।
सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्य हैं, चीन, फ्रांस, रूसी महासंघ, ब्रिटेन, और संयुक्त राज्य अमेरिका। यूक्रेन मुद्दे पर चीन ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। यूक्रेन संकट को रोकने के लिए सुरक्षा परिषद (संयुक्त राष्ट्र के स्तर पर उन गतिविधियों का हिस्सा था जो देश में रूस की सैन्य कार्रवाई को रोकने के लिए है) लगभग पूरे सप्ताह और हर दिन, कूटनैतिक स्तर पर प्रयास किए गए लेकिन सारे प्रयास विफर रहे।
रूसी अधिकारी ने माफी मांगी माफी
संयुक्त राष्ट्र के एक प्रमुख जलवायु सम्मेलन में प्रतिनिधिमंडल के रूसी प्रमुख ओलेग अनिसिमोव ने यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के लिए माफी मांगी, जिसमें उन्होंने कहा, ‘मैं इस संघर्ष को रोकने में सक्षम नहीं सभी रूसियों की ओर से माफी मांगता हूं।’
डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं, वो बताते हैं कि ‘यूक्रेन में, रूस अपनी कठपुतली सरकार जब तक नहीं बिठा लेगा, वह चैन से नहीं बैठेगा। यूक्रेन के नेता कितनी ही बहादुरी के बयान झाड़ते रहें, उनकी हालत खस्ता हो चुकी है। सैकड़ों लोग मर चुके हैं, कई भवन ध्वस्त हो गए हैं और राजधानी कीव पर भी रूसी कब्जा बढ़ता चला जा रहा है।’
सुरक्षा परिषद में रूसी वीटो ने संयुक्त राष्ट्र संघ को नाकारा बना दिया है। बड़ी-बड़ी डींग मारने वाले नाटो राष्ट्रों और अमेरिका ने यूक्रेन की रक्षा के लिए अभी तक अपना एक भी सैनिक नहीं भेजा है। रूसी नेता पूतिन को पता है कि नाटो राष्ट्रों के भरोसे दम ठोकने वाले यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदोमीर जेलेंस्की का मनोबल गिर चुका है।
तो क्या युद्ध लंबा चल सकता है?
उन्हें इस बात का अंदाज है कि यह युद्ध लंबा चला तो यूक्रेन 30-40 साल पीछे चला जाएगा और हजारों लोग मारे जाएंगे। स्वयं जेंलेंस्की और उनके मंत्रियों का जिंदा रहना भी मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए पूतिन का बातचीत का निमंत्रण तो जेंलेंस्की ने स्वीकार कर लिया है लेकिन वे यह शांति-वार्ता बेलारुस में नहीं करना चाहते हैं। उनका आरोप है कि रूसी हमले में बेलारुस की भूमिका सबसे ज्यादा घृणित रही है।
उन्होंने ऐसे कई देशों के वैकल्पिक नाम सुझाएं हैं, जो सोवियत संघ के वारसा पेक्ट के सदस्य भी रहे हैं और पड़ौसी यूरोपीय देश भी हैं। मुझे लगता है कि पूतिन मान जाएंगे। यदि वे मान गए तो यूरोप को ही नहीं, सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था को गड्ढ़े में गिरने से वे बचा लेंगे। यदि यह युद्ध एक हफ्ते भी चलता रहा तो यूक्रेन और रूस तो आत्मघात का मार्ग अपने लिए खोल ही लेंगे, नाटो राष्ट्रों की भी बधिया बैठने लगेगी।
गुट-निरपेक्षता को फिर से जिंदा करने की जरूरत
यूरोप की संकटग्रस्त अर्थ-व्यवस्था से भारत जैसे राष्ट्रों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका के कई राष्ट्र भी रूस की तरह डंडे के जोर पर अपने पड़ौसियों से निपटने के लिए प्रेरित होंगे। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद राष्ट्रों के सैन्य-खर्च में जो कटौती हुई थी, वह अब दुगुने जोश के साथ बढ़ सकती है। अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के वर्तमान समीकरणों को भी यूक्रेन का युद्ध नई दिशा में ठेल रहा है।
अब रूस और चीन मिलकर विश्व राजनीति पर अपना वर्चस्व जमाने की पूरी कोशिश करेंगे। अब शायद भारत को नेहरु, नासिर और नक्रूमा की गुट-निरपेक्षता को फिर से जिंदा करने की जरुरत पड़ सकती है। यह केवल संयोग नहीं है कि अमेरिका के बाइडन, रूस के पूतिन और यूक्रेन के जेलेंस्की ने भी मोदी से बात करना जरुरी समझा।
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