- डॉ. पल्लिका सिंह, लेखिका, लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज, नई दिल्ली से दिल्ली स्थित डॉक्टर हैं। वह विचार विभाग (बौद्धिक प्रकोष्ठ), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए एक राष्ट्रीय समन्वयक और प्रभारी (दिल्ली-एनसीआर) भी हैं।
संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की परिभाषा के अनुसार स्ट्रीट चिल्ड्रन या बेघर बच्चे उन्हें कहा जाता है जो फुटपाथ पर काम करते हैं या रहते हैं, जिनका परिवार फुटपाथ पर रहता है या जो बच्चे अपने घर से भागने के बाद फुटपाथ पर रहते हैं।
वैसे तो भारत में बेघर बच्चों को लेकर हाल के दिनों में कोई आंकड़ा प्रकाशित नहीं हुआ है लेकिन साल 2000 में यूनिसेफ के अनुमान के मुताबिक़ भारत में 1 करोड़ 80 लाख बेघर बच्चे हैं जो दुनिया के किसी भी देश से ज़्यादा हैं। बुनियादी सुविधाओं और जीवन में आगे बढ़ने के अवसर से दूर ये बच्चे परिवार की देखभाल और सुरक्षा से भी वंचित हैं। ये बच्चे अपशब्दों और उपेक्षा के अलावा मौत का भी सामना करते हैं।
बच्चों के अधिकार को लेकर संयुक्त राष्ट्र की संधि विस्तार से शोषण और अपशब्दों से बच्चों की रक्षा, जीने के एक पर्याप्त स्तर के अधिकार और उचित विकास को सुनिश्चित करने के लिए पोषण, बंधुआ मज़दूरी से रक्षा, शिक्षा के अधिकार, गोद लेने के अधिकार के साथ-साथ नाम और राष्ट्रीयता के अधिकार का ज़िक्र करती है।
इन अधिकारों को भारत के संविधान ने भी स्वीकार किया है। इन क़ानूनों और कोशिशों के बावजूद बच्चों को बाल श्रम, तस्करी और शोषण में धकेला जाता है। महामारी के दौरान बच्चों की स्थिति और भी ख़राब हुई क्योंकि लोगों की आर्थिक स्थिति बिगड़ी, स्कूल बंद हो गए और दुनिया भर में लंबे लॉकडाउन के समय घर में गाली-गलौज करने वाले रिश्तेदारों से बच्चों का संपर्क बढ़ गया।
यूनिसेफ इंडिया की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार महामारी के दौरान पढ़ाई में रुकावट का असर 28 करोड़ 60 लाख बच्चों पर पड़ा, स्कूल बंद होने से पढ़ाई करने वाले बच्चों की संख्या घटी। लॉकडाउन और उसके बार-बार बढ़ने से लगभग 4 करोड़ बच्चे बहुत ज़्यादा प्रभावित हुए। ये बच्चे ग़रीब और सुविधा से वंचित परिवारों से आते हैं जैसे कि प्रवासियों के बच्चे, ग्रामीण क्षेत्रों में खेत में काम करने वाले बच्चे और बेघर बच्चे।
बेखर बच्चों के लिए क्या है चुनौतियां
आर्थिक संकट और बेहद ग़रीबी, अकेलापन, और मदद नहीं करने वाला परिवार ये ज़्यादा बेघर बच्चे होने के सामान्य कारण हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया भर में 35 करोड़ 60 लाख बच्चे यानी 17.5 प्रतिशत बच्चे बेहद ग़रीबी में जीवन गुज़ारते हैं।
ये बच्चे 1.90 डॉलर प्रतिदिन से कम की आमदनी पर जीते हैं। इस तरह बच्चों का बेघर होना कई तरह के कारणों का नतीजा है। बेरोज़गारी, ग़रीबी, घर में हिंसा, परिवार का बिखरना, ठौर-ठिकाने की कमी, गांवों से शहरों की ओर जाना, बाढ़, सूखा या किसी अन्य आपदा की वजह से विस्थापन बेघर बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी के अलावा काफ़ी असमानता के साथ सामाजिक बहिष्कार के प्रमुख कारण बताए जाते हैं।
इन्हें अक्सर उन कारणों के रूप में गिनाया जाता है जो बच्चों के बेघर होने में मदद करते हैं या उन्हें बेघर होने के लिए मजबूर करते हैं. आम तौर पर घर में काफ़ी भीड़-भाड़ होने और इसके कारण सेहत से जुड़े जोख़िम में बढ़ोतरी के साथ-साथ बुनियादी सुविधाओं तक ठीक से पहुंच नहीं होने की वजह से कई परिवार इन समस्याओं का सामना करने में संघर्ष करते हैं।
परिवार के भीतर अस्थिर और हिंसक परिस्थितियां बच्चों के साथ परिवार का संपर्क कमज़ोर कर सकती हैं, अच्छी पढ़ाई तक उनकी पहुंच में रुकावट डाल सकती हैं, उनके शैक्षणिक प्रदर्शन को कमज़ोर कर सकती हैं, उनकी दोस्ती और अन्य संबंधों पर प्रभाव डाल सकती हैं, और स्कूल के साथियों एवं जिन लोगों के बीच वो रहते हैं, उनके साथ संबंध कमज़ोर कर सकती हैं।
बच्चों को बेघर बनाने वाले अन्य कारणों में एचआईवी/एड्स और कुष्ठ जैसी बीमारियां, कम उम्र में और ज़बरन शादी जैसी हानिकारक परंपरा और युद्ध एवं आंतरिक विस्थापन जैसी सामाजिक घटनाएं शामिल हैं। इस मुद्दे पर अभी तक किसी विश्वसनीय आंकड़े के स्रोत और सर्वे के आधार पर आंकड़े का नहीं होना समस्या को और बढ़ाता है। इससे ये चिंता बढ़ती है कि इस मुद्दे को कितनी गंभीरता से लिया जा रहा है।
समाज विरोधी इस समस्या का आकलन कहीं नहीं किया जा रहा है जिसकी वजह से बेघर बच्चों के कल्याण के लिए ख़राब नीतियां बन रही हैं और कार्यक्रमों को ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है। निजी एनजीओ के द्वारा किए गए सभी सर्वे और आकलन अलग-अलग प्रकार के अलग-अलग आंकड़े पेश करते हैं।
किसी भी सरकारी एजेंसी ने भारत में फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की संख्या को गिनने की ज़िम्मेदारी नहीं ली है। दिल्ली सरकार फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों को निर्धारित करने के उद्देश्य से एक नीतिगत दस्तावेज़ के साथ कई तरह के बीच-बचाव के उपाय और क़ानूनी कार्रवाई करने में बाल कल्याण समितियों को अधिकार देने के लिए दिशानिर्देश लेकर आई लेकिन उनका कोई फ़ायदा नहीं हुआ।
जून 2021 में जो नीति आई उसमें लाभार्थियों के मामले में अभी भी बुहत कुछ करने की ज़रूरत है। इसमें बेघर बच्चों को बचाने और उनके पुनर्वास के साथ सेहत और सफ़ाई के मामले में जागरुकता बढ़ाने के लिए बाल संवाद जैसी परियोजनाएं शामिल थीं। साथ ही 18 साल से कम उम्र के बेघर बच्चों की संपूर्ण भलाई के लिए “सूर्योदय” जैसी परियोजनाएं भी थीं।
दिल्ली सरकार की नीति में सिविल डिफेंस वॉलंटियर के रूप में बेघर बच्चों की ट्रेनिंग का भी ज़िक्र है लेकिन ये बेघर बच्चों से जुड़ी समस्या और उसके समाधान से काफ़ी बेमेल लगती है क्योंकि बच्चे अभी भी अपनी बुनियादी ज़रूरतों के लिए सड़क पर संघर्ष कर रहे हैं।
कोई भी कार्यक्रम तब तक प्रामाणिक नहीं है जब तक उसके असर से जुड़े आंकड़े उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं और लाभार्थियों को वास्तव में नीति से फ़ायदा नहीं मिलता है। सरकार ग़रीबी में रहने वाले लोगों का आंकड़ा तो देती है लेकिन फुटपाथ पर ग़रीबी में गुज़र करने वाले बच्चों, उनको होने वाली बीमारियों, कुपोषण, लत और उनके द्वारा किए गए अपराध के साथ-साथ वो जिस शोषण का सामना कर रहे हैं, उस पर कोई आंकड़ा नहीं देती है।
युवाओं की बड़ी आबादी शोषण का शिकार
अपनी विशाल युवा आबादी और इस जनसांख्यिकीय लाभ के सकारात्मक असर के कारण भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ती जा रही है। बेघर बच्चों की सामाजिक विकृति के लिए विश्व की चिंता समय के साथ कमज़ोर होती जा रही है। ये बेघर बच्चे कुपोषण और भूख का सामना करते हैं और अक्सर उनका दिन बिना भोजन के ख़त्म होता है।
बेरोज़गारी का सामना कर रहे ये बच्चे आम तौर पर चोरी की घटनाओं को अंजाम देते हैं, मादक पदार्थों का सेवन करते हैं और बाल मज़दूरी में लगे होते हैं। बेघर लड़कियां यौन शोषण, शारीरिक दुर्व्यवहार और उत्पीड़न का सामना करती हैं और अक्सर ऐसी घटनाएं सामने भी नहीं आ पाती हैं।
युद्ध और देश के भीतर आंतरिक विस्थापन भी बच्चों को बेघर बनाते हैं। युद्ध क्षेत्र में किशोर लड़कियों और बच्चों को अक्सर बेहद क्रूर तरीक़े से जान-बूझकर मौत के घाट उतारा जाता है। अक्सर लड़कियों को उनके घर, स्कूल और शरणार्थी शिविरों से उठाया जाता है और फिर मज़दूरी, यौन ग़ुलामी और ख़रीद-बिक्री के लिए उनका शोषण होता है।
इस तरह के शोषण के मनोवैज्ञानिक असर से बच्चों में बेचैनी, डिप्रेशन, पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीएसटीडी) और मादक पदार्थों का सेवन बढ़ जाता है। सड़कों के किनारे रहने वाले बच्चे इनहेलेंट से लेकर सिगरेट तक और कोकीन, स्मैक और चरस जैसे कई तरह के मादक पदार्थ ले रहे हैं।
भारत में मादक पदार्थों के इस्तेमाल की जटिलता से जुड़ी 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक इनहेलेंट के ज़रिए मादक पदार्थ लेने का चलन बच्चों और किशोरों में सबसे ज़्यादा है। अलग-अलग मंत्रालयों के साथ किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 और नशीली दवा एवं मादक पदार्थ अधिनियम, 1985 होने के बावजूद किसी ने भी ड्रग्स की लत का शिकार बन चुके बच्चों को लक्ष्य करके कोई विशेष योजना नहीं बनाई है।
इस तरह ये समस्या उपेक्षित है। समय की कमी, ज़्यादा समय लेने वाली क़ानूनी प्रक्रिया, अपरिभाषित बुनियादी ढांचा एवं वित्तीय संसाधन और काम नहीं करने वाले बाल कल्याण केंद्र बेघर बच्चों के बीच ड्रग्स के इस्तेमाल की समस्या को और भी बढ़ाते हैं।
फुटपाथ से बचाए गए बच्चों का पुनर्वास और उनको फिर से समाज में जोड़ना एक बड़ा काम है जिसके लिए निगरानी रखने वाले लोगों, स्वास्थ्य क्लीनिक और पढ़ाई में समर्थन की ज़रूरत है और हर क़दम पर इन बच्चों पर नज़र रखने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं होने पर बच्चे आश्रय स्थल से भाग जाते हैं और फिर से फुटपाथ पर पुरानी ज़िंदगी में लौट जाते हैं।
आमदनी की कमी अक्सर बेघर बच्चों को दुर्व्यवहार और मानसिक बीमारी से जुड़े मुद्दों का सामना करने के लिए ज़्यादा जोखिम वाला वर्ग बनाती है। साथ ही प्रतिकूल सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का भी उन्हें सामना करना पड़ता है। उन्हें बीमारी होने की आशंका ज़्यादा रहती है, ख़ास तौर पर एचआईवी/एड्स क्योंकि वो सुई के सहारे ड्रग्स लेते हैं।
बेघर बच्चों को यौन संक्रमण से जुड़ी बीमारियों का ख़तरा भी ज़्यादा रहता है। इन कारणों से ये बच्चे सामाजिक तौर पर अलग-थलग और दाग़दार हो गए हैं। यौन शोषण और दुर्व्यवहार की वजह से आम तौर पर बेघर लड़कियों में जल्दी और किशोर अवस्था में गर्भवती होने का ख़तरा बढ़ जाता है।
इस परिस्थिति में उनकी सेहत की अच्छी देखभाल नहीं हो पाती है जिससे उनके मरने का ख़तरा बढ़ जाता है। ये स्थिति बेघर लड़की और उनके नवजात बच्चे को सामाजिक समस्या के हिसाब से और कमज़ोर बनाती है। इसकी वजह से और भी बेघर परिवारों और फुटपाथ पर पलने वाले बच्चों का जन्म होता है।
दुनिया भर में पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग 20 प्रतिशत बच्चे अत्यंत ग़रीबी में रहते हैं। व्यक्तिगत पहचान के दस्तावेज़ों की कमी और स्कूल में नाम नहीं लिखाने की वजह से स्वास्थ्य और पोषण कार्यक्रमों का वो इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। खाद्य सुरक्षा और घर तक राशन ले जाने की सुविधा या मिड-डे मील योजना उनकी पहुंच के बाहर हो जाती है।
इस तरह इन बच्चों को अलग-अलग पोषण कार्यक्रमों जैसे पोषण अभियान (आईसीडीएस और मिड-डे मील योजना) के फ़ायदों से अलग रखा जाता है। इन अभियानों में बेघर लाभार्थियों का ज़िक्र कहीं नहीं दिखता है।
बच्चों से भीख मंगवाना
भारत में हज़ारों बच्चों को अगवा कर उन्हें भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता है। इस तरह बेघर बच्चों की समस्या में बढ़ोतरी होती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार, हर वर्ष क़रीब 40,000 बच्चों का अपहरण किया जाता है और उनमें से 25 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चों का कभी सुराग़ नहीं मिल पाता।
भारत में अभी भी कठोर सज़ा के साथ शक्तिशाली मानव तस्करी विरोधी क़ानून नहीं है क्योंकि अभी तक संसद ने इसमें संशोधन नहीं किया है। इससे भी ज़्यादा चिंता की बात ये है कि भारत के अलग-अलग हिस्सों में लगभग 3,00,000 बच्चों को नशीली दवा खिलाकर उनकी पिटाई की जाती है और फिर उन्हें फुटपाथ पर भीख मांगने के लिए छोड़ दिया जाता है।
बेघर बच्चों को ज़बरन और धोखे में रखकर मानव तस्करी का शिकार बनाया जाता है। इसके लिए मादक पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है और लड़कियों को तो सीमा के पार या भारत के भीतर वेश्यावृत्ति और मानव तस्करी में भी धकेल दिया जाता है। ऐसे बच्चे अपने माहौल से दूर और सबसे अलग हो जाते हैं, उनके साथ बदसलूकी की जाती है, वो किसी की मदद भी नहीं मांग पाते हैं।
बच्चों को सुरक्षा मुहैया कराने और भीख मांगने, अनधिकृत सामान बेचने एवं ख़तरनाक कामों में बाल श्रम के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ सज़ा देने वाले क़ानूनों- किशोर न्याय अधिनियम, 2015 और बाल श्रम अधिनियम, 2016- के लागू होने के बावजूद करोड़ों डॉलर के अच्छी तरह स्थापित उद्योग हैं जिन्हें मानव तस्करी में शामिल गिरोह चलाते हैं।
इस समस्या को दूर करने में पुलिस और दूसरे संगठनों की भूमिका पूरी तरह अस्पष्ट और अपर्याप्त है क्योंकि भारत में छोटे बच्चों के भीख मांगने के ख़िलाफ़ और उनकी ग़रीबी को लेकर कोई संघीय क़ानून नहीं है।
अब क्या है आगे का रास्ता
बच्चों का मार्गदर्शन करने वाले क्लीनिक की स्थापना करना महत्वपूर्ण है। ऐसे क्लीनिक में अपने परिवार और समाज से अलग रहने वाले बच्चों का मार्गदर्शन करने और उन्हें सलाह देने के लिए मनोचिकित्सक, मनोवैज्ञानिक और डॉक्टर होने चाहिए। ये भी ज़रूरी है कि एक व्यापक सर्वे और एक संगठित संस्था के द्वारा एक डाटा प्रबंधन प्रणाली विकसित किया जाना चाहिए ताकि देश के हर राज्य में बेघर बच्चों की सटीक संख्या का पता लगाया जा सके, उन जगहों का पता चल सके जहां बेघर बच्चे सबसे ज़्यादा हैं और इसके कारण क्या हैं।
इस डाटा प्रणाली को जीआईएस मैपिंग के साथ जोड़ देना चाहिए ताकि चिंता वाले क्षेत्रों की पहचान की जा सके और सामाजिक दुर्व्यवहार पर नज़र रखी जा सके। इसके साथ-साथ निर्णय लेने में मदद मिल सके और योजनाओं एवं कार्यक्रमों को लागू किया जा सके। आश्रय स्थलों का विकास, बेघर लोगों की पहचान और स्वास्थ्य एवं पोषण कार्यक्रमों, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के उपयोग को प्रोत्साहन देकर उन्हें राष्ट्रीय विकास में शामिल करना मददगार साबित होगा।
ऐसे बच्चों की सिर्फ़ पहचान ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उनके पुनर्वास पर भी ध्यान देना चाहिए ताकि ये बच्चे फिर से शोषण का शिकार बनने से बच सकें। बचाए गए बेघर बच्चों, ख़ास तौर पर लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए अनुमोदित बजट और योजनाओं की ज़रूरत है।
मानव तस्करी, हमले और नशीली दवाओं के इस्तेमाल के मामले में स्वास्थ्य सेवाएं और क़ानूनी मदद प्रदान करने के अलावा कल्याण योजनाओं एवं आमदनी के अवसर तक पहुंच प्रदान करना उनकी आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करने और उन्हें फिर से समाज एवं परिवार में लाने के लिए ज़रूरी है।
नौकरी की ट्रेनिंग और कौशल विकास उन्हें वित्तीय स्वतंत्रता मुहैया कराएगा। सुरक्षित आश्रय स्थल, जहां पीड़ितों के लिए एक जगह सभी सेवाएं उपलब्ध हों, भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। युवाओं और किशोरों के बीच नशीली दवा के इस्तेमाल के असर को लेकर उन्हें बताना और जागरुक करना भी अहम है।
फुटपाथ पर ऐसे लाखों बच्चे हैं जिन्हें बचाने और उनका पुनर्वास करने की ज़रूरत है। ऐसे में सुरक्षित गोद लेने की नीति और मानव तस्करी पर रोक के लिए क़ानून बनाना चाहिए। नीति निर्माताओं के बीच बच्चों के भीख मांगने, सड़क के किनारे फेरा लगाने और भीख मांगने के रैकेट को लेकर नियमों और उन पर पाबंदी के मामले में चर्चा करने की आवश्यकता है ताकि इनका समाधान किया जा सके और उन्हें ज़िला स्तर पर लागू किया जा सके।
ज़िला नियोजन समिति के साथ-साथ पंचायती राज संस्थान (पीआरआई) समाज में इस तरह के नकारात्मक बदलाव को रोकने के लिए बनाई गई प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं जिनका समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक संपर्क पर मज़बूत पकड़ होती है। बच्चों के ख़िलाफ़ हिंसा के मामले में सत्ता में बैठे लोगों के द्वारा विशेष चर्चा करने की ज़रूरत है लेकिन अभी तक सरकार सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करने में नाकाम रहने के साथ-साथ भारत में बेघर बच्चों की समस्या को मान्यता भी नहीं दे पाई है।
This article first appeared on Observer Research Foundation.
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