चित्र : अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन।
- डॉन मकलेन गिल, लेखक मनीला स्थित इंटरनेशनल डेवलपमेंट एंड सिक्योरिटी कोऑपरेशन (IDSC) में रेजिडेंट फेलो हैं और फिलीपीन-मिडिल ईस्ट स्टडीज एसोसिएशन (PMESA) में दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के निदेशक हैं।
हिंद प्रशांत रणनीति में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने का मक़सद हासिल करने के साथ साथ अमेरिका इस बात का भी ख़याल रख रहा है कि चीन और रूस से किस तरह के ख़तरे हैं, और वो अपनी हिंद प्रशांत रणनीति से भारत जैसे अहम साझीदारों को भी जोड़ रहा है।
फरवरी 2022 की शुरुआत में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हिंद प्रशांत क्षेत्र की बदलते जियोपॉलिटिल या भू-राजनीतिक समीकरणों के बीच अमेरिका की हिंद प्रशांत रणनीति का ख़ाका पेश किया। इस क़दम से ज़ाहिर हो गया कि अमेरिका की सुरक्षा और उसकी समृद्धि के लिहाज़ से ये क्षेत्र कितना महत्वपूर्ण है।
अमेरिकी रणनीति के दस्तावेज़ में इस क्षेत्र की जटिलताओं, चुनौतियों और अवसरों के बारे में अच्छे से बताया गया है और ये भी लिखा गया है कि नियम आधारित व्यवस्था को बनाए रखते हुए, अमेरिका इस क्षेत्र में किस तरह अपने हितों की रक्षा करने की कोशिश कर रहा है।
लेकिन, यहां ये दिलचस्प बात ग़ौर करने वाली है कि इस अमेरिकी दस्तावेज़ में चीन और भारत का ज़िक्र प्रमुखता से किया गया है। इसके अलावा, चूंकि मौजूदा विश्व व्यवस्था को लेकर एशिया की इन दोनों महाशक्तियों के विचार बिल्कुल अलग-अलग हैं।
ऐसे में यहां इस बात पर ग़ौर करना अहम होगा कि किस तरह बाइडेन प्रशासन, दोनों देशों को अपने समीकरणों में फिट करने की कोशिश कर रहा है, और इसके साथ ही साथ इस क्षेत्र के लिए ट्रंप प्रशासन की रणनीति के बुनियादी तथ्यों पर आगे बढ़ने के साथ-साथ कुछ बदलाव भी कर रहा है।
हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए ट्रंप प्रशासन की रणनीति को उनके कार्यकाल के आख़िरी दिनों में सार्वजनिक किया गया था। इसके अलावा चूंकि पूर्वी यूरोप में बेहद जटिल जियोपॉलिटिल मुद्दे उठ रहे हैं, तो क्या अमेरिका ऐसी रणनीति को लागू कर सकता है (या क्या उसे ऐसी रणनीति लागू करनी चाहिए)?
चीन के बारे में क्या है रणनीति
इस दस्तावेज़ में चीन को काफ़ी तवज़्ज़ो दी गई है। ऐसा इस क्षेत्र में चीन की ताक़त में बेपनाह इज़ाफ़ा होने और ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी चीन सागर और पूर्वी चीन सागर से लेकर भारत के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर उसकी आक्रामक गतिविधियों के चलते किया गया है। चीन से जुड़े ये कारक नियमों पर आधारित व्यवस्था के लिए काफ़ी बड़ी चुनौती पेश करते हैं।
चीन को इस क्षेत्र में अमेरिका के हितों और प्रभाव को चुनौती देने वाले देश के रूप में भी देखा जा रहा है, क्योंकि दोनों ही देश शक्ति के मुक़ाबले में उलझे हुए हैं और जैसे जैसे दोनों देशों की ताक़त में इज़ाफ़ा होगा तो ये मुक़ाबला और भी संगीन होता जाएगा।
हिंद प्रशांत क्षेत्र में जो बड़े बड़े दांव लगे हुए हैं, उन्हें देखते हुए, अमेरिका की क्षेत्रीय रणनीति में चीन का प्रमुखता से ज़िक्र होना लाज़िमी है। हालांकि, अमेरिकी दस्तावेज़ की जो बात सबसे ज़्यादा ध्यान आकर्षित करती है, वो बाइडेन के नेतृत्व में चीन की चुनौती से निपटने का अमेरिकी तरीक़ा है।
एक तरफ़ इस दस्तावेज़ में ये बताया गया है कि चीन, ‘हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपने प्रभाव क्षेत्र को और मज़बूत करते हुए दुनिया की सबसे प्रभावशाली ताक़त बनना चाहता है’, वहीं दूसरी तरफ़ इसमें ये भी कहा गया है कि जो बाइडेन प्रशासन चीन के आक्रामक बर्ताव से निपटने के लिए बहुआयामी रणनीति पर काम कर रहा है, जिसमें समान विचार रखने वाले साझीदारों को जोड़कर इस क्षेत्र में प्रभावी मौजूदा नियमों, व्यवस्थाओं और संस्थाओं को मज़बूत बनाना शामिल है, न कि व्यवहारिक रणनीति अपनाकर चीन को सीधे तौर पर चुनौती देना।
जो बाइडेन का मोटे तौर पर नियमों पर आधारित ये बहुआयामी रवैया अपनाने का मक़सद, चीन को उकसाने और सीधे टकराव मोल लेने के बजाय उसे नियमों का पालन करने के लिए मजबूर करना है। इस रणनीति से ये साफ़ ज़ाहिर होता है कि इसका लक्ष्य चीन को बदलना नहीं है, बल्कि उस ‘सामरिक माहौल को ढालना है, जिसमें चीन अपनी गतिविधियां चलाता है।’
चीन से निपटने के लिए सब्र और नियंत्रण वाली नीति अपनाने पर ज़ोर देने से ये भी ज़ाहिर होता है कि जो बाइडेन सुरक्षा के अन्य ग़ैर पारंपरिक मुद्दों जैसे कि जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद और हथियारों के अप्रसार पर चीन से बातचीत जारी रखने के इच्छुक हैं। चीन को लेकर बाइडेन प्रशासन की हिंद प्रशांत रणनीति के नज़रिए में ट्रंप प्रशासन की नीतियों से कुछ ख़ास अंतर साफ़ दिखते हैं।
वैसे तो दोनों ही प्रशासन चीन द्वारा अमेरिका की राह में खड़ी की जा रही बड़ी बाधाओं को स्वीकार करते हैं। लेकिन, ट्रंप प्रशासन ने चीन की तानाशाही व्यवस्था और अपने ग़लत तौर-तरीक़ों से अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था पर अपना प्रभुत्व जमाने और अमेरिका के गठबंधनों और साझीदारियों के ख़त्म होने से ख़ाली हुई जगह पर क़ाबिज़ होने की चीन के इरादों पर खुलकर टिप्पणी की थी।
इसके अलावा, जहां बाइडेन प्रशासन की रणनीति साझीदारों और साथी देशों के साथ सहयोग पर ज़ोर देकर साझा मूल्यों वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को मज़बूत बनाकर चीन के बढ़ते आक्रामक रवैये से संतुलन बनाने की बात करती है।
तो वहीं, ट्रंप प्रशासन की रणनीति में साथी देशों और साझीदारों के साथ मिलकर चीन की बढ़ती सैन्य ताक़त से निपटने पर ज़ोर दिया गया था और इसके लिए अन्य देशों के साथ सूचना के आदान प्रदान, क्षमता के निर्माण और मिलकर काम करने और ‘संघर्ष के तमाम मोर्चों पर टकराव’ के लिए तैयार रहने की बात कही गई थी। दिलचस्प बात ये है कि ट्रंप की हिंद प्रशांत नीति में भी चीन के साथ सहयोग का रास्ता खुला रखा गया था, लेकिन ऐसा तभी किया जाना था जब ये अमेरिका के हितों के लिए फ़ायदेमंद होता।
दोनों ही अमेरिकी राष्ट्रपतियों का प्रशासन हिंद प्रशांत क्षेत्र में ताक़तवर होते चीन के चलते पैदा हुई चुनौतियों को समझते हैं। दोनों ही प्रशासन सख़्त और नरम, दोनों ही रणनीतियों को अपनाने की बात करते हैं। लेकिन, दोनों राष्ट्रपतियों की नीति में इनके अनुपात का फ़र्क़ दिलचस्प दिखता है।
जहां बाइडेन प्रशासन, ताक़त के इस मुक़ाबले में नियमों पर काफ़ी ज़ोर देता है, वो साथियों और भागीदार देशों की मदद से किसी भी तरह के सैन्य दुस्साहस के प्रति डर बनाकर रखने को ज़्यादा अहमियत देते है।
तो वहीं दूसरी तरफ़, इस पूरे भौगोलिक इलाक़े में चीन की चिंताजनक रूप से बढ़ती आक्रामक गतिविधियों से निपटने के लिए ट्रंप प्रशासन सैन्य सहयोग के स्तर को और बढ़ाने पर ज़ोर देने की बात करता था। हालांकि ट्रंप ने हिंद प्रशांत क्षेत्र को मुक्त और स्वतंत्र रखने पर भी ज़ोर दिया है।
भारत के बारे में क्या है रणनीति
चूंकि अमेरिका की हिंद प्रशांत रणनीति में चीन लगातार अपनी महत्वपूर्ण अहमियत बनाए हुए है, ऐसे में भारत के लिए भी ये ज़रूरी हो जाता है कि वो चीन के बराबर की ही महत्ता बनाए रखे।
भारत के पास विशाल अर्थव्यवस्था है, एक बड़ी आबादी और मज़बूत सैन्य ताक़त है। इनकी मदद से भारत ने हिंद प्रशांत में एक बड़ी शक्ति रूप में अपनी स्थिति इतनी मज़बूत बना ली है जिससे वो उन कुछ गिने चुने देशों में शुमार हो सके जो चीन के सामने असरदार ढंग से खड़े हो सकते हैं।
इसके अलावा, भारत का नियमों पर आधारित व्यवस्था में यक़ीन करना और इस व्यवस्था की बुनियादों के ज़रिए ही उभरना, उसे अमेरिका का मुख्य और क़ुदरती साझीदार बना देता है। इसके अलावा अमेरिका के अहम साथी देशों जैसे कि जापान, ऑस्ट्रेलिया फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन के साथ भारत के मज़बूत रिश्ते भी अमेरिका के साथ उसकी साझीदारी में अहम भूमिका निभाते हैं।
इसके साथ साथ, अमेरिका और भारत की साझीदारी से क्वॉड के ढांचे को भी मज़बूती मिलती है। सीमा पर लगातार बढ़ते तनाव और हिंद महासागर में भारत के प्रभाव क्षेत्र वाले इलाक़ों में अपना दबदबा बढ़ाने की चीन की कोशिशों के चलते, भारत के संबंध उसके साथ बिगड़ते ही जा रहे हैं।
चूंकि भारत और अमेरिका के मूल्य भी साझा हैं और चिंताएं भी, तो हिंद प्रशांत क्षेत्र में दोनों देश एक दूसरे की भूमिकाओं और स्थितियों के पूरक बन गए हैं। राष्ट्रपति ओबामा की एशिया पर ध्यान केंद्रित करने की रणनीति के दौर से ही एशिया महाद्वीप में एक समान विचारधारा वाले देश के दौर पर भारत की स्थिति उसकी बढ़ती आर्थिक सामरिक ताक़त के साथ लगातार बढ़ रही है। जो बाइडेन की हिंद प्रशांत रणनीति इसी नज़रिए को आगे बढ़ाने वाली है।
अमेरिकी रणनीति का दस्तावेज़ न सिर्फ़ हिंद प्रशांत क्षेत्र की स्थिरता में भारत की भूमिका को अहमियत देता है. बल्कि इसके नेतृत्व को स्वीकार करते हुए उसके उभार को समर्थन भी देती है।
बाइडेन की रणनीति में भारत की भूमिका इस क्षेत्र में एक सुरक्षा देने वाले उभरते हुए ऐसे देश के तौर पर और मज़बूती दी गई है, जिसकी न केवल हिंद महासागर क्षेत्र में मज़बूत कूटनीतिक मौजूदगी है, बल्कि प्रशांत क्षेत्र में भी है। इसी तरह ट्रंप की रणनीति में भी भारत के उभार को इसी तरह शामिल किया गया था, हालांकि ट्रंप की रणनीति में भारत की भूमिका ख़ास तौर से ‘दक्षिण और दक्षिणी पूर्वी एशिया और साझा चिंताओं वाले अन्य क्षेत्रों में चीन के प्रभाव के मुक़ाबले के तौर पर देखी गई थी’।
चीन और भारत के बीच इस होड़ के रवैये को बाइडेन की क्षेत्रीय रणनीति वाले ढांचे में थोड़ा नरम करके पेश किया गया है। लेकिन, दोनों ही राष्ट्रपतियों की रणनीति में अमेरिका और चीन के बीच ताक़त के मुक़ाबले में भारत की अहमियत लगातार बनी हुई है।
रणनीति को जमीनी स्तर पर कैसे उतारेंगे
जहां तक जो बाइडेन की रणनीति का सवाल है, तो उसमें अमेरिका की विदेश और सुरक्षा नीति में हिंद प्रशांत क्षेत्र की बढ़ती हुई भूमिका पर ज़ोर दिया गया है। लेकिन, चुनौती इस बात की है कि ऐसे नज़रिए को ज़मीनी हक़ीक़त के तौर पर कैसे उतारा जाए।
पूर्वी यूरोप में तेज़ी से बदले हालात और इस समीकरण में रूस की भूमिका ने अमेरिका का ध्यान हिंद प्रशांत क्षेत्र से हटा दिया है। इतिहास में झांके तो हमें पता चलता है कि किसी और मुसीबत में फंसा अमेरिका हमेशा ही चीन के लिए अपना प्रभाव बढ़ाने के मौक़े का फ़ायदा उठाने वाला साबित हुआ है और फिर चीन इस क्षेत्र में ख़ुद को और भी आक्रामक तरीक़े से पेश करता आया है।
इसके अलावा अमेरिका के लिए भी ये अंदाज़ा लगाना अहम होगा कि रूस और चीन उसके हितों के लिए कितने बड़े स्तर का ख़तरा पैदा करते हैं। जहां रूस के पास ताक़तवर सैन्य बल है, वहीं चीन की अर्थव्यवस्था, आबादी और रक्षा बजट का विशाल आकार निश्चित रूपसे उसकी अपनी ताक़त दिखाने की क्षमता से कहीं ज़्यादा है।
इसके अलावा, चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को देखते हुए इस मोर्चे पर अमेरिका का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। अगर अमेरिका हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपनी स्थिति को मज़बूत करना और प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाना चाहता है, तो फिर वो इस क्षेत्र के लिए अपनी रणनीति में किसी तरह की ढील देने का जोखिम नहीं मोल ले सकता है। यदि अगर वो ऐसा करता है तो चीन के विकास की रफ़्तार और उसके प्रभाव क्षेत्र को देखते हुए इस बेहद असंतुलित क्षेत्र में अमेरिका की स्थिति और चुनौतीपूर्ण हो सकती है।
This article first appeared on Observer Research Foundation.
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