- शशांक मट्टू।
म्यांमार तख्तापलट का एक साल हो चुका है, इसके साथ भारत का जटिल इतिहास और उसका रुख़, भारत को इस बात की इजाज़त नहीं देते हैं कि वो पश्चिमी देशों की तरह तख़्तापलट को लेकर अपने सख़्त रवैये का खुला इज़हार करे।
बीते वर्ष एक साफ़ और सर्द फरवरी की सुबह, म्यांमार के सैन्य बलों ने गहरे रंगों वाली गाड़ियों और ट्रकों में सवार होकर, देश की राजधानी नेपीडॉ/नाएप्यीडॉ की सड़कों पर डेरा डाल लिया था।
इन गाड़ियों में डरावने चेहरे बनाए सैनिक सवार थे। महज़ कुछ घंटों के भीतर ही इन सैनिकों ने संसद पर क़ब्ज़ा कर देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई। इस तख़्तापलट से उठा-पटक के शिकार म्यांमार में पिछले एक दशक से चली आ रही लोकतांत्रिक प्रक्रिया को उलट दिया गया था।
अब जबकि म्यांमार में तख़्तापलट का ऐसा साल पूरा हो रहा है, जिसे भुला दिया जाना चाहिए, तो लोकतंत्र समर्थक ताक़तों और सैन्य अधिकारियों के बीच टकराव में अनिर्णय की स्थिति बनी हुई है। ये स्थिति कब तक बनी रहेगी इस बारे में फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता।
बता दें कि म्यांमार में इस लोकतांत्रिक संकट की शुरुआत साल 2020 में हुई थी, जब वहां के सत्ताधारी राजनीतिक दल, नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने आम चुनाव में ज़बरदस्त जीत हासिल की। म्यांमार में पिछले कई दशकों से चले आ रहे तानाशाही शासन के चलते वहां की सेना एक ताक़तवर राजनीतिक ताक़त बनी हुई है।
लेकिन, आम चुनावों में उसके राजनीतिक समर्थकों का सफ़ाया हो गया। चूंकि, म्यांमार की सेना के हाथ से ताक़त लगातार फिसलती जा रही थी, तो तातमाडॉ (Tatmadaw: Armed Forces of Myanmar) कहे जाने वाले सैन्य बलों ने दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ लिया और अपनी सत्ता बचाने के लिए क़दम उठाने का फ़ैसला किया।
नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पर चुनाव में धांधली के अस्पष्ट आरोप लगाने के बाद, सैन्य अधिकारियों ने महत्वाकांक्षी कमांडर मिन ऑन्ग हलाइंग के नेतृत्व में सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया। तख़्तापलट के बाद म्यांमार के सभी प्रमुख नेताओं को नज़रबंद कर दिया गया है। वहीं लोकतंत्र समर्थक हज़ारों प्रदर्शनकारी या तो मारे गए हैं या फिर सेना के दमन में घायल हुए हैं।
जनरल मिन के समर्थक सरकारी व्यवस्था को अपने शिकंजे में कसने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं, आम नागरिकों का विरोध प्रदर्शन पूरे देश में फैल गया है। इसका नतीजा ये है कि म्यांमार में अब असरदार प्रशासन कर पाना दूर की कौड़ी लग रहा है। इससे भी ज़्यादा चिंता की बात ये है कि नागरिकों के हथियारबंद संगठनों, जिन्हें ‘पीपुल्स डिफेंस फोर्सेज़’ कहा जा रहा है, ने बड़ी तेज़ी से ख़ुद को हथियारों से लैस किया है और अब वे लगातार सैन्य बलों के साथ संघर्ष कर रहे हैं।
म्यांमार के इन हालातों के बीच हुए तख़्तापलट को लेकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया बेहद सख़्त रही थी, और तमाम देशों ने सत्ता पर तातमाडॉ के क़ब्ज़े का कड़ा विरोध किया था। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भारी बहुमत से प्रस्ताव पारित करके तख़्तापलट की कड़ी आलोचना की थी। वहीं, अमेरिका और यूरोपीय संघ ने म्यांमार पर प्रतिबंध लगा दिए थे।
यहां तक कि आसियान देशों ने भी अपने संभले हुए रुख़ के बावजूद हिंसा को तत्काल रोकने और एक दूसरे का विरोध करने वाले पक्षों के बीच तुरंत बातचीत शुरू करने की मांग की थी लेकिन, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की इस मांग को म्यांमार ने लगभग अनदेखा किया हुआ है।
तानाशाही छोड़ने को तैयार नहीं तातमाडॉ
आज जब म्यांमार का संकट बढ़ता ही जा रहा है, तो भारत इस मुद्दे पर बड़ी उलझन में फंसा हुआ है। म्यांमार के साथ भारत का जटिल इतिहास और उसका रुख़, भारत को इस बात की इजाज़त नहीं देते हैं कि वो पश्चिमी देशों की तरह तख़्तापलट को लेकर अपने सख़्त रवैये का खुला इज़हार करे।
इस बात को हम इस तरह से समझने की कोशिश कर सकते हैं कि अपने पूर्वोत्तर क्षेत्रों में अराकान सेना जैसे संगठनों के विद्रोह और उपद्रव को दबाने के लिए, बर्मा के सैन्य बलों के साथ भारत के क़रीबी सुरक्षा संबंध रहे हैं। पूर्वोत्तर की जटिल जातीय बनावट और सीमा के आर-पार के आतंकवाद से निपटने के लिए भारत और म्यांमार को एक दूसरे के लिए ज़रूरी दोस्त बना दिया है।
इस साझेदारी के विकास के दौरान भारत ने अपने पड़ोसियों को सैन्य हथियार भी बेचे हैं, जो हथियार बेचे गए हैं, उनमें डीज़ल से चलने वाली पनडुब्बियों से लेकर सोनार उपकरण तक शामिल हैं। आज म्यांमार के साथ अपने इन्हीं सुरक्षा हितों के चलते भारत, म्यांमार पर प्रतिबंध लगाने और पश्चिमी देशों से तख़्तापलट के ख़िलाफ़ आए तल्ख़ बयानों में सुर मिलाने से परहेज़ करता है।
म्यांमार को लेकर भारत का कूटनीति इतिहास रहा है। वर्ष 1988 में म्यांमार की सेना द्वारा अपने नागरिकों पर की गई हिंसक कार्रवाई की भारत ने कड़ी आलोचना की थी। हालांकि, इस दौरान भारत को इसका गंभीर खामियाज़ा भी भुगतना पड़ा था। क्योंकि म्यांमार के सुरक्षा बलों ने भारत के साथ रिश्तों को लंबे समय तक ठंडे बस्ते में डाल दिया था। निश्चित रूप से वर्ष 2021 में म्यांमार, जनता के बीच बेहद लोकप्रिय एक लोकतांत्रिक आंदोलन की ओर बढ़ रहा था।
म्यांमार की सेना अपने नागरिकों के बीच बिल्कुल भी पसंद नहीं की जाती है और विदेश में भी ये काफ़ी अलोकप्रिय है। इसकी बड़ी वजह यही है कि तातमाडॉ, म्यांमार की सत्ता पर अपने तानाशाही शिकंजे को छोड़ने को तैयार नहीं है।
वहीं इस बात से भारत के विदेश मंत्रालय के नीति निर्माता भी चिंतित हैं कि म्यांमार में भारत की आर्थिक गतिविधियां भी बढ़ रही हैं, और वहां चीन भी एक बड़ी ताक़त के रूप में मौजूद है। वैसे देखा जाए तो म्यांमार के साथ भारत का द्विपक्षीय कारोबार महज़ 1.5 अरब डॉलर का है। लेकिन, पिछले एक दशक के दौरान इसमें तेज़ी से इज़ाफ़ा होता दिख रहा है।
भारत, म्यांमार में कनेक्टिविटी की कई परियोजनाओं में भी मदद कर रहा है। जैसे कि भारत-म्यांमार-थाईलैंड हाइवे और कलादन मल्टी- मॉडल परिवहन परियोजना. भारत, एशिया में चीन के व्यापक प्रभाव क्षेत्र में घुसपैठ और चीन के असर का मुक़ाबला करने के लिए पुरज़ोर कोशिश कर रहा है। वैसे, चीन और म्यांमार के आर्थिक गलियारे की तुलना में भारत द्वारा किए गए आर्थिक निवेश मामूली ही हैं। म्यांमार में चीन के निवेश और चीन के साथ व्यापार पर उसकी निर्भरता को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं।
भारत के सामने क्या है दुविधा
ऐसे मंज़र में भारत के सामने म्यामांर को लेकर विकल्पों का चुनाव करना आसान नहीं है। म्यांमार से भारत की नज़दीकी और वहां से जुड़े उसके हित, भारत को इस बात की इजाज़त नहीं देते हैं कि वो क़ुदरती तौर पर वहां के लोकतंत्र समर्थकों के साथ सहानुभूति रखे।
म्यांमार के मौजूदा संघर्ष का जो भी नतीजा निकले, ये बात तो तय है कि आने वाले लंबे समय तक तातमाडॉ, वहां की राजनीति में एक ताक़तवर पक्ष बनी रहेगी। इसमें बात में कोई दो राय नहीं है कि ये भारत के लिए नैतिकता से भरी दुविधा है। लेकिन, भारत के लिए अपने पुराने सुरक्षा साझीदारों के साथ रिश्तों को सहेज कर रखना बेहद ज़रूरी है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में म्यांमार के तख़्तापलट की आलोचना वाले प्रस्ताव पर मतदान से भारत की अनुपस्थिति, उसके इसी कूटनीतिक गुणा-भाग को बख़ूबी दर्शाती है।
हालांकि, म्यांमार की सेना के साथ खुलकर खड़े होने से भारत के लिए इस बात का ख़तरा भी है कि वहां की जनता उससे नाख़ुश हो जाए। लेकिन फ़ौरी तौर पर भारत की नीति ख़ामोशी से अपने हितों का बचाव करने की होनी चाहिए, न कि खुलेआम कूटनीतिक क़दम उठाने की।
पश्चिमी देश, म्यांमार पर लगातर प्रतिबंध और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच आम राय बनाकर वहां के सैन्य बलों पर दबाव बना सकते हैं। वहीं, भारत को आसियान और जापान की तरह राजनीतिक समाधान की मांग पर ज़ोर देना चाहिए। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दोबारा शुरू करने के समर्थन में दिए गए हालिया बयान, निश्चित रूप से सही दिशा में उठाए गए क़दम कहे जा सकते हैं।
इस संघर्ष में भारत की मेल-मिलाप कराने वाली भूमिका, चीन पर म्यांमार की भारी निर्भरता को लेकर चिंता को भी दूर करने वाली हो सकती है। सच तो ये है कि म्यांमार में राजनीतिक उदारीकरण के पीछे एक बड़ा कारण चीन के बढ़ते प्रभाव को लेकर शक और अन्य अंतरराष्ट्रीय निवेशकों को म्यांमार लाना भी था। इस तरह से भारत का निरपेक्ष रहना, उसके आर्थिक निवेश और सुरक्षा संबंधी सहयोग ऐसे फ़ायदे हैं, जिनकी अनदेखी करने का जोखिम म्यांमार की सेना भी नहीं ले सकती है।
लंबी अवधि में भारत के हित इसी बात में निहित हैं कि वो समान विचारधारा वाले अन्य देशों के साथ सहयोग करके तातमाडॉ के संस्थागत बर्ताव को बदलने की कोशिश करे। इस समय म्यांमार की सेना में ज़्यादातर वो अधिकारी हैं, जिन्होंने रूस जैसे अन्य तानाशाही देशों में पढ़ाई की है।
म्यांमार के सैन्य अधिकारियों को अंग्रेज़ी में प्रशिक्षित करने और पश्चिमी देशों के साथ अधिकारियों के तबादले की शुरुआत तो हुई थी। लेकिन, रोहिंग्या संकट के बाद पश्चिमी देशों के साथ म्यांमार का ये सैन्य तालमेल एक झटके से बंद हो गया।
आख़िर में सेना के कुलीन वर्ग को प्रशिक्षित करके और उसे उन अन्य राजनीतिक मॉडलों के फ़ायदे बताकर ही म्यांमार की सेना के रवैये में बदलाव लाया जा सकता है। तातमाडॉ के सैन्य अधिकारियों को ऐसे देशों की मिसालें देनी होंगी, जहां पर सेना की सम्मानजनक लेकिन ग़ैर राजनीतिक भूमिका है। इसी से तातमाडॉ के अधिकारियों के बर्ताव में दूरगामी परिवर्तन लाया जा सकता है।
This article first appeared on Observer Research Foundation.
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