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समीक्षा : पाकिस्तान की ‘राष्ट्रीय सुरक्षा नीति नीति में’, सिर्फ ख़याली पुलाव

चित्र : पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान।

  • कृति एम. शाह।

क्या NSP पाकिस्तान में वो सुधार लायेगी जिसकी उसे काफ़ी ज़रूरत है या यह उसकी पुरानी लफ़्फ़ाज़ी में ही और इज़ाफ़ा करेगी?

बीते हफ़्ते, ज़बर्दस्त प्रचार और मीडिया में चर्चा के बीच, इमरान खान की सरकार ने पाकिस्तान की पहली राष्ट्रीय सुरक्षा नीति (NSP) जारी की। यह दस्तावेज घोषित करता है कि सरकार की NSP देश की आर्थिक सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करना और एक मजबूत अर्थव्यवस्था से हासिल लाभांशों को ऐसे उपायों में लगाना है, जो देश की रक्षा और मानव सुरक्षा क्षमताओं को मज़बूत करने में मदद करते हैं।

यह दस्तावेज राष्ट्रीय एकजुटता व सुरक्षा, देश के आर्थिक भविष्य, रक्षा व क्षेत्रीय अखंडता, आंतरिक सुरक्षा, विदेश नीति, और मानव सुरक्षा के लिए विभिन्न अवसरों व चुनौतियों की चर्चा करता है, साथ ही इनके लिए नीतिगत दिशानिर्देश मुहैया कराता है। 

इस दस्तावेज़ के सार्वजनिक संस्करण का अध्ययन महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह विसंगतियों और मुरादों भरी लफ़्फ़ाज़ी से भरे होने के बावजूद, इस तथ्य से बाख़बर तो है ही कि चीज़ों को बदलने की ज़रूरत है, हालांकि इसे लेकर भ्रम बना हुआ है कि क्या बदलना है, और उससे भी ज्यादा अहम कि कैसे बदलना है।

NSP भारत, चीन, अमेरिका, ईरान, और खाड़ी का ज़िक्र करती है, मगर अफ़ग़ानिस्तान के संबंध में पूरा दस्तावेज़ विरोधाभासों से अटा पड़ा है। अफ़ग़ानिस्तान आज जिस जंजाल में है, उसे पैदा करने में पाकिस्तान ने बड़ी भूमिका निभायी है। दस्तावेज़ राष्ट्रीय एकजुटता से संबंधित अपने तीसरे खंड में कहता है, ‘नस्ली, मज़हबी, और सामाजिक मतभेदों के इर्दगिर्द विभाजनकारी विमर्श चिंता का विषय है, जिसे उस विघ्नकारी विदेशी समर्थन ने और बढ़ा दिया है जिसका मक़सद राष्ट्रीय एकजुटता को कमज़ोर करना और पहचान के मुद्दों पर असामंजस्य को भड़काना है।’

यह तो माना गया है कि अलग-अलग पहचानों को लेकर विमर्श पाकिस्तान के लिए एक चुनौती है जो राष्ट्रीय एकजुटता पर नकारात्मक असर डालता है, लेकिन यह नीति इस तथ्य को अनदेखा कर देती है कि पाकिस्तान ने भी अफ़ग़ानिस्तान में बिल्कुल इसी तरह की विघ्नकारी और विभाजनकारी दख़ल-अंदाज़ी की नीति अपनायी है, जिसका मक़सद उसकी राष्ट्रीय एकजुटता को कमज़ोर करना रहा है। 

तालिबान को राजनीतिक, कूटनीतिक, और साजो-सामान से समर्थन के ज़रिये, पाकिस्तान ने यह सुनिश्चित करने के लिए काम किया है कि ग्रामीण, पुरातनपंथी पश्तूनों की संवेदनशीलताएं सुरक्षित और दूसरे नस्ली समूहों पर हावी रहें। हज़ारा (जो शिया मुसलमान हैं) जैसे अल्पसंख्यक समूहों के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक रूप से भेदभाव हुआ है और पाकिस्तान के रणयुक्तिक (tactical) समर्थन से तालिबान द्वारा उन्हें निशाना बनाया गया है।

दरअसल, यह नीति 1990 के दशक के मध्य में अफ़ग़ानिस्तान के लिए भारत की नीति के ठीक उलट रही है। क्योंकि, नयी दिल्ली ने नॉर्दन अलायंस का समर्थन करना चुना, जो तालिबान-विरोधी नेताओं और समूहों का एक बहु-नस्ली गठबंधन था।

भारत को लेकर पूर्वाग्रह

देश का आर्थिक भविष्य हासिल करने में व्यापार, निवेश, और संपर्क (connectivity) जो अवसर व चुनौतियां पेश करते हैं उनकी चर्चा के दौरान, यह दस्तावेज ज़िक्र करता है कि कैसे पश्चिम की ओर कनेक्टिविटी अफ़ग़ानिस्तान में शांति व स्थिरता के वास्ते पाकिस्तान की कोशिशों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरणा है।

यह बात आंशिक रूप से सच है कि पाकिस्तान को मध्य एशिया तक पहुंच के लिए पश्चिम की ओर कनेक्टिविटी की आवश्यकता है। मगर उसकी तथाकथित ‘शांति के वास्ते कोशिश’ शायद ‘अमेरिका को बाहर करने की कोशिश’ ज्य़ादा थी, ताकि तालिबान उसे वो पहुंच मुहैया करा सके।

यह दस्तावेज़ उसी खंड में यह भी कहता है कि पश्चिम की ओर कनेक्टिविटी ‘हमेशा ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि पूर्व की ओर कनेक्टिविटी भारत की प्रतिगामी दृष्टिकोण की बंधक है।’ पूरे दस्तावेज में ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जहां पाकिस्तान ख़ुद को दूसरे राष्ट्रों की विदेश नीति का ‘पीड़ित’ या ‘एकमात्र क्षति’ (sole fatality) मानना जारी रखता है।

अगर यह NSP सचमुच अपने भीतर झांकने की या ये दिखाने और एहसास करने की कोशिश थी कि एक राष्ट्र के रूप में बीते सात दशकों में पाकिस्तान ने किन अवसरों और चुनौतियों को गंवाया है, तो यह इसमें विफल रही है। क्योंकि, ये नीति भी यह मानना जारी रखती है कि भारत ‘उसकी ही ताक में है’ या कहें कि भारत की नीतियां सिर्फ़ और सिर्फ़ पाकिस्तान उन्मुखी हैं।

वास्तव में, पाकिस्तान की पूर्व की ओर कनेक्टिविटी को भारत या किसी अन्य राष्ट्र ने ज़रा भी बंधक नहीं रखा हुआ है। वह जिस भी राष्ट्र के साथ चाहे व्यापार, निवेश, या संपर्क स्थापित करने के लिए स्वतंत्र है। वह श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल समेत दक्षिण एशिया के कई राज्यों के साथ मजबूत द्विपक्षीय रिश्ते साझा करता है, जिसमें उनके बीच लगातार विस्तृत हो रहे आर्थिक संबंध भी हैं।

दक्षिण एशिया की कनेक्टिविटी के लिए इस उपमहाद्वीप के केंद्र में स्थित भारत कभी प्राथमिक मुद्दा नहीं रहा है, वह पड़ोसियों के बीच ज्यादा कनेक्टिविटी को प्रोत्साहित ही करता रहा है बल्कि, प्राथमिक मुद्दा अपने विकृत विदेश नीति उद्देश्यों को हासिल करने के लिए पाकिस्तान द्वारा सीमा-पार आतंकवाद का इस्तेमाल रहा है।

बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाकिस्तान यह समझने में विफल रहा है कि भारत ने कभी अन्य दक्षिण एशियाई देशों को पाकिस्तान के साथ आर्थिक रिश्ता बनाने या व्यापार करने से रोकने के लिए उन पर अपना असर डालने की कोशिश नहीं की है। यह पाकिस्तान है जो भारत के परे देख पाने और यह महसूस करने में विफल रहा है कि अगर उसे कोई रोक रहा है तो वह उसकी ख़ुद की नीतियां हैं।

आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध

इस दस्तावेज ने एक खंड देश की आंतरिक सुरक्षा के भी नाम किया है, जहां आतंकवाद की चर्चा यूं की गयी है, ‘पाकिस्तान अपनी ज़मीन पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल किसी भी समूह के लिए ज़ीरो टॉलरेन्स (कतई बर्दाश्त नहीं) की नीति पर चलता है’। यह देखते हुए कि पाकिस्तान कई स्वदेशी आतंकवादी संगठनों का घर है, ऐसी घोषणा बेशक झूठी है, लेकिन इससे पाकिस्तान की वह पुरानी नीति उजागर होती है जो यह मानती है कि कुछ आतंकवादी समूह अच्छे हैं, या उन्हें तथाकथित ‘बड़े मक़सद’ के लिए साथ लेकर चला जा सकता है।

यही खंड आगे कहता है, ‘पाकिस्तान ने बीते दशकों में आतंकवाद के ख़िलाफ़ सबसे सफल युद्धों में से एक को लड़ा है’। एक बार फिर ग़लतबयानी की गयी है। असल में, पाकिस्तान के तथाकथित ‘आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध’ को अब तक छेड़े गये सबसे विफल अभियानों में से एक माना जाना चाहिए।

सितंबर 2001 के बाद, अमेरिका के भारी दबाव में, इस्लामाबाद ने तालिबान और अल-क़ायदा के ख़िलाफ़ लड़ाई में सार्वजनिक रूप से वाशिंगटन डीसी का पक्ष चुना। आज तालिबान एक बार फिर काबुल में सत्ता में हैं और उनके संरक्षण में अल-क़ायदा न सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान में, बल्कि और बड़े क्षेत्र में फल-फूल रहा है, जिसे देखते हुए उस युद्ध को किसी भी लिहाज़ से जीता हुआ या सफल नहीं कहा जा सकता।

जहां तक घरेलू लड़ाइयों की बात है, तो पाकिस्तानी सेना ने अन्य आतंकवादी समूहों के खिलाफ़ इसे छेड़ा हो सकता है, लेकिन तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) सक्रिय है, भले उसके ख़िलाफ़ अतीत में पाकिस्तानी सेना ने चाहे जो अभियान चलाये रहे हों।

यह नीति टीटीपी के खिलाफ है

अफ़ग़ानिस्तान तालिबान की ओर से ऐसा कोई संकेत नहीं दिखाता कि वह टीटीपी के ख़िलाफ़ है या वह उसे पाकिस्तान में हमले करने से रोकेगा। यह देखते हुए कि देश का हर प्रांत ढेरों आतंकवादी समूहों और चरमपंथी संगठनों का घर है, पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान का आंतकवादी गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं करने की नीति को लेकर लगातार झूठ बोलना और अपने नागरिकों को गुमराह करना उसकी मक्कारी, बेईमानी और धूर्तता को दिखाता है।    

पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति भले उसके लिए पहली हो, लेकिन इसमें कुछ भी नया, नवोन्मेषी (innovative) या अनोखा नहीं है। इसे चिंतनशील और आत्मावलोकन करने वाला होना चाहिए था, लेकिन यह दूसरों पर दोषारोपण ही जारी रखती है। यह देखते हुए कि देश में असंतुलित नागरिक-सैन्य संबंध लगातार आर्थिक गिरावट की सबसे बड़ी वजह है, अचानक से आर्थिक सुरक्षा पर ज़ोर देना यह सुनिश्चित नहीं करेगा कि पारंपरिक सुरक्षा के अन्य सभी रूप सफल होंगे।

पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के वोटरों को अपील करने वाले एक राजनीतिक दस्तावेज़ के रूप में, राष्ट्रीय सुरक्षा नीति सफल है, क्योंकि यह लोगों को वही देती है जो वे चाहते हैं, यह विश्वास कि उनके नेताओं को कुछ बदले जाने की ज़रूरत का एहसास है. हालांकि, एक गंभीर नीति दस्तावेज़ के रूप में, यह ज़बर्दस्त ढंग से मुग़ालतों से भरा हुआ है और अब भी मानता है कि पाकिस्तान को आगे बढ़ने से दूसरों ने रोका हुआ है और अब चीज़ें अलग ढंग से होंगी। दुर्भाग्यपूर्ण सच यही है कि कुछ अलग होने वाला नहीं है।

This article first appeared on Observer Research Foundation.

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