चित्र सौजन्य पीटीआई/द हिंदू : 6 दिसंबर, 2021 को मोन जिले में उनके अंतिम संस्कार के दौरान सशस्त्र बलों द्वारा मारे गए 14 लोगों के ताबूत।
- जयंत कालिता।
नागालैंड में हाल ही में हुए नरसंहार के बाद आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट (AFSPA) को ख़त्म करने की मांग तेज़ हो गई है. क्या ये मांग अब हक़ीक़त में तब्दील होगी?
भारत का उत्तरी पूर्वी इलाक़ा एक दौर में उग्रवाद का गढ़ बना हुआ था। लेकिन पिछले कुछ दशकों से वहां हिंसा और ख़ून ख़राबे में काफ़ी कमी आई है। वैसे तो हाल के वर्षों में उत्तर पूर्वी राज्यों में उग्रवाद से संबंधित हिंसा में कमी दर्ज की गई है। लेकिन, ऐसी हिंसा से सुरक्षा बलों को सुरक्षित करने के लिए बना एक क़ानून लगातार आलोचना का शिकार हो रहा है।
नागालैंड के मोन ज़िले में उग्रवाद निरोधक अभियान में भयंकर गड़बड़ी के चलते 14 गांव वालों की हत्या कर दी गई। इस घटना ने एक बार फिर से 1958 में बने सशस्त्र बल विशेष अधिकार क़ानून (AFSPA) को सुर्ख़ियों में ला दिया है। आदिवासी संगठन, नागरिक अधिकार समूह और मानव अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वाले संगठनों ने दिसंबर 2021 में नगालैंड में हुई घटना के लिए भारतीय सेना की कड़ी आलोचना की थी।
इन आदिवासी संगठनों ने मांग की थी कि या तो इस विशेष क़ानून को ख़त्म कर दिया जाए या फिर उसे नगालैंड से हटा लिया जाए। इस क़ानून (AFSPA) को देश के सबसे बेरहम क़ानूनों में शुमार किया जाता है। इन संगठनों के अलावा उत्तर पूर्व के आठ में से तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी इस क़ानून को ख़त्म करने की मांग की है।
सबसे बड़ी चिंता की बात तो ये है कि 4 दिसंबर को नगालैंड में हुई घटना से केंद्र सरकार और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नगालैंड (इसाक-मुइवा) या NSCN-IM के बीच चल रही नाज़ुक शांति वार्ता भी पटरी से उतर सकती है। 2015 में मोदी सरकार ने नागा विद्रोहियों के साथ फ्रेमवर्क समझौता किया था। इस समझौते का मक़सद आज़ाद भारत की सबसे पुरानी उग्रवादी समस्या का स्थायी समाधान तलाशना था। लेकिन, ये शांति वार्ता इस वक़्त कई मुद्दों पर अटकी हुई है।
मोन नरसंहार को लेकर उठे तगड़े विरोध के सुरों के बावजूद, केंद्र सरकार ने नागालैंड में AFSPA को छह महीने के लिए और बढ़ा दिया है। इससे पहले असम में भी इस क़ानून की सीमा बढ़ाकर फ़रवरी 2022 तक कर दी गई थी। मणिपुर में ये क़ानून पहले से ही लागू है और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्से भी इसके दायरे में आते हैं।
AFSPA को समझने की कोशिश
आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट (असम और मणिपुर) 1958 क़ानून, सिक्किम को छोड़कर उत्तर पूर्व के राज्यों पर लागू किया जा सकता है। ये भारत की अंदरूनी सुरक्षा से जुड़े क़ानूनों में से एक है। इस क़ानून से उग्रवाद निरोधक अभियानों में सक्रिय सशस्त्र सेनाओं को बड़े स्तर पर क़ानूनी संरक्षण मिल जाता है।
AFSPA क़ानून की धारा 3 राज्यपाल को ये अधिकार देती है कि वो किसी राज्य के पूरे इलाक़े या कुछ हिस्सों को ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर सकते हैं। हालांकि, धारा तीन का ये मतलब नहीं निकाला जा सकता है कि ऐसी घोषणा बेमियादी हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में AFSPA के ख़िलाफ़ दायर तमाम याचिकाओं को नागा पीपुल्स मूवमेंट ऑफ़ ह्यूमन राइट्स बनाम केंद्र सरकार के मामले में फ़ैसला सुनाया था कि,‘अशांत क्षेत्र’ घोषित करने का ऐलान छह महीने के बाद ख़त्म हो जाता है।
हालांकि, उससे पहले भी समय समय पर समीक्षा की जानी चाहिए। आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट 1958 कहता है कि,’किसी अशांत क्षेत्र में अगर कोई व्यक्ति क़ानून व्यवस्था के ख़िलाफ़ बर्ताव करता है तो कोई कमीशंड अफसर, नॉन कमीशंड अफसर या सशस्त्र बलों में उसके बराबर की रैंक का कोई अन्य अधिकारी उस पर गोली चला सकता है या फिर अधिकारी को उस व्यक्ति के ख़िलाफ़ इसी तरह की कोई अन्य कार्रवाई करने का अधिकार है।’
इस क़ानून से सशस्त्र बलों को ये अधिकार मिलता है कि वो, ‘संज्ञेय अपराध करने वाले किसी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ़्तार कर सकते हैं। उन्हें ऐसे इंसान को भी गिरफ़्तार करने का अधिकार है, जिस पर शक है कि उसने कोई ग़ैरक़ानूनी संज्ञेय अपराध किया है, या आने वाले समय में कर सकता है। गिरफ़्तारी के दौरान ज़रूरत पड़ने पर सशस्त्र बल बल प्रयोग का अधिकार भी रखते हैं।’
ये क़ानून सबसे पहले पूर्व नगा पहाड़ियों पर लागू किया गया था, जो उस वक़्त असम में आती थीं। बाद में आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट 1958 को पूरे उत्तरी पूर्वी इलाक़े में लागू कर दिया गया, क्योंकि वहां पर कई जातीय उग्रवादी संगठन सक्रिय थे। इस क़ानून के दो और रूप भी हैं, AFSPA (पंजाब और चंडीगढ़) 1983; और AFSPA (जम्मू और कश्मीर) 1990। सुरक्षा बलों द्वारा इस क़ानून की आड़ में आतंकवादियों के साथ-साथ आम लोगों पर ज़ुल्म ढाने के आरोप लगते रहे हैं। मानव अधिकार कार्यकर्ता और क़ानून के जानकार इसे आज़ाद भारत के सबसे क्रूर क़ानूनों में से एक मानते हैं।
ग़ैरक़ानूनी हत्याएं
पिछले कई वर्षों से सुरक्षा बलों द्वारा इस क़ानून (AFSPA) का दुरुपयोग किया जाता रहा है। 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई को आदेश दिया था कि वो साल 2000 से 2012 के दौरान, उग्रवाद प्रभावित राज्य मणिपुर में, सेना और असम राइफल्स के जवानों द्वारा ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से की गई 1528 लोगों की हत्या की जांच करे।
सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ तौर पर कहा था कि सशस्त्र बल के जवान अगर अपराध करते हैं तो उन्हें क़ानून से संरक्षण नहीं मिलता है। अदालत ने कहा था कि, ‘इस मामले में क़ानून बिल्कुल साफ़ है कि अगर सेना का भी कोई जवान कोई जुर्म करता है तो उसे दंड प्रक्रिया संहिता के तहत आपराधिक अदालत में मुक़दमा चलाने से पूरी तरह से छूट हासिल नहीं है।
आरोप लगते रहे हैं कि सशस्त्र बल अक्सर ही AFSPA को लागू करने के लिए अदालत द्वारा तय दिशा निर्देशों का उल्लंघन करते हैं। ऊपर हमने NPMHR बनाम केंद्र सरकार (1997) के जिस मामले का उदाहरण दिया था, उसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई अधिकारी इस क़ानून के तहत मिले अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए, ये राय पहले क़ायम करे कि, व्यवस्था बनाए रखने के लिए उसका किसी व्यक्ति/या व्यक्तियों के ख़िलाफ़ ये क़दम उठाना ज़रूरी है क्योंकि वो प्रतिबंध के आदेश का उल्लंघन कर रहे हैं या करने वाले हैं, और ‘अधिकारी द्वारा ज़रूरी क़दम उठाए जाने से पहले उचित चेतावनी दी जानी ज़रूरी है।’
सुप्रीम कोर्ट द्वारा ये शर्तें तय करना इस बात का साफ़ संकेत है कि इस क़ानून के तहत मिले अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए किसी भी अधिकारी को असरदार कार्रवाई के लिए, प्रतिबंधात्मक आदेशों का उल्लंघन करने वाले किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के ऊपर कम से कम बल प्रयोग किया जाए।
दिसंबर में नागालैंड के मोन में हुए हत्याकांड को लेकर नागालैंड की पुलिस ने भारतीय सेना की बेहद उम्दा टुकड़ी कही जाने वाली 21 पैरा स्पेशल फ़ोर्सेज़ के ख़िलाफ़ FIR दर्ज की है। सेना ने इसे ग़लत पहचान का मामला बताकर अपनी तरफ़ से भी एक जांच बिठा दी है. नागालैंड पुलिस द्वारा दर्ज FIR में लिखा है कि, ‘यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि घटना के वक़्त न तो पुलिस का कोई गाइड मौजूद था और न ही सुरक्षा बलों ने स्थानीय पुलिस थाने से अपने अभियान के लिए किसी गाइड की मांग ही की थी। इसलिए, ये बात बिल्कुल साफ़ है कि सुरक्षा बलों का मक़सद नागरिकों की हत्या करने और उन्हें घायल करने का था।
गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट में भी इस क़ानून के असर की भयावाह तस्वीर पेश की गई है. इसमें लिखा गया है कि पिछले तीन वर्षों के दौरान उत्तर पूर्व में आम लोगों की मौत की घटनाओं में बहुत अधिक बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2021 में 33 आम लोगों की जान गई, जिसमें नगालैंड के मोन ज़िले में मारे गए 14 नागरिक भी शामिल है। इसकी तुलना में वर्ष 2019 में जहां 20 लोग मारे गए थे, वहीं 2020 में सिर्फ़ तीन लोगों की जान गई थी।
अब आगे क्या…
ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट को ख़त्म करने की बरसों से चली आ रही मांग के बावजूद ये काला क़ानून बना हुआ है। यहां ये कहने की ज़रूरत नहीं है कि मणिपुर की ‘लौह महिला’ इरोम शर्मिला ने भी AFSPA को ख़त्म करने की मांग को लेकर अगस्त 2016 तक 16 बरस लंबी भूख हड़ताल की, लेकिन, उसका भी कोई नतीजा नहीं निकला।
सुरक्षा के बड़े विशेषज्ञों ने ज़ोर देकर कहा है कि AFSPA को मामूली शक पर भी आम लोगों की ‘हत्या के लाइसेंस’ के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। उनका ये भी कहना है कि सुरक्षा बलों और सेना पर लगने वाले ‘फ़र्ज़ी एनकाउंटर’ के आरोपों की भी जांच ज़रूर की जानी चाहिए।
इस क़ानून को लेकर समस्या की एक वजह ये भी मानी जाती है कि बहुत से राज्यों की सरकारें अपने यहां क़ानून व्यवस्था क़ायम कर पाने में नाकाम रही हैं। कहा ये जाता है कि अगर राज्यों की पुलिस हालात से असरदार तरीक़े से निपट पाती तो AFSPA जैसे क़ानून की ज़रूरत ही नहीं पैदा होती, और इसे क्षेत्र से हटा लिया जाता। अब ये देखना बाक़ी है कि उत्तर पूर्व में उग्रवाद की दशकों पुरानी समस्या का समाधान करने को उत्सुक केंद्र की मौजूदा सरकार, AFSPA को लेकर जनता की इस मांग और विशेषज्ञों की राय पर क्या रुख़ अपनाती है।
This article first appeared on Observer Research Foundation.
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