प्रतीकात्मक चित्र।
- पैट्रीक्जा पेंड्राकोव्स्का, लेखिका बॉयम इंस्टीट्यूट बोर्ड की अध्यक्ष हैं। वह पोलेंड की राजधानी वारसॉ में रहती हैं।
शहरी ग़रीब तबके के लोग छोटे-छोटे कमरों में कैद रहते हैं। ऐसे में बच्चे परेशान हैं क्योंकि उनके पास खेलने की कोई जगह नहीं है, और जो जगह उन्हें नसीब है वह है छोटा-सा अहाता या पड़ोसियों के साथ साझा किया जाने वाला गलियारा।
महामारी के दौरान बच्चों की दुर्दशा के विषय पर अब भी ज्यादा रिसर्च नहीं हुई है, ख़ासकर अलग-अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में, पूरी दुनिया में विभिन्न समाज कोविड-19 से जुड़ी तरह-तरह की चुनौतियां का सामना कर रहे हैं, जो मुख्यत: आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक हालात पर निर्भर करती हैं।
हालांकि एक चीज़ समान है और वो यह कि सार्वजनिक दायरे में बच्चों की आवाज़ शायद ही कहीं सुनी जाती है। ऐसा नहीं है कि सामान्य परिस्थितियों में उनकी कुछ ज्यादा सुनी जाती है, लेकिन महामारी के दौरान दूसरे विषयों और समस्याओं को ही प्राथमिकता दी गयी, और अब भी दी जा रही है।
अंतत: ज्यादातर चर्चाएं स्वास्थ्य देखभाल, लॉकडाउन लगाने और उसे बनाये रखने के तरीक़ों, चुनाव कराने, या फिर समाज पर पड़ने वाले व्यापक आर्थिक प्रभावों पर ही केंद्रित रही हैं। बच्चों के भाग्य को बड़ों की ज़रूरतों के आगे बौना माना गया है। नतीजतन, बहुत से बच्चे सामाजिक संपर्क से वंचित हो गये, और स्वास्थ्य देखभाल व शिक्षा तक उन्हें बहुत सीमित पहुंच मिल पायी।
अशांत क्षेत्रों के बच्चों की स्थिति
सीरिया, हैती, या यमन जैसे जो देश सैन्य संघर्षों से गुज़र रहे हैं, वहां मुख्य चुनौतियां मानवीय संगठनों की मदद के अभाव या उनकी बहुत सीमित पहुंच से जुड़ी हुई हैं। कोविड-19 के चलते, बहुत से विकास या मानवीय संगठनों ने कामकाज के दायरे को बहुत सीमित कर लेने और अपने कर्मियों को वहां से हटा लेने का फ़ैसला किया।
मई 2020 की द न्यू ह्यूमैनेटेरियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, संयुक्त राष्ट्र ने अपने स्टाफ को कोविड-19 के संक्रमण से बचाने के लिए, यमन की राजधानी सना में बाकी रह गये अपने आधे से अधिक अंतरराष्ट्रीय कर्मियों को हटा लिया। ठीक उसी वक्त यात्रा संबंधी पाबंदियां आ गयीं। इसने मानवीय कर्मियों और विकास अधिकारियों की आवाजाही को बहुत सीमित कर दिया।
नतीजतन, संघर्ष क्षेत्र में रहने वाले बच्चे दोहरी मार झेल रहे हैं, कोविड-19 महामारी और साथ ही मदद से वंचित होना, जिसकी वजह से जान भी जा सकती है। ऐसी असुरक्षित जगहों में, हिंसा, कुपोषण, भूख, स्वास्थ्य समस्याओं जैसे जीवन को संकट में डाल सकने वाले मसलों की चपेट में आने का ख़तरा दूसरों के मुक़ाबले बच्चों को ज्यादा होता है।
यूनिसेफ के मुताबिक़, हैती के तक़रीबन एक-तिहाई बच्चों को आपात मदद की फ़ौरन ज़रूरत है। इसकी वजह केवल कोविड-19 नहीं है, बल्कि साफ़ पानी और स्वास्थ्य देखभाल तक उनकी बहुत सीमित पहुंच होना भी है।
विकासशील दुनिया के बच्चे
दूसरी तरफ़, विकासशील दुनिया के बहुत से बच्चों के लिए दूरस्थ शिक्षा (डिस्टेंस लर्निंग) एक विकल्प नहीं बन पा रही है। वजह है इंटरनेट तक पहुंच का अभाव, ख़राब प्रौद्योगिकीय बुनियादी ढांचा, या फिर ऊर्जा की ऊंची कीमतें, इतना ही नहीं, कई बार स्कूल से छुट्टी का मतलब यह नहीं होता कि सामाजिक दूरी का पालन हो ही जायेगा।
जिन मां-बाप को जीवनयापन का खर्च उठाने के लिए काम करने बाहर जाना पड़ता है, वे अपने बच्चों को पड़ोसियों के पास, या फिर स्थानीय समुदाय के बीच छोड़ जाते हैं। सामाजिक दूरी के पालन की क्षमता अब भी अमीरों का विशेषाधिकार है, जिनके पास व्यक्तिगत रसोईघर और शौचालय, साथ ही उनके बच्चों की देखभाल करनेवाले सहित अपना अलग घर है।
यहां तक कि पोलैंड समेत कुछ मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय देशों में भी, इंटरनेट के जुगाड़ और बच्चे के लिए कंप्यूटर ख़रीदने में अभिभावकों को मुश्किलें हुई। Open Eyes Economy Summit (OEES) द्वारा प्रकाशित Ekspertyza-3 में जुटाये गये आंकड़े के मुताबिक़, बच्चों वाले पोलिश घरों में से लगभग 10 फ़ीसद ऐसे हैं जिनके पास सिर्फ़ एक कंप्यूटर या टैबलेट है। बड़े परिवारों में से 28 फ़ीसद के पास केवल दो कंप्यूटर या टैबलेट हैं। ऐसे घरों में, कंप्यूटर या टैबलेट बच्चों के बीच आपस में, और दूर काम करने वाले माता-पिता के साथ भी साझा किये जाते हैं।
उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर, OEES ने अनुमान लगाया कि यह समस्या लगभग 25 फ़ीसद छात्रों को प्रभावित करती है। नतीजतन, अपेक्षाकृत साधनसंपन्न परिवारों के बच्चे बेहतर शिक्षा हासिल कर पा रहे थे। इस तरह, कोविड-19 महामारी ने सबसे गरीबों लोगों के बीच गैरबराबरी की खाई को चौड़ा किया है।
विकसित देशों के बच्चे
वहीं, कल्याणकारी राज्यों ने जिन चुनौतियों का सामना किया उसे Surplus Dilemma (ज़रूरत से ज्यादा सुविधाओं से उत्पन्न दुविधा) कहा जा सकता है, क्योंकि यहां बहुत से बच्चों ने काफ़ी वक्त कंप्यूटर और स्मार्टफोन की स्क्रीन के सामने में बिताया।
इन नये हालात में तनाव और सीधे सामाजिक संपर्क के अभाव ने शारीरिक और मानसिक समस्याएं पैदा की हैं। विभिन्न स्रोतों के मुताबिक़, मनोचिकित्सकों ने बच्चों और किशोरों के बीच अवसाद, बेचैनी, से जुड़ी समस्याओं, साथ ही साथ पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) के ज्यादा मामले दर्ज किये हैं।
मेडिकल यूनिवर्सिटी ऑफ साइलेसिया के Department of Psychiatry and Psychotherapy of Developmental Age को संभालने वाली Professor Małgorzata Janas-Kozik ने इस बात पर ख़ास जोर दिया कि महामारी के दौरान एनोरेक्सिया संबंधी बीमारियां (मोटापे के डर से कम खाने से होने वाली बीमारियां) बढ़ रही हैं। इतना ही नहीं, वह कहती हैं कि किशोरों के साइबर हिंसा की ज़द में आने का ख़तरा बढ़ गया है.
आइसोलेशन के नतीजतन, बहुत से छात्रों ने दोस्तियां बनाये रखने और अपने सामाजिक नेटवर्क के निर्माण में मुश्किलों का सामना किया। उनके लिए सोशल मीडिया दुनिया को देखने-जानने की खिड़की बन गयी, यानी सच्चाई का एक झूठा आईना। पूरे सोशल मीडिया में वायरल रूप ले चुके फोटो एडिटिंग के चलन और अमीरी की ज़िंदगी की नक़ल को देखते हुए, यह कहा जा सकता है कि बहुत से किशोरों ने ख़ुद को अलग-थलग और अवसादग्रस्त महसूस किया होगा। इसकी पुष्टि मास्लो के सिद्धांत से भी होती है, जो अपनेपन के बोध, स्वीकृति, और सामाजिक संपर्क के लिए इंसानी ज़रूरतों पर जोर देता है।
समाज और उससे जुड़ी समस्याएं व चुनौतियां किसी भी क़िस्म की हों, महामारी के दौरान बच्चों की स्थिति का प्रबंधन, और इसे स्थानीय एवं क्षेत्रीय दशाओं के अनुरूप बनाने का काम चर्चा के केंद्र में होना चाहिए। केंद्रीकृत ढंग से क़ानूनों को लागू करने और फ़ैसलों से केवल को कुछ को फ़ायदा पहुंचेगा और दूसरों के साथ भेदभाव होगा।
उदाहरण के लिए, अगर झुग्गी बस्तियों में रहने वाले मां-बाप को काम पर जाना पड़ता था और वे बच्चों को अपने पड़ोस में या इलाके के ही दूसरे लोगों के पास छोड़ने का फ़ैसला करते हैं, तो नीतिनिर्माताओं के लिए इस बात की गुंजाइश थी कि वे स्कूलों की छुट्टी ख़त्म कर सकते थे, क्योंकि बच्चे यूं भी दूसरे नन्हे-मुन्नों के संपर्क में आ ही रहे थे।
सेव द चिल्ड्रेन्स रिसोर्स सेंटर इस बात को रेखांकित करता है कि शहरी ग़रीब तबके के लोग छोटे-छोटे कमरों में कैद रहते हैं ऐसे में बच्चे परेशान हैं क्योंकि उनके पास खेलने की कोई जगह नहीं है, और जो जगह उन्हें नसीब है वह है छोटा-सा अहाता या पड़ोसियों के साथ साझा किया जाने वाला गलियारा। इसके अलावा, नेपाल जैसे देशों के लिए ऑनलाइन शिक्षा हक़ीक़त के बजाए एक मनोकामना ही ज्यादा थी, क्योंकि नेपाल के शिक्षा विभाग के मुताबिक़, केवल 48 फ़ीसद नेपाली पब्लिक स्कूल ऑनलाइन थे और डिजिटल लर्निंग लागू कर सके थे।
यह हो सकता है संभावित हल
इन सभी चुनौतियों का पहला जवाब है लचीलापन बनाये रखना। उदाहरण के लिए, पोलिश इलाके पोडलासे में, शिक्षकों ने पढ़ाई का टाइमटेबल परिवारों की ज़रूरतों के मुताबिक़ समायोजित करने का फ़ैसला किया। अगर शिक्षकों को पता चला कि एक परिवार में दो बच्चे हैं लेकिन कंप्यूटर एक ही है, और दोनों की क्लास एक ही समय में अलग-अलग विषयों पर है, तो दूसरे बच्चे के सबक के लिए अलग वक्त तय किया गया।
दूसरा हल है समायोजन (adjustment)। यानी, नीतिनिर्माताओं द्वारा राजधानियों में लिये गये केंद्रीकृत फ़ैसलों को स्थानीय दशाओं और संदर्भों के अनुरूप समायोजित किया जाए, ताकि स्थानीय लोगों की ज़रूरतों का समाधान ढंग से किया जा सके। इंटरनेट तक पहुंच और टेक्नोलॉजी से वंचित बच्चों के लिए शिक्षा को ऑनलाइन बना देना कोई विकल्प नहीं है।
इसलिए, जिन बच्चों की ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंच नहीं है, उनके लिए छोटे-छोटे समूहों में ऑफलाइन शिक्षा एक समाधान हो सकती है, ख़ासकर उन इलाकों में जहां नये संक्रमणों की संख्या ज्यादा नहीं है।
This article first appeared on Observer Research Foundation.
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